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________________ अङ्क १] सप्तभङ्गी नय । पूर्ण और विलक्षण सिद्धान्त है । जिस तरह प्रत्येक वस्तुमें ‘अस्ति' लगा कर वाक्य बनाते हैं, उसी तरह नित्य अनित्य एक अनेक शब्द भी लगाते हैं । सप्तभंगीका निरूपण नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व और अनेकत्व आदि धर्मों से भी करना चाहिए। जैसे शायद घट नित्य है ( द्रव्यरूप से ), शायद अनित्य है ( पर्य्यायरूपसे), इसी तरह एकत्व और अनेकत्व रूपसे शायद घट एक है शायद घट अनेक है । द्रव्यरूपसे तो एक है क्योंकि मृत्तिकारूप द्रव्य एक हैं और सामान्य है और पर्याय रूपसे अनेक है, क्योंकि रस गंध आदि अनेक पीयरूप है । व्यवस्था देना जैनशास्त्रका अद्भुत गंभीर गवे न्तकी अपेक्षासे है। दूसरा अनेकान्तकी अपेक्षासे, तीसरा दोनोंकी अपेक्षासे - चौथा एकान्त और अनेकान्तकी एक कालमें योजनाकी अपेक्षासे, पाँचवाँ एकान्त और उभयवादकी एक काल में योजनाकी अपेक्षासे । छठा अनेकान्त और उभयवादकी एक कालकी योजनाकी अपेक्षासे और सातवाँ एकान्त और अनेकान्त और उभयवादकी एक कालमें योजनाकी अपेक्षा ह । एकान्त और अनेकान्त । एकान्त दो प्रकारका है अर्थात् सम्यक और मिथ्या । इसी तरह अनेकान्त भी दो प्रकारका है। एक पदार्थमें अनेक धर्म होते हैं। इनमें से किसी एक धर्मको प्रधान कर कहा जाय और दूसरे धर्मोका निषेध नहीं किया जाय तो सम्यक एकान्त है। यदि किसी एक धर्मका निश्चय कर उस पदार्थके और सब धर्मोका निषेध किया जाय तो वह मिथ्या एकान्त है । प्रत्यक्ष अनुमान और आगम प्रमाणोंसे अविरुद्ध एक वस्तुमें अनेक धर्मोका निरूपण करना सम्यक् अनेकान्त है । प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे विरुद्ध एक वस्तुमें अनेक धर्मोकी कल्पना करना मिथ्या अनेकान्त है । सम्यक् एकान्त तो नय है और मिथ्या एकान्त नयाभास है । ऐसे ही सम्यक् अनेकान्त तो प्रमाण है और मिथ्या अनेकान्त प्रमाणाभास है । जैनशास्त्र सम्यक् एकान्त और सम्यक् अनेकान्तको मानता है और मिथ्या एकान्त और मिथ्या अनेकान्तको नहीं । सप्त भङ्गिनयमें सम्यक् एकान्त और सम्यक् अनेकासन्त दोनों मिले हैं । इसका पहला वाक्य एका Jain Education International ५ यह न केवल अनेकान्त अनेकान्त ही नहीं है, बल्कि एकान्त भी इसमें मिला है । यदि एकान्तका अभाव हो तो एकान्त के समूहभूत अनेकान्तका भी अभाव हो जाय । जैसे शाखाओंका अभाव हो जाय तो शाखासमूहभूत वृक्षका भी अभाव हो जायगा । इस नयमें मूलभूत भङ्ग पहले दो वाक्य ' अस्ति ' और ' नास्ति ' हैं । आगेके ३ से ७ तक वाक्य इनहीकी योजनासे होते हैं । 1 जैनमतके सिवा और मतवाले किसी न किसी तत्त्वको प्रधान मानकर केवल एकान्तवादी ही हैं। अतः उनका पक्ष कमजोर हो जाता है. जैनमत सम्यक् एकान्तको लिये हुए सम्यक् अनेकान्तवादी है । इसलिए इसका पक्ष बड़ा बलिष्ठ और सर्वव्यापक है । केवल एकान्तवाद मानने से जो दोष आते हैं उन्हें कुछ दूसरे शास्त्रोंके सिद्धान्तसे दिखाते हैं । उसकी पर्य्याय नहीं, इसलिए उसकी दृष्टिसे इस १ सांख्य शास्त्र तत्त्वको द्रव्य ही मानता है, नयका एक ही भंग सत्य है । परन्तु पर्य्यीय भी अनुभवसिद्ध है, इसलिए यह मत ठीक नहीं । २ पर्याय ही तत्त्व है। हर एक पदार्थ क्षण क्षणमें बदलता रहता है, इसलिए क्षणिक पर्य्याय ही तत्त्व है, कोई मुख्य द्रव्य तत्त्व नहीं है । यह बौद्ध मानते हैं। इनकी दृष्टिसे दूसरा ही भंग ठीक है । परन्तु घटादि पर्य्यायोंमें मृत्तिकारूप द्रव्य और कटक कुण्डल आदिमें सुवर्ण द्रव्य भी अनुभव - सिद्ध है । इसलिए इनका मत भी ठीक नहीं है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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