Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 82
________________ जैनहितैषी [भाग १३ लघुतर हमसे है दृष्टि कोई न आता, आजकलकी अपेक्षा उसका रूप कुछ और ही बढ़कर हमसे है श्वान भी मान पाता। ___ था। उस समय एक नगरके संघकी ओरसे मनुज तन हमें हा ! क्या मिला है वृथा ही ! । दूसरे परिचित नगरोंके संघोंको, धर्मात्मा श्रावगति पलट गई है कालकी सर्वथा ही ॥५॥ सकल जगत सूना-सा हमें है दिखाता, कोंकी ओरसे साधुओंको और साधुओंकी ओरसे निज प्रिय हमको है दृष्टि कोई न आता। प्रधान आचार्योंको क्षमावनीके पत्र भेजे जाते थे। न तनिक हमको है प्रेम आशा किसीसे, और वे ' विज्ञप्तिपत्र' के नामसे अभिहित ___ कल हृदय हमारा है न पाता इसीसे ॥ ६॥ होते थे। ये पत्र जन्मपत्रियों के समान बहुत रज-सम हमको जो तुच्छ ही जानते हैं, लम्बे होते थे, यहाँ तक कि कोई कोई साठ बहुविध अपनेको उच्च जो मानते हैं। साठ फुटके होते थे। आचार्य मुनिसुन्दरके तो विनय उन कुलीनोंसे यही है हमारी। अतिशय उनकी है नीति अन्यायकारी ॥ ७ ॥ है एक ऐसे विज्ञप्तिपत्रका उल्लेख मिलता है, जो अब ग्रसित दुखोंसे देश क्यों है हमारा ? १०८ हाथ लम्बा था ! ये पत्र तरह तरहके __अब न बह रही क्यों शान्ति-पीयूष-धारा ? बेलबूटों और चित्रोंसे सजाये जाते थे। संस्कृत अब निज धनकी क्यों वृद्धि होती नहीं है ? प्राकृत तथा देशभाषाके गद्य तथा पद्योंमें बड़े . असफल पतितोंकी आह होती कहीं है?॥८॥ परिश्रमसे इनकी रचना होती थी। इनमें जहाँको बस अब प्रभुसे है प्रार्थना यों हमारी, पत्र भेजा जाता था उस नगरकी शोभा, कुमति इन कुलीनोंकी हटे भ्रान्तिकारी। आचार्य-गुणोंका कीर्तन, श्रावकोंके सौभाग्यकी तज मद जिससे ये बन्धुको बन्धु माने, प्रशंसा, पर्युषणपर्वमें किये गये धर्मकृत्योंका पर-हित-रत हो ये प्रेमकी रीति जानें ॥९॥ बस सुधि अब भी जो ये हमारी न लेंगे, उल्लेख, सांवत्सरिक क्षमापन आदिका आलकर पतित जनोंके जो नहीं ये गहेंगे। ङ्कारिक भाषामें विस्तृत वर्णन रहता था। हम दुखित जनोंकी आहकी अग्नि द्वारा, श्रावकों और संघोंके पत्रों की अपेक्षा मुनियों . अहह ! जल उठेगा शीघ्र ही देश सारा॥१०॥ या साधुओंके लिखे हुए पत्र बहुत मह('सरस्वती' से उद्धृत।) त्वके होते थे। उनमेंसे किसी किसीके पत्र तो एक प्रकारके स्वतंत्र ग्रन्थोंके समान होते थे। पुस्तक-परिचय । मालूम होता है कि इस प्रकारके पत्रों के लिखनेका प्रचार प्राचीन समयमें भी था । पर अभी तक जो सबसे प्राचीन विज्ञप्तिपत्र मिला है वह विक्रम १ विज्ञप्तित्रिवेणिः । सम्पादक, मुनि जिन- की १३वीं शताब्दिके मध्यका लिखा हुआ है जिसे विजयजी । प्रकाशक, जैनआत्मानन्द सभा, चन्द्रकुलके आचार्य भानुचन्द्र के पास बड़ौदा नगभावनगर । आकार डिमाई अठपेजी । पृष्ठसंख्या रसे प्रभाचन्द्र गणिने भेजा था। उपाध्याय १५० । कपड़ेकी जिल्द । मूल्य एक रुपया। विनयविजयका 'इन्दुदूत' नामका काव्य भी एक श्वेताम्बर जैनसम्प्रदायमें पर्युषण (पजूसण) विज्ञप्तिपत्र ही है । यह उन्होंने जोधपर्वके अन्तमें क्षमावनकि पत्र लिखनेका विशेष पुरसे प्रधान आचार्य विजयप्रभके पास सूरत प्रचार है। पूर्वकालमें भी पता लगता है कि भेजा था । उन्होंने चन्द्रमाको दूत कल्पना क्षमावनीके पत्र लिखनेकी पद्धति थी; परन्तु करके अपने सन्देशको उसके द्वारा सूरत भिज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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