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जैनहितैषी
[भाग १३
३ जो यह कहते हैं कि वस्तु सर्वथा अव- है। अनेकान्तवादमें आठ विरोध दोष भी नहीं क्तव्य रूप ही है। उनमें निजवचनका विरोध है। हैं। वे आठ दोष ये हैं-१ विरोध, २ वैयधिकक्योंकि अवक्तव्य इस शब्दसे वे वस्तुको कहते रण्य, ३ अनवस्था, ४ संकर, ५ व्यतिकर, हैं तो सर्वथा अवक्तव्यता कहाँ रही? जैसे कोई ६ संशय, ७ अप्रतिपत्ति और ८ अभाव। कहे कि मैं सदा मौन व्रत धारण करता हूँ शंका १-अस्ति नास्ति एक पदार्थमें विरोध यदिसदा मौन है तो 'मैं मौन हूँ ' यह वाक्य दोष है। कैसे कहा ?
उत्तर-विरोधका साधक अभाव है। जैसे एक इस लिए केवल तीसरा भंग भी ठीक नहीं है। वस्तुमें घटत्व और पटत्व, दोनों विरोधी हैं, इसी तरह और और मत भी समझो । अब परन्तु द्रव्यको छोड़ दिया जाय और केवल अनेकान्त वादमें जो शंकायें दूसरे मतावलम्बी उस वस्तु के रूप ही देखे जायँ तो इन रूपोंमें विद्वानोंने उठाई हैं, उनका निवारण लिखते हैं। विरोध नहीं है। द्रव्यकी दृष्टि से वस्तुकी सत्ता
किसीने कहा है कि अनेकान्तवाद छलमात्र है, परन्तु रूपोंमें विरोध है। इस तरह एक वस्तुमें है, पर यह बात नहीं है । अनेकान्तबाद भाव अभाव दोनों हो सकते हैं। निजरूपसे छल मात्र इसलिए नहीं है कि छलयोजनामें एक भाव और पररूपसे अभाव । ही शब्दके दो अर्थ होते हैं। जैसे “नवकम्बलोऽयं शंका २-अस्ति नास्तिका एक पदार्थमें होना देवदत्तः' यहाँ नवके दो अर्थ हैं-१ नया और २ एक अधिकरणमें होना है । इस लिए यह दोष नौ, अर्थात् देवदत्तके पास नया कम्बल है और है। दो अधिकरण होने चाहिए थे। देवदत्तके पास नौ कम्बल हैं। यह बात अनेकान्त- उत्तर-एक वृक्ष अधिकरणमें चल और वादमें नहीं है। एक पदार्थको एक दृष्टिसे देखनेसे अचल दोनों धर्म हैं । एक वस्तुमें रक्त श्याम उसका होना बताना और दूसरी दृष्टिसे देखनेसे पीला कई रंग हो सकते हैं। इसी प्रकार अने. उसका नहीं होना बताना, एक शब्दके दो अर्थ कान्तवाद है। . नहीं हुए। इस लिए यह छल नहीं हुआ। ३ शंका-जो अप्रमाणिक पदार्थोकी परंपरासे __ अनेकान्तवाद संशयका हेतु भी नहीं है। कल्पना है उस कल्पनाके विश्रामके अभावको संशय होनेमें सामान्य अंशका प्रत्यक्ष, विशेष ही अनवस्था कहते हैं । अस्ति एक रूपसे है अंशका अप्रत्यक्ष, और विशेषकी स्मति होना आ. नास्ति पररूपसे है । दोनों एकरूपसे होने वश्यक है । जैसे कुछ प्रकाश और कुछ अन्धकार ।
चाहिए, नहीं तो यह दोष आता है ।
उत्तर-अनेकधर्मस्वरूप वस्तु पहले ही सिद्ध होनेके समय मनुष्यके समान स्थित खंभको देख
। ख. हो चुकी है। फिर कहनेकी आवश्यकता नहीं। कर, लेकिन उसके और विशेष अंशोंको नहीं यहाँ अप्रमाणिक पदार्थोकी परंपराकी कल्पनाका देखकर (जैसे उसमें पक्षियोंके घासेले अथवा सर्वथा अभाव है। मनुष्यके हाथ पैर वस्त्र शिखा आदि ) और मनु- ४ शंका-एक कालमें ही एक वस्तुमें सब ज्यके और अंशोंको याद कर उसमें मनुष्यका धर्मोकी व्याप्ति संकर दोष है, और वह इसमें है। भ्रम करना। परन्तु यह बात अनेकान्तवादमें उत्तर-अनुभवसिद्ध पदार्थ सिद्ध होनेपर नहीं है । क्योंकि स्वरूपपररूपविशेषोंकी उप- किसी भी दोषका अवकाश नहीं है। जब पदार्थलब्धि प्रत्येक पदार्थमें है। इस लिए विशेषकी की सिद्धि अनुभवसे विरुद्ध होती है वह तभी इस उपलब्धिसे अनेकान्तवाद संशयका हेतु नहीं दोषका विषय होता है।
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