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________________ २४ जैनहितैषी [भाग १३ बीसों जैनग्रन्थोंके प्रमाण देकर अपने विचारोंको गद्य पद्यके अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमेंसे दो छप पुष्ट किया है । चर्चासमाधान नामका एक और चुके हैं-१ ज्ञानदर्पण और २ अनुभवप्रकाश । ग्रन्थ भी आपका बनाया हुआ मिलता है । इनमें पहला पद्यमें और दूसरा गयमें है। पयआप कवि भी अच्छे थे । पुरुषार्थसि० का रचना सुन्दर, छन्दोभंग आदि दोषोंसे रहित और मंगलाचरण देखिए: सरल है । गद्यका नमूना यह है:नमों आदि करता पुरुष, " इस शरीरमंदिरमैं यह चेतन दीपक आदिनाथ अरहत। सासता है । मन्दिर तौ छूटै पर सासता रतन द्विविध धर्मदातार धुर, दीप ज्यौंका त्यौं रहै । व्यवहारमैं तुम अनेक महिमा अतुल अनंत ॥१॥ स्वांग नटकी ज्यौं धरे। नट ज्यौंका त्यौं रहै । स्वर्ग-भूमि-पातालपति, वह स्पष्ट भाव कर्मको है। तौऊ कमलिनीपत्रकी जपत निरंतर नाम । नाई कर्मसौं न बँधै न स्पर्शे।" जा प्रभुके जस हंसको, जग पिंजर विश्राम ॥२॥ इससे मालूम होता है कि गवरचना कितनी जाकौं सुमरत सुरतसौं, . अच्छी और साफ है । आजसे लंगभग १०० दुरत दुरत यह भाय। वर्ष पहले इतना अच्छा गय लिखा जाने लगा तेज फुरत ज्यौं तुरत ही, था। इनके बनाये हुए अनुभवप्रकाश, अनुभवतिमिर दूर दुर जाय ॥३॥ विलास, आत्मावलोकन, चिबिलास, परमात्मइन पद्योंसे यह भी मालूम होता है कि पुराण, स्वरूपानन्द, उपदेशरत्न, और अध्यात्मआपको जैनधर्म पर अच्छा विश्वास था। पचीसी ये पद्यके ग्रन्थ और भी हैं। ये सब ग्रन्थ ६ बुधजन। बुधजनका पूरा नाम विरधीच- स्वतंत्र हैं और यही इनकी विशेषता है। न्दजी था । आप खण्डेलवाल थे और जयपुरके ८ ज्ञानसार या ज्ञानानन्द । आप एक रहनेवाले थे। आपके बनाये हुए चार पयग्रन्थ श्वेताम्बर साधु थे। संवत् १८६६ तक आप उपलब्ध हैं -१ तत्त्वार्थबोध, २ बुधजनस- जीवित रहे हैं । आप अपने आपमें मस्त रहते तसई, ३ पंचास्तिकाय और ४ बुधजनविलास। थे और लोगोंसे बहुत कम सम्बन्ध रखते थे। ये चारों क्रमसे १८७१-८१-९१ और ९२ कहते हैं कि आप कभी कभी अहमदाबादके एक संवत्के बने हुए हैं। इनकी कवितामें मारवाडीपनं स्मशानमें पड़े रहते थे! 'सज्झाय पद अने स्तवन बहुत है । बुधजनसतसईकी रचना कुछ अच्छी संग्रह' नामके संग्रहमें आपके 'ज्ञानविलास' और है और सब रचनायें साधारण हैं। तत्त्वार्थबेध 'समयतरंग' नामसे दो हिन्दी पदसंग्रह छपे हैं और पंचास्तिकायको छोड़कर इनके लगभग सब जिनमें क्रमसे ७५ और ३७ पद हैं । रचना ग्रन्थ छप गये हैं। ___ अच्छी है। आपने आनन्दघनकी चौवीसी पर ७ दीपचन्द । ये आमेर (जयपुर ) के एक उत्तम गुजराती टीका लिखी है जो छप रहनेवाले काशलीवाल गोत्रीय खेण्डलवाल थे। चुकी है । इससे आपके गहरे आत्मानुभवका इनके जो ग्रन्थ हमने देखे, उनमें समय आदि पता लगता है। कुछ भी नहीं लिखा है, तो भी अनुमानसे ये ९ रंगविजय । ये तपागच्छके विजयानंद१९ वीं शताब्दीके कवि हैं। इनके बनाये हुए सूरि समुदायके यति थे । इनके गुरुका नाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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