Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 93
________________ अङ्क २] विविध-प्रसङ्ग। यदि औरोंको जैन बनानेका ही उपाय हम ईसाइयों और आर्यसमाजियोंके लिए यह काममें लायँगे, तो हमें प्रतिवर्ष ८॥ हजार मनु- काम जितना सुकर है उतना जैनोंके लिए है ध्योंको अपने धर्ममें दीक्षित करना पड़ेगा । क्या भी नहीं । जहाँ उनके यहाँ इतनी उदारता है हमारे पण्डित महाशय और उक्त ब्रह्मचारीजी हर कि मनुष्यमात्रको वे अपने धर्ममें ग्रहण करनेमहीने सातसौ मनुष्योंको जैनी बनानेकी बातको को तैयार रहते हैं, वहाँ हमारे यहाँ इतनी अनुसंभव समझते हैं ? दारता है कि उसके कारण जो जैन हैं उनका हमारी समझमें यह सर्वथा असंभव है। आर्य- ही जैन बना रहना कठिन है। खतौलीके दस्सा समाज और सनातनधर्म ये दोनों प्रायः एक अग्रवालोंके मामलेको पाठक भूले न होंगे । उन हीसे धर्म हैं। दोनोंके वेद एक हैं, ईश्वर एक बेचारोंका उनके निजी मन्दिरमें भी जिनपूजा है, सिद्धान्त एक है जाति-पाँति एक है। करनेका अधिकार नहीं मिल रहा है । बीसे थोडीसी आचार आदिकी बातोंमें ही कुछ भेद भाई कहते हैं कि दस्से चाहे ईसाई या है । और इस पर आर्यसमाजमें उद्योगियों मुसलमान तक बन जायँ पर हम उन्हें पूजाका और स्वार्थत्यागियोंकी संख्या हमसे कई गुणी अधिकार देनेको तैयार नहीं। जहाँ पूजाके अधिहै । फिर भी हम देखते हैं कि वे हर महीने कारके सम्बन्धमें ही इतनी अनुदारता है, वहाँ सातसौ आदमियोंको अपने धर्ममें नहीं मिला मोजन-व्यवहार आदिके विषयमें तो अधिक सकते हैं। तब देशके तमाम धर्मोसे जिनके आशा ही क्या की जा सकती है। पण्डित महाशय सिद्धान्त निराले हैं, जो ईश्वरका सष्टिकर्तत्व कहा करते हैं कि किसीको जैन बनानेके बाद स्वीकार नहीं करते, वेदोंसे जिनका कोई सम्बन्ध : यह आवश्यक नहीं है कि उसे हम अपनी जाति ' में भी मिलाले या उसके साथ भोजनादि सम्बन्ध नहीं, और जिनमें काम करनेवालोंका अभाव है, भी करें। उसे जैनधर्म प्यारा हो अपने आत्माका वे लोग हमारी समझमें तो इस समय सातसो कल्याण करना हो तो जैनधर्म ग्रहण करले, तो क्या सात मनुष्योंको भी प्रतिवर्ष जैन नहीं नहीं तो उसकी इच्छा । ठीक है, आपको तो बना सकेंगे। आवश्यकता नहीं है, पर उसे तो आवश्यकता अब वह जमाना नहीं रहा, जब किसी धर्मके पड़ेगी-उसे तो अपने बाल-बच्चोंके विवाहादि करने एक पण्डितको हरा देनेसे उसके सारे अनुयायी होंगे । इधर आप तो उसे अपनेमें शामिल करेंगे दूसरा धर्म ग्रहण कर लेते थे । अथवा विद्वानोंके नहीं और उधर उसकी जातिवाले उसे जातिच्युत उपदेशसे गाँवके गाँव धर्म परिवर्तन कर डालते कर ही देंगे तब उसकी क्या गति होगी ? और थे। धर्मोंने अब समाज और जातिके रूप जब तक यह परिस्थिति है तब तक यह कैसे धारण कर लिये हैं । अब ये विचारकी चीजें आशा की जा सकती है, कि आप हर महीने नहीं रही हैं। इनका अब केवल परलोकसे ही सातसौ मनुष्योंको जैन बना सकेंगे। सम्बन्ध नहीं रहा है-जाति बिरादरी-रिश्तेदार, इस समय जितने नये ईसाई बनते हैं वे प्रायः आदि इस लोकके प्रपंच भी इनके साथ कस दिये नीच जातियोंमेंसे और गोंड भील आदि जंगली गये हैं । इस लिए इस समय धर्म परिवर्तन करना जातियोंमेंसे बनाये जाते हैं । इनका बनाना सहज उतनी सहज बात नहीं है जितनी कि पण्डित भी होता है। क्योंकि इनका पहले कोई ऐसा धर्म लोग समझ रहे हैं। नहीं रहता है जिसका इन पर अधिक प्रभाव हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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