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अङ्क २]
विविध-प्रसङ्ग।
नहीं है । वह मन्तव्य यह है-" जो बात सत्य आपसे भी अधिक गतानुगतिकताके गुलाम न जान पड़े उसे नहीं मानना, चाहे उसे सर्वज्ञ बने हुए लोग सुन लेंगे ? जैनोंकी ( कहलानेवाले ) ने ही क्यों न कहा हो। जो तमाम जातियोंमें परस्पर बेटी-व्यवहार बात सत्य मालूम हो, उसे मानना चाहे किसीकी होना चाहिए, यह बात जैनधर्मके किसी भी सिभी कही हुई हो।" जैनधर्मके आचार्योंने भी द्धान्तसे विरुद्ध नहीं है, तो भी इन्दौरके मेलेमें तो यही कहा है:
ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीसे इसका प्रतिपादन पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । .. सुननेके लिए लोग तैयार न हुए थे । उन्हें अपयुकिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिप्रहः ॥
मानित होकर बैठ जाना पड़ा था। तब यह कैसे
. मान लिया जाय कि भगवानदीनजीके जैनधर्मसे अर्थात् ' न मुझे महावीर भगवानसे राग है म
सर्वथा विरुद्ध व्याख्यानोंको लोग चुपचाप सुन और न कपिल आदि मत प्रवर्तकोंसे द्वेष है।
लेंगे ! अब रही ब्रह्मचारीजीकी यह बात कि वे मेरी समझमें तो जिसका वचन युक्तिपूर्ण हो,
१ नवयुवकोंको एकान्तमें ले जाकर उन्हें विचार-भ्रष्ट उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।' सच्चा जैनधर्म
' कर देते हैं। सो महाराज, आपके पास नवयुवकोंतो यही है।
को सन्दूकमें बन्द कर रखनेका तो कोई साधन है ___ और थोड़ी देरके लिए यदि यह भी मान ही नहीं,उनके विचार भ्रष्ट होनेकी चिन्ता कहाँ कहाँ लिया जाय कि जैनमित्रमें प्रकाशित हुए सभी कीजिएगा।वे आर्यसमाजियोंसे मिलते हैं, ईसाइयोंमन्तव्य भगवानदीनजीके हैं, तो भी क्या से मिलते हैं, स्कूलों और कालेजोंमें डारविन पढ़ते उनके साथ इस प्रकारका वाव होना चाहिए ! हैं, स्पेन्सर पढ़ते हैं, मिल और निदशेके विचार था। क्या आप लोगोंसे किसीको इससे अधिक सनते हैं तब उन्हें अकेले भगवानदीन से ही अच्छे बर्तावकी आशा ही नहीं करनी चाहिए ! बचानेसे क्या होगा? उधर तो आप जनसमाजमें स्थितिकरण अंगको भी तो आप लोग मानते हैं। कालेजकी आवश्यकता बतलाते हैं और उसके उसका मतलब क्या यही है कि जो थोड़ा भी द्वारा उक्त फिलासफरोंके विचार जाननेका मार्ग डगमगाया हो, वह धक्का देकर गिरा दिया सुगम कर देना चाहते हैं और इधर भगवानदीन' जाय ? खण्डन करना और मुँह बन्द करना, जीकी संगति ही आपको नवयुवकोंके लिए महा क्या ये ही शस्त्र स्थितिकरणके लिए उपयोगी अनिष्ट कारक प्रतीत होती है । सच तो यह है हैं ? जब तक भगवानदीनजी आश्रमका काम कि आजकल आपको और आपके ही समान करते थे, लड़कोंको शिक्षा देनेका कार्य करते अन्य कई धमात्माओंको जैनधर्मके डूब जानेका थे, तब तक तो आप लोगोंको उनसे सावधान डर लग गया है। और जहाँ तहाँ आपके सामने रहनेकी आवश्यकता न मालूम पड़ी; किन्तु ज्यों इसी डरका भूत खड़ा रहता है । किसीने एक ही वे अलग हुए, त्यों ही उनसे समाजको साव- भी स्वतंत्र शब्द अपने मुँहसे निकाला कि यह धान रखनेकी आवश्यकता आन पड़ी। क्या भूत आपके कानमें आकर कहता है कि लो आप यह समझते हैं कि मेला-प्रतिष्ठाओंमें अब जैनधर्म जाता है। पर वर्णीजी और ब्रह्मव्याख्यान देनेके लिए जाकर वे डारविनकी चारी महाराज, आप घबड़ाइए नहीं, यदि जैनथियरीका प्रतिपादन करेंगे, या कहेंगे कि स्वर्ग धर्म सत्यकी नींव पर स्थिर है, यदि वह त्रिकालानरक कुछ है ही नहीं, और उस उपदेशको बाधित सत्य है, तो उसके लिए इतनी चिन्ता
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