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________________ हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः । CHATAR HETAUNator तेरहवाँ भाग। अंक १ जैनहितैपी। माघ, २४४३ जनवरी, १९१७. न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विशेषी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ ऐसी मति हो जाय। ( सोहनी ।) दयामय, ऐसी मति हो जाय। त्रिजगतकी कल्याण-कामना, दिन दिन बढ़ती जाय ॥१॥ औरोंके सुखको सुख समझू, सुखका करूँ उपाय। अपने दुख सब सहूँ किन्तु, परदुख नहिं देखा जाय ॥२॥ अधम अज्ञ अस्पृश्य अधर्मी, दुखी और असहाय। . सबके अवगाहनहित मम उर, सुरसरि सम बन जाय ॥३॥ भूला मटका उलटी मतिका, जो है जनसमुदाय। उसे सुझाऊँ सच्चा सत्पथ, निज सर्वस्व लगाय ॥४॥ सत्य धर्म हो, सत्य कर्म हो, सत्य ध्येय बन जाय। सत्यान्वेषणमें ही 'प्रेमी', जीवन यह लग जाय ॥५॥ सप्तभंगी नय। ले.-लाला कन्नोमल एम. ए.,सेशनजज, धौलपुर यह जैनशास्त्रोंका बड़ा प्रसिद्ध और गौ 'रवशाली नय है । जैनशास्त्रज्ञ इसीके द्वारा समस्त संसारकी चेतन और अचेतन वस्तुओंका निर्णय करते हैं । जैनधर्मके नवतत्त्वोंका अर्थात् जीव-अजीव-पाप-पुण्य-आस्रव-बन्ध-संवरनिर्जरा और मोक्षका अधिगम (ज्ञान). प्रमाण और नय द्वारा होता है। जिससे तत्त्वोंका सम्पूर्ण रूपसे ज्ञान हो, वह प्रमाणात्मक अधिगम है और जिसके द्वारा इनके केवल एक देशका ज्ञान हो, वह नयात्मक अधिगम है। ये दोनों भेद सप्तभङ्गीनयमें विधि और निषेधकी प्रधानतासे होते हैं । इस लिए यह 'नयप्रमाणसप्तभङ्गी । और 'नयसप्तभङ्गी' दोनों कहलाता है। सप्तभङ्गी नयका अर्थ ऐसा नय है जिसमें सात भङ्ग (वाक्य) हों, अर्थात् “सप्तानां भङ्गानां वाक्यानां समाहारः समूहः सप्तभङ्गी"। एक वस्तुमें अनेक धर्म रहते हैं। वे एक दूसरेके विरुद्ध नहीं होते हैं। इन अविरुद्ध नाना धर्मोंका निश्चयज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522830
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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