Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 75
________________ अङ्क २] मेरठकी जैनपाठशाला। 'कल्याणका मार्ग वास्तविक ज्ञान, आत्माकी दूसरे यह कि इन संस्थाओंको जैनधर्म और जैनशक्तियोंमें विश्वास और इस ज्ञानके अनुसार समाजकी उन्नतिसे क्या प्रयोजन ! इनमें पढ़कर आचरण करना है।' यह इसका शब्दार्थ हुआ। मनुष्य और सब बातें तो जान लेगा, किन्तु जैन-. किन्तु इसमें जो यह भाव है कि इन तीन बातों- धर्मसे तो वह अनभिज्ञ ही रहेगा । जैनसमाजकी के बिना कल्याण हो ही नहीं सकता, यह कदा- क्या आवश्यकतायें हैं, इसका ज्ञान तो उसे न चित् लोग जानते ही नहीं । और शायद उन्हें होगा । इसके बिना वह जैनसमाजकी क्या यह भी नहीं मालूम है कि इस कल्याणका अर्थ उन्नति करेगा? यदि मान भी लिया जाय कि केवल कर्म-बंधनसे मुक्ति ही नहीं है; किन्तु इसमें सब कार्य हो सकता है, तब भी क्या जैनसमाजऐहिक और पारलौकिक सभी सुख गर्भित है । का कोई कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता। मान कोई भी अच्छी बात इन तीनोंके बिना नहीं हो लीजिए कि एक मनुष्यको कोई भला आदमी सकती । यदि यह समझ लिया जाता तो मालूम रोज खानेको दे देता है। तब क्या उसका कर्तव्य होता कि ज्ञानका कितना माहात्म्य जैनधर्ममें नहीं है कि वह स्वयं अपने लिए कमानेका है । ज्ञानके बिना अन्य दो बातें भी नहीं हो प्रयत्न करे ? तब भी मानते कि जैनी इन सार्वसकतीं। और यह कहनेमें शास्त्रक मतानुसार बि- जनिक संस्थाओंमें ही जी खोल कर सहायता ल्कुल अत्युक्ति नहीं है कि अपने जन्म-जन्मान्तर करते होते, पर सो भी नहीं। तप और ध्यान करके बिता दीजिए, मंदिर बनवाने और पूजा आदि करनेमें लगे रहिए; किन्तु . “यह सब लिखनेका साहस इस लिए किया जब तक ज्ञान नहीं है वह सब तप कुतप, वह है कि लेखकको जैनियोंकी वर्तमान दशा देख ध्यान गर्हित, और वह पूजा केवल ढकोसले- कर बहुत दुःख होता है । यदि आपको दुःख न बाजी है । यदि किसी अध्यात्मके ग्रन्थको होता हो, तो इन सब बातोंके पढ़ने में जो कष्ट पढ़िए तो ज्ञात होगा कि ज्ञान ही आत्मा है। हुआ है, उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए । यदि ज्ञानका प्राप्त करलेना ही मुक्ति है। जैनसमाज आप यही चाहते हों कि जैनियोंका वर्तमान उस ही ज्ञानकी उपेक्षा करता है । फिर दशामें ही रहना उचित है और ज्ञानकी वृद्धि कहिए धर्म पालन कहाँ रहा ? जिस धर्ममें उनके लिए हानिकारक है, तो डर है कि मेरी विद्यादान सर्वश्रेष्ठ बतलाया गया, उसके ही धृष्टताके लिए आप क्षमा भी प्रदान न करेंगे । अनुयायी होकर विद्यालयोंके प्रति उपेक्षादृष्टि ! किन्तु उस दशामें मुझे यह भी मानना पड़ेगा कि “ यदि इस ज्ञानका प्रसार रहता तो सैकड़ों आपकी आंतरिक इच्छा यही है कि जनसमाजमें सहस्रों नवयुवक इस धर्मसे विमुख होकर अन्य- एक भी मनुष्य जीवित न रहे और महावीर धर्मावलंबी न बन जाते और यह ज्ञात रहे कि स्वामीके पवित्र नामको पूज्य दृष्टि से देखनेवाला यह भी संख्याके ह्रासका एक बहुत बड़ा कारण एक भी न बच रहे । किन्तु मुझे आशा है कि है । यह कहनेसे काम न चलेगा कि इतने स्कूल मेरा डर वृथा ही होगा। उन्नतिके आप चाहे और कालिज तो हैं। उनमें भी तो जैनबालक कितने ही विरोधी हों, पर यह कभी नहीं पढ़ते ही हैं। प्रथम तो इन स्कूलों और कालि- चाह सकते । परन्तु उन्नतिके विरोधी भी आप जोंकी संख्या बहुत न्यून है, यहाँ तक कि बहुत- क्यों होंगे ? यदि जरा भी आप विचार करेंगे से विद्यार्थियोंको इनमें स्थान ही नहीं मिल सकता। तो मेरी बातोंकी सत्यता प्रगट हो जायगी और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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