Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 80
________________ ७८ जैन - भारतकी गति । [ लेखक, बाबू भगवानदासजी केला |] भारतवर्ष में ईसाईयों तथा इतर अल्पसंख्यक जातियोंको छोड़ प्रधानतया दो जातियाँ निवास करती हैं-हिन्दू और मुसलमान । इनमें से मुसलमानोंकी आभ्यंतरिक स्थितिका हमें विशेष बोध नहीं; परन्तु यह निर्विवाद है कि हिन्दू जातिकी दशा बड़ी विलक्षण है । इसके जनसमुदाय में अनेक मतोंका प्रचार है और जब ये लोग भिन्न भिन्न धर्मावलम्बी होनेके कारण अपने तई पृथक् जातिका समझने लगते हैं अथवा कुछ ऐसी कार्यप्रणाली अंगीकार कर लेते हैं, जिससे दूसरे आदमी इनके भिन्न जातिके होने का अनु मान करने लगते हैं, तो हिन्दू-शरीरमें एक रोमाञ्चकारी घटना हो जाती है, हिन्दू जातिके उन्नति के पथमें एक कदम पीछे हटने की सम्भा वना होती है, और दर्शकों के लिए एक कौतुक खड़ा हो जाता है। इस लिए बड़ी आवश्यकता है कि हिन्दू जातिके अंतर्गत भिन्न भिन्न धर्माव - लम्बी समाजोंके विचार-प्रवाह और कार्य्यशैली पर अच्छी तरह ध्यान रक्खा जाय । जैनहितैषी - आज हमें जैनसमाज पर ही एक दृष्टि डालना अभीष्ट है। इसमें संदेह नहीं कि इस समाजके द्वारा भारतका बहुत उपकार हुआ है, और 1. इसकी महिमा के गीत सुदूर देशोंमें गाये गये हैं । जैन - फिलासफीने विदेशी जिज्ञासुओंका ध्यान ज्ञानवृद्ध भारतकी ओर आकर्षित किया है जैनमंदिरोंकी कला और चित्रकारीने यहाँको भवन-निर्माणावद्या के संरक्षणमें हाथ बँटाया है तथा इनके अहिंसा धर्मकी विजय घोषणा मांसा - हारी भू-खंड भी कान लगाकर सुन रहा है । । साथ ही यह भी संतोष की बात है कि जैनसमाज अपनी प्राचीन महत्ताके आधार पर ही अपना Jain Education International [ भाग १३ अस्तित्व नहीं रखता । उसने समयानुकूल सुधार और उन्नतिका यथेष्ट स्वागत करना भी स्वीकार कर लिया है तभी तो स्थान स्थान पर जैन - औषधालय, जैन- विद्यालय, जैन-छत्रालय, जैन-पुस्तकालय, अनाथालय आदि संस्थाओंके खुलने के सुसमाचार मिलते रहते हैं । यह ठीक है कि अभी बहु काम करना शेष है और उद्योगकी बहुत आव - इयकता पड़ेगी- तीर्थों के झगड़े, श्वेताम्बरी दिगम्बरियोंके वाद-विवाद, सट्टेका जोर शोर आदि अनेक अनिष्टकारी शत्रुओंसे विकट संग्राम लड़ना पड़ेगा, परन्तु जब एक बार हिम्मत करके अखाड़े में आन उतरे हैं तो धीरे धीरे सफलता अवश्य होगी और हो भी रही है । इस प्रकारके प्रगतिकालमें बहुत सावधान रहनेकी अवश्यकता है, ऐसा न हो कि उतावलेपन से चलनेमें हम कोई ऐसा मार्ग पकड़ लें कि फिर उलटे पाँवों लौटना पड़े । यह बहुत विचारणीय विषय है । अपनी अल्प योग्यतानुसार जो बात हमे खटकती है उसे बड़े विनीत भावसे निवेदन किये देते हैं । हमने बहुत कुछ सुना है और थोड़ा बहुत देखा भी है कि जैन भाइयों की दृष्टिसीमा साधारणतया संकुचित हो गई है और जैन-क्षेत्र से बाहर की दुनियाकी ओर वे बहुत कम ध्यान देते हैं । निस्संदेह ऐसा कहते समय हम उन महानुभावों की शुभ नामावली नही भूलते जिनके सार्वजनिक कार्य भारत - सन्तानों के लिए आदर्श रूप हो गये हैं । जैसे स्वर्गीय सेठ प्रेमचन्द रायचन्दकी ओरसे प्रतिवर्ष कलकत्ता यूनीवर्सिटी के किसी एक छात्रको मिलनेवाली दस हजार रुपये की वृत्ति, सर वसनजी त्रीकमजी जे. पी. का बम्बई के सायन्स इन्स्टिट्यूट को दिया हुआ तीन लाख रुप येका दान स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्द हीराचन्दजीकी ' : हीराबाग' नामकी आदर्श धर्मशाला, व्याख्यान- मन्दिर और औषधालय, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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