Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 16
________________ जैनहितैषी [भाग १३ था । इनका जन्म संवत् १७३३ में हुआ था । ग्रन्थमें कविने एक विस्तृत प्रशस्ति दी है उस समय आगरेमें मानसिंह जौहरीकी 'सैली' जिसमें उस समयकी अनेक जानने योग्य थी । उसके उद्योगसे वहाँ जैनधर्मकी अच्छी बातोंका उल्लेख किया है। आगरेका वर्णन कवि चर्चा रहती थी । मानसिंह, और विहारीदासको इस भाँति करता है:द्यानतरायने अपना गुरु माना है । क्योंकि इधैं कोट उधैं बाग जमना बहै है बीच, इन्हींके सहवाससे और उपदेशसे इन्हें संवत् पच्छिमसौं पूरव लौं असीम प्रबाहौं। १७४६ में जैनधर्मपर विश्वास हुआ था। पीछे अरमनी कसमीरी गुजराती मारबारी ये दिल्लीमें जाकर रहने लगे थे। दिल्लीमें जब ये न सेती जामैं बहु देस बसैं चाहसौं॥ पहुँचे तब वहाँ सुखानन्दजीकी सैली थी । रूपचंद बानारसी चंदजी भगौतीदास, इनका बनाया हुआ एक धर्मविलास नामका जहाँ भले भले कवि धानत उछाहसौं। ग्रन्थ है, जो कुछ आगरेमें और कुछ दिल्टीमें . ऐसे आगरेकी हम कौन भाँति सोभा कहूँ, रहकर बनाया गया है । १७८० में इसकी बड़ी धर्मथानक है देखिए निगाहसौं ॥३०॥ समाप्ति हुई है। इसे द्यानतविलास भी कहते हैं। संसारके दुःखोंको देखकर कविके हृदयमें कुछ अंशको छोड़कर यह छप चुका है। इसमें यह भावना उठती है-- यानतरायजीकी तमाम रचनाओंका संग्रह है। सरसों समान सुख नहीं कहूं गृह माहिं, संग्रह बहुत बड़ा है। अकेले पदोंकी संख्या ही दुःख तो अपार मन कहाँ लो बताइए । ३३३ है। इन पदोंके सिवाय और पूजाओंके तात मात सुत नारि स्वारथके सगे भ्रात, सिवाय ४५ विषय और हैं जो धर्मविलासके देह तो चलै न साथ और कौन गाइए। नामसे छपे हैं । इसके देखनेसे मालम होता है नर भी सफल कीजै और स्वादछोडिदीजै. कि धानतरायजी अच्छे कवि थे। कठिन विष- क्रोध मान माया लोभ चित्तमैं न लाइए । योंको सरलतासे समझाना इन्हें खूब आता था। ज्ञानके प्रकासनकौं सिद्धथानवासनकौं, जीमैं ऐसीआवै है कि जोगी होइ जाइए॥७८॥ ग्रन्थके अन्तमें आपने कितने अच्छे ढंगसे कहा है कि इस ग्रन्थमें हमारा कर्तृत्व कुछ नहीं है: ४ जगजीवन और.५ हीरानन्द । आग. रेमें जिस समय बादशाह जहाँगीरका राज्य अच्छरसेती तुक भई, था, संगही अभयराज अग्रवाल बड़े भारी और तुकसौं हूए छंद। छंदनिसौं आगम भयौ, सुप्रसिद्ध धनी थे । उनकी अनेक स्त्रियोंमें आगम अरथ सुछंद ॥ 'माहनदे' लक्ष्मीस्वरूपा थीं। जगजीवनका जन्म उन्हींकी कुक्षिसे हुआ था । जगजीवन भी आगम अरथ सुछंद, हौंने यह नहिं कीना । अपने पिताहीके समान प्रसिद्ध पुरुष हुए । “समै गंगाका जल लेइ, जोग पाइ जगजीवन विख्यात भयौ, ज्ञानिनकी अरचं गंगाकौं दीना॥ मण्डलीमें जिसको विकास है । " वे जाफरखाँ सबद अनादि अनंत, नामक किसी उमरावके मंत्री हो गये थे जैसा ग्यान कारन विनमच्छर। कि पंचास्तिकायमें लिखा है:मैं सब सेती भिन्न, ताको पूत भयौ जगनामी, यानमय चेतन अच्छर ॥ जगजीवन जिनमारगगामी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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