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________________ २२ जैनहितैषी [भाग १३ की भाषा जयपुरके बने द्वितीय सर्गका न्यायभाग समय मालूम नहीं। कके ढंगका है । शेष दो ग्रन्थ अधूरे हैं- १ सर्वार्थसिद्धि विक्रम संवत् १८६१ १ पुरुषार्थसिद्ध पायकीवचनिका और २ मोक्षमार्ग- २ परीक्षामुख (न्याय ) , १८६३ प्रकाशक । इनमेंसे पहले ग्रन्थको तो पं० ३ द्रव्यसंग्रह .. , १८६३। दौलतरामजी काशलीवालने पूर्ण कर दिया था; ४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा परन्तु दूसरा ग्रन्थ मोक्षमार्गप्रकाशक अधूरा ही ५ आमख्याति समयसार , १८६४ । है । यह छप चुका है । ५०० पृष्ठका ग्रन्थ ६ देवागम ( न्याय) १८८६ । है। बिल्कुल स्वतंत्र है। गद्य हिन्दीमें जैनोंका ७ अष्टपाहुड १८६७। यही एक ग्रन्थ है जो तात्विक होकर भी स्वतंत्र ८ ज्ञानार्णव १८६९। लिखा गया है। इसे पढ़नेसे मालूम होता है ९ भक्तामरचरित्र , १८७० । कि यदि टोडरमलजी वृद्धावस्थातक जीते, तो १० सामायिक पाठ जैनसाहित्यको अनेक अपूर्व रत्नोंसे अलंकृत कर ११ चन्द्रप्रभकाव्यके जाते । आपके ग्रन्थोंकी भाषा जयपुरके बने , हुए तमाम ग्रन्थोंसे सरल, शुद्ध और साफ है। १२ मतसमुच्चय (न्याय) [ अपने ग्रन्थोंमें मंगलाचरण आदिमें जो आपने १३ पत्रपरीक्षा (न्याय ) , पद्य दिये हैं, उनके पढ़नेसे मालूम होता है कि । ये सब ग्रन्थ संस्कृत और प्राकृतके कठिन आप कविता भी अच्छी कर सकते थे। आपकी कठिन ग्रन्थोंक भाषानुवाद हैं। पाँच ग्रन्थ तो जन्म और मृत्यकी तिथियाँ हमें मालम नहीं हैं। केवल न्यायके हैं । (भक्तामरको छोड़कर ) शेष आपने गोम्मटसारकी टीका विक्रम संवत सब उच्चश्रेणीके तात्त्विक ग्रन्थ हैं । पद्य भी आप १८१८ में पूर्ण की है और आपके परुषार्थ- अच्छा लिख सकते थे। आपने फुटकर पद और सिद्ध्युपायका शेष भाग दौलतरामजीने सं० विनतियाँ भी बनाई हैं जिनकी श्लोकसंख्या १८२७ में समाप्त किया है। अर्थात् इससे वर्ष ११०० है । व्यसंग्रहका पद्यानुवाद भी आपने दो वर्ष पहले आपका स्वर्गवास हो चुका होगा किया है । आपकी लिखी हुई एक चिट्ठी हमने और यदि आपकी मृत्यु ३२-३३ वर्षकी अव वृन्दावनविलासमें प्रकाशित की है जो संवत् स्थामें हुई हो तो आपका जन्म वि. संवत् १८७० की लिखी हुई है और पद्यमें है । आपकी गद्यलेखशैली अच्छी है । आपके बनाये १७९३के लगभग माना जा सकता है । आपकी लिखी हुई एक धर्ममर्मपूर्ण चिट्री भी है जो . हुए कई बड़े बड़े ग्रन्थ छप चुके हैं । लेख बड़ा आपने मुलतानके पंचोंको लिखी थी। यह एक हो गया है, इस कारण हम आपकी रचनाके छोटी मोटी पुस्तकके तुल्य है । छप चुकी है। उदाहरण नहीं दे सकते। २ जयचन्द्र । इस शताब्दीके लेखकोंमें ३ वृन्दावन । वृन्दावनजीका जन्म शाहा बाद जिलेके बारा नामक ग्राममें संवत् १८४८ पं० जयचन्दजीका दूसरा नम्बर है । आप भी को हुआ था। आप गोयलगोत्री अग्रवाल थे। जयपुरके रहनेवाले थे और छावड़ा-गोत्री खंडे आपके पिताका नाम धर्मचन्दजी था । जब लवाल थे। आपने नीचे लिखे ग्रन्थोंकी भाषावच. आपकी उम्र १२ वर्षकी थी तब आपके पिता निकायें लिखी हैं। इन सब ग्रन्थोंकी श्लोकसं- आदि काशीमें आ रहे थे । काशीमें बाबरशहीख्या सब मिलाकर ६० हजारके लगभग है। दकी गलीमें आपका मकान था । आपके वंशके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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