Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 74
________________ ७२ जैनहितैषी [भाग १३ “जैनसमाज न मालूम क्यों ऐसी संस्था- घटती जा रही है। १४ लाखसे १२ लाख ओंको उपेक्षाकी दृष्टि से देखता है। जब तक इस केवल दस वर्षमें होगई है ! यदि ऐसी ही दशा दृष्टिमें परिवर्तन न होगा तब तक सम्भव नहीं कि रही तो शायद ५०-६० वर्षमें ही यह जाति इन संस्थाओंमें अलीगढ़के मोहमडन कालिज सदाके लिए लुप्त हो जाय । प्रश्न यह है कि तब और लाहौरके वैदिक कालिजकी भाँति बल इन बड़े बड़े विशाल मंदिरोंमें पूजा करनेवाला आसके। कतिपय जैन और अजैन महाशय कौन बच रहेगा ? श्रीजिनभगवानके बिम्बका स्वार्थ त्यागकर, अनेक विघ्न-बाधाओंको सहकर प्रक्षालन कौन करेगा ? कहते दुःख होता है कि चाहे इनका जीवन अटकाये रहें, किन्तु ये सर्वांग- इन प्रतिमाओं परसे गर्दा भी कौन झाड़ेगा ? सुन्दर हृष्ट-पुष्ट कदापि नहीं बन सकतीं। हमारा साहित्य बहुत बड़ा है; किन्तु पढ़नेवाला " यद्यपि समय अब ऐसा नहीं है कि कोई जैनी कौन बचेगा ? यह केवल विचार ही भी मनुष्य चारों ओरकी जागति और हल- नहीं हैं। प्रत्यक्ष इस समय भी हम देख सकते हैं चलको देखकर भी ऐसा कह सके कि इन संस्था- कि सैकड़ों मंदिर ऐसे हैं जहाँ पर धनाढ्योंकी ऑसे लाभ ही क्या है; किन्तु सषप्त जैनसमाज कृपासे नौकर लोग प्रक्षालन किया करते हैं; यदि ऐसा कहे तो कोई आश्चर्य नहीं कि इस भक्तिसे पूजन करनेवाला कोई नहीं । ऐसे मन्दिउपेक्षाकी दृष्टिसे हमारी कोई हानि नहीं, यदि रोंकी संख्या भी कम नहीं है कि जहाँ मनुष्य हम लोग अलीगढ़ और लाहौरके कालिजोंकीसी कदाचित् वर्षमें एक-दो बार ही जाते हों। जिन संस्थायें स्थापित न कर सके तो क्या ? हमारा नगरोंमें सहस्रों जैन निवास करते थे, वहाँ अब वाणिज्य-व्यवसाय इन संस्थाओंके बिना भी इने गिने मनुष्य रहते हैं । क्या कोई कह सकता चल सकता है, हमारा धर्म ऐसा है कि बिना है कि ऐसी ही दशा भारतवर्षके किसी अन्य इन बातोंके भी हमारी मुक्ति अवश्य हो जायगी, 1 MC समाजकी भी है ? क्या इतने पर भी अपने धर्मके इत्यादि इत्यादि। प्रेमी सज्जनोंकी आँखें नहीं खुलेंगी ? - “अतः इस प्रश्न पर विचार करना आव- “जैनसमाज कोई भूखा समाज नहीं है । श्यक है। क्या अलीगढ़ और लाहौरसे मसलमानों बड़े बड़े धनाढ्य इसमें विद्यमान हैं। वाणिज्यऔर आर्यसमाजियोंको कुछ लाभ नहीं पहँचा? व्यवसाय करनेवाले भी बहुत हैं । फिर क्या कौन नहीं जानता कि इन समाजोंका बल दिन- कारण है कि वह मृत्युके अधिक अधिक निकट प्रतिदिन बढ़ता जाता है ? क्या अलीगढ कालि- आता जाता है ? यदि विचारपूर्वक देखा जाय जके स्थापित होनेके पहले मसलमानों में जाती- तो इसका एक मात्र कारण यही ज्ञात होगा यताके ऐसे ही चिह्न विद्यमान थे जैसे कि अब कि इस समाजने अपने यथार्थ धर्मको हैं ? क्या उस समयमें और इस समयमें कोई छोड़ दिया है । यह बात सुनकर बहुअन्तर नहीं है ? क्या आर्यसमाजने अपने विद्या " तोंको आश्चर्य होगा; किन्तु वास्तवमें बात लयोंहीके बलसे सहस्रों नवयुवकों और उत्साही "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।" यह यही है । जैनधर्मका मूल सिद्धान्त यही है कि वृद्धोंको अपने में नहीं मिला लिया है ! वाक्य जैनी प्रायः प्रतिदिन ही सुना करते हैं; " इसके विपरीत जैनसमाजकी इस उपे. किन्तु उनके आचरणसे ऐसा जान पड़ता है कि क्षाका क्या फल हुआ है ? जनसंख्या बराबर वे इस महामंत्रका अर्थ समझते ही नहीं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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