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________________ अङ्क १] हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास। जाफरखाँके काज समारै, . पं० हीरानन्द ने इसके सिवाय और कोई भया दिवान उजागर सारै ॥५॥ ग्रन्थ बनाया या नहीं, यह मालूम नहीं होसका। जगजीवनजीको साहित्यका अच्छा प्रेम ६आनन्दघन। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ये था। आपकी प्रेरणासे हिन्दीमें कई जैनग्रन्थोंकी एक प्रसिद्ध महात्मा हो गये हैं । उपाध्याय रचना हुई है। आप स्वयं भी कवि और विद्वान् यशोविजयजीसे, सुनते हैं इनका एक बार थे । बनारसीदासजीकी तमाम कविताका संग्रह साक्षात् हुआ था । यशोविजयजीने आनन्दबनारसीविलासके नामसे आपहीने विक्रम संवत् घनजीकी स्तुतिरूप एक अष्टक बनाया है, अतः १७०१ में किया है । बनारसीके नाटक सम- इन्हें यशोविजयजीके समसामयिक ही समझना यसारकी आपने एक अच्छी टीका भी लिखी है, चाहिए। ये पहुँचे हुए महात्मा और आध्याजो हमारे देखनेमें नहीं आई, पर उसके आधा- त्मिक कवि थे । आपकी केवल दो रचना रसे जो गुजराती टीका लिखी गई है और भीमसी उपलब्ध हैं एक स्तवनावली जो गुजराती भाषामें माणकके प्रकरणरत्नाकरमें प्रकाशित हुई है उसे है और जिसमें २४ स्तोत्र हैं और दूसरी 'आहमने देखा है। नन्दघन बहत्तरी' जिसमें ७२ पद* हैं और जगजीवनके समयमें भगवतीदास, घनमल, हिन्दीमें है । आनन्दघनजीके निवासस्थान आमुरारि, हीरानन्द आदि आदि अनेक विद्वान् दिका कुछ भी पता नहीं है; परन्तु उनके विथे। हीरानन्दजी शाहजहानाबादमें रहते थे। षयमें गुजरातीके प्रसिद्ध लेखक मनसुखलाल जगजीवनजीने उनसे पंचास्तिकाय समयसारका रवजीभाई मेहताने एक ४०-४२ पृष्ठका निपद्यानुवाद करनेकी प्रेरणा की और तब उन्होंने बन्ध लिखा है और उक्त दोनों ग्रन्थोंकी भाषा संवत् १७११ में इस ग्रन्थको रचकर तैयार कर पर विचार करके 'भाषाविवेकशास्त्र' की दृष्टिसे दिया। उन्होंने इसे केवल दो महीनेमें बनाया अनुमान किया है कि अमुक अमुक प्रान्तोंमें था । यह ग्रन्थ छप चुका है; गत वर्ष जैनमि- उन्होंने भ्रमण किया होगा और वे रहनेवाले त्रके उपाहारमें दिया गया था । इसमें शुद्ध अमुक प्रान्तके होंगे । आनन्दघन बहत्तरीकी निश्चयनयसे जैनदर्शनमें मानी हुई ( कालद्र- प्रसिद्धि गुजरातमें बहुत है। उसके कई संस्कव्यको छोड़कर शेष ) पाँच द्रव्योंका स्वरूपनि- रण छप चुके हैं । गुजरातियों द्वारा प्रकाशित रूपण है । तात्त्विक ग्रन्थ है । कविता बनारसी, होनेसे यद्यपि उसमें गुजरातीपन आ गया है, भगवतीदास आदिके समान तो नहीं है, पर तथापि भाषा उसकी शुद्ध हिन्दी है । उसकी बुरी भी नहीं है। उदाहरणः रचना कबीर सुन्दरदास आदिके ढंगकी है और सुखदुख दीसै भोगता, ___ * रायचन्द्र काव्यमालामें जो 'आनन्दघन बहसुखदुखरूप न जीव। त्तरी' छपी है उसमें १०७ पद्य हैं । जान पड़ता है, सुखदुख जाननहार है, इसमें बहतसे पद औरोंके मिला दिये गये है। थोडा ग्यान सुधारसपीव ॥ ३२१॥ ही परिश्रम करनेसे हमें मालूम हुआ कि इसका ४२ संसारी संसारमैं, वाँ पद 'अब हम अमर भये न मरेंगे' और अन्तकरनी करै असार । का पद 'तुम ज्ञान-विभौ फूली वसन्त ' ये दोनों. सार रूप जानै नहीं, द्यानततरायजीके हैं । इसी तरह जाँच करनेसे मिथ्यापनकौं टार ॥ ३२४ रोका भी पता चल सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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