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________________ ४० जैनहितैषी - पार्वती और भी अधिक रोने लगी । नायबने बाहर से रोनेके शब्दको सुनकर कहा - " ब्राह्मणी बाई, जरा किवाड़ खोल दो । मैं तुम्हारे पति की खबर लेकर आया हूँ । ” जहाँपर पेड़की आड़ में छिपे हुए रामेश्वर खड़े थे वहाँतक इन बातोंका कोई शब्द नहीं पहुँचता था । पार्वती के धीरे 'धीरे रोने की आवाज भी वहाँतक नहीं जाती थी । नायबकी बात सुनते ही भलाई बुराईका विचार किये विना ही पार्वतीने मकानका द्वार खोल दिया । नायबने भीतर जाकर कहा कि तुमसे बहुतसी बातें कहना है, इसलिए पहले द्वार बंद कर लो तो अच्छा है ; नहीं तो कोई सुन लेगा । रामेश्वरने दूरसे ही खड़े खड़े देखा कि नायबने मकानके द्वारपर पहुँचकर किबाड़ खटखटाये और पार्वतीको अस्फुट स्वरमें पुकार कर दो एक बातें कहीं । इससे उसका स्वास जल्दी जल्दी चलने लगा । आगे उसने देखा कि पार्वतीने शीघ्र ही कबाड़ खोल दिये और नायबके घर में धँसते ही द्वार फिर बन्द हो गया । रामेश्वरने सोचा कि अब मुझे और क्या समझना बाकी रह गया ? नायबने इसीके लिए कौशल से मुझको दारोगा के हाथमें फँसाया था । अच्छा इसका बदला लूँगा यह कहकर वह मकानके द्वारपर आकर खड़ा हो गया । वहाँसे उन दोनोंकी बातचीत सुन पड़ती थी। पहले तो उसने सोचा कि सुनना चाहिए क्या बातें हो रही हैं; किन्तु फिर तत्क्षण ही अपने ऊपर क्रुद्ध होकर किबाड़ोंमें लात मारी । घर के भीतर निस्तब्धता हो गई; तब मर्मवेदना से रुके हुए क़ण्ठसे उसने कहा -, " जिसके लिए तू रो रही थी, वह आया था; किन्तु तेरा यार घरमें है इसलिए अब वह जाता है । " पार्वती पतिकी आवाज समझकर आनन्दसे फूली नहीं समाई, पागलसी होकर बाहर निकल आई और पुकारने लगी। पर रामेश्वरने उसपर ध्यान नहीं दिया, वह बिना कुछ कहे ही चल दिया । द्वार । Jain Education International [ भाग १३ खोलने पर जब पार्वतीने पतिको देखा और पुकारनेका उत्तर न पाया, तब वह रोने लगी । रामेश्वर सोचने लगा कि मैं अब न किसी औरको कष्ट दूँगा और न स्वयं ही कष्ट उठाऊँगा - इस घृणित पृथिवीको ही त्याग दूँगा । यही सिद्धान्त करके वह चल पड़ा । दोपहर जो रोना मर्मभेदीसा जान पड़ा था, वही अब पैशाचिक समझ पड़ने लगा । 66 कुछ दूर जानेपर रामेश्वरने देखा कि सिपाही लौटे हुए आरहे हैं । उनके पास जाकर उसने कहा - " लो, हमको बाँध लो, हम लौटकर आ गये।” रामेश्वर की सूरत देखकर सब कोई डरे, उनका साहस न हुआ कि हम इसे बाँध लें । रामेश्वरने कहा कि “ घरके उन लोगोंको देखनेकी बड़ी इच्छा हुई थी, इसी से चला गया था । अब चलो, डरने की कोई बात नहीं है । मैंने अपने आपही अपने को पकड़ावाया था, तभी तो तुम्हारे दारोगा मेरा चालान कर सके थे; नहीं तो उनकी कुछ भी नहीं चलती । मैंने उस दिन खून किया था, किन्तु किसीने भी मुझको इसलिए पकड़ने की चेष्टा नहीं की कि मैं पकड़ा नहीं जा सकूँगा । " "" यह सुनकर जमादारने बड़े आग्रहके साथ पूछा “कि क्या उस दिनका खून तुमहीने किया था ? " रामेश्वरने उत्तर दिया, “हाँ, वह खून मेरा ही किया हुआ था । जमादारने फिर पूछा कि “ तुम क्या अदालत में उसको स्वीकार कर सकते हो ? " रामेश्वरने कहा, हाँ, अवश्य स्वीकार कर सकता हूँ; मुझे डर ही किसका है ।” इसके बाद उससे किसीने कुछ भी पूछताछ नहीं की; उसे लेकर सब चुपचाप चल दिये । 66 दूसरे दिन अपराधी मजिस्ट्रेट के सामने ले जाकर खड़ा किया गया । उसे गौरसे देख कर मजिस्ट्रेट साहबने पूछा " क्या तुम उस खूनके मामलेके इकरारी आसामी हो ? " " हाँ " कह For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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