Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 72
________________ ७० जैनहितैषी [भाग १३ "पासत्थाणं सेवी पासत्थो पंचचेलपरिहीणो। विवरीयहपवादी अवंदणिज्जो जई होई ॥ १४॥ जिनका स्वेताम्बर धर्मसे भी कोई सम्बंध नहीं पहले पद्यमें लिखा है कि 'भरतक्षेत्रका जो है । साथ ही, दूसरे खंडके दूसरे अध्यायमें कोई मुनि इस दुःषम पंचम कालमें संघके क्रम- 'दिग्वासा श्रमणोत्तमः' इस पदके द्वारा को मिलाकर दिगम्बर हुआ भ्रमण करता है- भद्रबाहु श्रुतकेवलीको उत्कृष्ट दिगम्बर साधु अर्थात् यह समझकर कि चतुर्थ कालमें पूर्वजों- बतलाया है । इस लिए कहना पड़ता है कि की ऐसी ही दैगम्बरी वृत्ति रही है तदनुसार इस यह ग्रंथ सिर्फ ऐसे महात्माओंकी करतूत है जो पंचम कालमें प्रवर्तता है-वह मूढ़ है और उसे दिगम्बर-श्वेताम्बर कुछ भी न होकर स्वार्थसंघसे बाहर तथा खारिज समझना चाहिए। साधना और ठगविद्याको ही अपना प्रधान धर्म और दूसरे पद्यमें यह बतलाया है कि वह यति समझते थे । ऐसे लोग दिगम्बर और श्वेताम्बर भी अवंदनीय है जो पंच प्रकारके वस्त्रोंसे रहित दोनों ही सम्प्रदायोंमें हुए हैं । श्वेताम्बरोंके यहाँ है । अर्थात् उस दिगम्बर मुनिको भी अपूज्य भी इस प्रकारके और बहुतसे जाली ग्रंथ पाये ठहराया है जो खाल, छाल, रेशम, ऊन और जाते हैं, जिन सबकी जाँच, परीक्षा और समाकपास, इन पाँचों प्रकारके वस्त्रोंसे रहित होता लोचना होनेकी जरूरत है। श्वेताम्बर विद्वाहै । इस तरह पर ग्रंथकाने दिगम्बर मुनियों पर नोंको इसके लिए खास परिश्रम करना चाहिए; अपना कोप प्रगट किया है। मालूम होता है कि और जैनधर्म पर चढ़े हुए शैवाल ( काई ) को ग्रंथकर्ताको आधुनिक भट्टारकों तथा दूसरे श्रमणा- दूर करके महावीर भगवानका शुद्ध और वास्तभासोंको तीर्थकरकी मूर्ति बनाकर या जिनेंद्रके विक शासन जगत्के सामने रखना चाहिए। तुल्य मनाकर ही संतोष नहीं हुआ बल्कि उसे ऐसा किये जाने पर विचार-स्वातंत्र्य फैलेगा। दिगम्बर मुनियोंका आस्तित्व भी असह्य तथा कष्ट और उससे न सिर्फ जैनियोंकी बल्कि दूसरे कर मालूम हुआ है और इस लिए उसने दिगम्बर लोगोंकी भी साम्प्रदायिक मोह-मुग्धता और अंधी मुनियोंको मूढ,अपूज्य और संघबाह्य करार देकर श्रद्धा दूर होकर उनमें सदसद्विवेकवती उनके प्रति अपनी घृणाका प्रकाश किया है। बुद्धिका निकाश होगा । ऐसे ही सदुद्देश्योंसे इतने पर भी दिगम्बर जैनियोंकी अंधश्रद्धा और प्रेरित होकर यह परीक्षा की गई है। आशा है समझकी बलिहारी है कि वे ऐसे ग्रंथका भी कि इन परीक्षा-लेखोंसे जैन-अजैन विद्वान् तथा प्रचार करनेके लिए उद्यत होगये ! सच है, साम्प्र- अन्य साधारण जन सभी लाभ उठावेंगे । दायिक मोहकी भी बड़ी ही विचित्र लीला है !! अन्तमें जैन विद्वानोंसे मेरा निवेदन है कि, यदि सत्यके अनुरोधसे इन लेखोंमें कोई कटुक । उपसंहार। शब्द लिखा गया हो अथवा अपने पूर्व संस्काग्रंथकी ऐसी हालत होते हुए, जिसमें अन्य बा. रोंके कारण उन्हें वह कटुक मालूम होता हो तो वे तोंको छोड़कर दिगम्बर मुनि भी अपूज्य और संघ- कृपया उसे 'आप्रिय पथ्य' समझ कर या बाह्य ठहराये गये, यह कहनेमें कोई संकोच नहीं 'सत्यं मनोहारि च दुर्लभं वचः । इस होता कि, यह ग्रंथ किसी दिगम्बर साधुका नीतिका अनुसरण करके क्षमा करें । इत्यलम् । कृत्य नहीं है । परन्तु श्वेताम्बर साधुओंका भी यह कृत्य मालूम नहीं होता; क्योंकि इसमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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