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________________ अङ्क १ ] हिन्दी - जैनसाहित्यका इतिहास । २३ उदाहरण: लोग इस समय आरामें मौजूद हैं । आपका अच्छी निर्दोष शिक्षायें भरी हुई हैं । एक विस्तृत जीवनचरित हमने वृन्दावनविलासकी भूमिकामें लिखा है । आपका देहान्त कब हुआ है, यह पता नहीं । आपकी सबसे अन्तिम रचना संवत् १९०५ की है । आप अच्छे कवि थे । आपका बनाया हुआ मुख्य ग्रन्थ ' प्रवचनसार' है, जो प्राकृत ग्रन्थका पद्यानुवाद है । इसे आपने बड़े ही परिश्रमसे बनाया है । इसको सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए आपने तीन बार परिश्रम किया था । यथा: - 1 तब छन्द रची पूरन करी, चित न रुची तब पुनि रची। सोऊ न रुची तब अब रची, अनेकान्त रससौं मची ॥ दूसरा ग्रन्थ ' चतुर्विंशतिजिनपूजापाठ ' और तीसरा ' तीस चौवीसीपूजापाठ ' है । दूसरे ग्रन्थका बहुत अधिक प्रचार है । कई बार छप चुका है । इनमें तीर्थंकरोंकी पूजायें हैं । शब्दालङ्कार अनुप्रास यमक आदिकी इनमें भरमार है; पर भावकी ओर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना शब्दोंकी ओर दिया गया है । चौथा छन्दशतक है । यह बहुत ही अच्छा ग्रन्थ है । इसमें अधिक उपयोगी १०० प्रकारके छन्दोंके बनाने की विधि और छन्दशास्त्रकी प्रारंभकी बातें पद्यमें लिखी हुई हैं । विद्यार्थी बहुत ही थोड़े परिश्रमसे इसके द्वारा छन्दशास्त्रका ज्ञान प्राप्त कर सकता है । अब तक इसके जोड़का सरल सुपाठ्य और थोड़े में बहुत प्रयोजन सिद्ध करनेवाला दूसरा छोटा छन्दोग्रन्थ नहीं देखा गया । हिन्दी साहित्य सम्मेलनकी प्रथमा परीक्षामें यह पाठ्य पुस्तक बननेके योग्य है । संस्कृतके वृत्तरत्नाकर आदि ग्रन्थोंकी नाई प्रत्येक छन्दके लक्षण और नाम आदि उसी छन्दमें दिये हैं और प्रत्येक छन्दमें अच्छी Jain Education International चतुर नगन मुनि दरसत, भगत उमग उर सरसत । ति श्रुति करि मन हरसत, तरल नयन जल बरसत ॥ इसमें छन्दका नाम और लक्षण बहुत ही खूबीसे दिया गया है । यह ग्रन्थ सं०१८९८ में कविने अपने पुत्र अजितदासके पढ़ाने के लिए केवल १५ दिनमें बनाया था । चौथा ग्रन्थ कविकी तमाम फुटकर कविताओंका संग्रह 'वृन्दा वनविलास ' है । इसमें पद, स्तुति, पत्रव्यवहार आदि हैं । एक और ग्रन्थ 'पासा केवली' है जिसमें पासा डालकर शुभाशुभ जानकी रीति लिखी है । ४ यति ज्ञानचन्द्र । ये उदयपुर राज्यके इति माण्डलगढ़ में रहते थे । राजस्थानके हासके अच्छे जानकार और इतिहास के साहित्यका संग्रह रखनेवाले थे । राजस्थान का इतिहास लिखने में कर्नल टाडको इन्होंने बहुत सहायता दी थी । टाड साहब इन्हें अपना गुरु मानते थे । उन्होंने अपने ग्रन्थमें इनके उपकारोंका उल्लेख कियाँ है । ये अच्छे कवि थे । इनकी बनाई हुई कुछ फुटकर कवितायें मिलती हैं । मिश्रबन्धुओंने इनका पद्य रचनाकाल १८४० लिखा है । ५ भूधर मिश्र | आगरे के समीप शाहगंजके रहनेवाले ब्राह्मण थे । आपके गुरुका नाम पण्डित रंगनाथजी था । पुरुषार्थसिद्धुपाय नामक जैनग्रन्थमें अहिंसातत्त्वकी मीमांसा पढ़नेसे आपको जैनधर्म पर भक्ति हो गई थी । आपने रंगनाथजीसे अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया और फिर पुरुषार्थसिद्ध्युपायकी एक विशद भाषाटीका बनाई । यह विक्रम संवत् १८७१ की भाद्रपद सुदी १० को समाप्त हुई है। इस टीका आप For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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