Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 85
________________ अङ्क २ ] संसार से चला गया । उसके चले जानेसे क्या हुआ ? हिंसक मनुष्योंके द्वारा मैं रातदिन सताई जाती हूँ, इस लिए अपने लिए कोई आश्रय चाहती हूँ | तो इस समय के सर्वश्रेष्ठ पृथिवीपति अकबरके पास जा, इससे तेरी व्याकुलता मिट जायगी । पुस्तक- परिचय | 1 काव्यदृष्टि रचना सुन्दर है, पर इतिहासकी ष्ट अतिरंजित है | सम्पादकने काव्यका हिन्दी में आशयानुवाद लिख दिया है और ऐतिहासिक बातों पर प्रकाश डालने के लिए ४२ पृष्ठकी एक भूमिका लिख दी है । इसके लिए बहुत छानबीन की गई है और यथेष्ट परिश्रम किया गया है । पुस्तकके प्रारंभ में बादशाह अकबर और हीरविजयजीकी मुलाकात के समय का एक प्राचीन चित्र दिया गया है, जो बहुत सुन्दर है । बादशाहके उन दो फरमानोंके फोटू भी दे दिये हैं जो खास खास दिनोंमें जीववध न किये जाने के लिए और हीरविजयजीको तीर्थोंके मालिक बनाने के लिए लिखे गये थे । दूसरे फरमानकी शाहीमुहरका चित्र भी एन्लार्ज करा दिया गया है । जहाँ तक हमारा खयाल है, यह दूसरा फरमान उन्हीं में से एक होगा, जिन्हें सम्मेदशिखरके इस हालके मुकद्दमे में हजारीबाग के न्यायाधीशने जाली ठहरा दिया है । हमें भी इस फरमान के सच्चे होनेमें सन्देह होता है। क्योंकि एक तो "बादशाही फरमानोंमें ऊपरके भागों पर वैसे ही चित्र चित्रित किये जाते थे जैसे कि प्रथम नम्बरके फरमानमें हैं; परन्तु इस दूसरे फरमानमें और ही प्रकार के दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं । मुख्यकर मध्यका जो चित्र है वह एक देवमंदिरके आकारकासा है । इस बात को इस पुस्तक के सम्पादकने स्वयं इन्हीं शब्दों में लिखा है। दूसरे अकबर और हीरविजयसूरिके सम्बन्धमें जो कई ऐतिहासिक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनमेंसे किसीमें भी इसका उल्लेख नहीं है । यह बहुत बड़े "" Jain Education International ८३ , महत्त्वकी बात थी - तमाम तीर्थों को श्वेताम्बर ठहरा देना और उनको उनका अधिकार दे देना, यह ऐसी बात नहीं थी कि इसका उल्लेख न किया जाता । यह सच होगा कि हीरविजयजीने यह प्रार्थना की होगी कि तीर्थों पर मुगलोंके उपद्रव बहुत होते हैं - वे हिंसादि करते हैं, इस लिए वहाँ ऐसा न होने पावे और इस उचित प्रार्थनाको बादशाहने स्वीकार भी किया होगा, जैसा कि इस कृपारसकोशके कर्ताने १२६ वें श्लोक में ' या चैत्यमुक्तिरपि दुर्दमगलेभ्यः ' वाक्यसे प्रकट किया है । परन्तु सारे जैनतीर्थ श्वेताम्बर करार दिये जायँ और हमारे अधिकारमें दे दिये जायँ, ऐसी इच्छा न तो हीरविजयजी कर सकते थे और न बादशाह उसकी पूर्ति ही कर सकता था । हीरविजयजी तीर्थों पर अधिकार जमानेवाले और अपने मक्तोंको बहका कर दूसरोंसे लड़ानेवाले साधु न थे। अकबर जिस समय उन्हें बहुत से जैनग्रन्थ भेंट करने लगा था, उस समय उन्होंने उनके लेनेसे साफ इंकार कर दिया था और कहा था कि जरूरत से ज्यादा होनेके कारण मैं इन्हें भी परिग्रह समझता हूँ। जो पुरुष जैनग्रन्थों को भी परिग्रह समझकर ग्रहण नहीं करना चाहता है, वह तीर्थोंका अधिकार ग्रहण कर लेगा, यह संभव नहीं है । कभी कोई श्वेताम्बर या दिगम्बर साधु तीर्थोंका अधिकारी रहा भी नहीं है । तीर्थोके प्रबन्ध आदिसे श्रावकों का ही सम्बन्ध रहता है । हीरविजयजीको दिगम्बरयोंके अधिकारसे इतना अधिक द्वेष भी नहीं होगा जितना कि उक्त फरमान से प्रकट होता है । इसी पुस्तकमें लिखा है कि ' उन्होंने मथुरा से लौटते हुए गोपाचल ( ग्वालियर ) की विशालकाय भव्याकृति जिनमूर्तिके जो ' बावनगजा ' के नामसे प्रसिद्ध है, दर्शन किये । ' हमारी समझमें यह विशाल मूर्ति ग्वालियर के किले की For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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