Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 68
________________ ६६ छत्र, पालकी, ध्वजा, चँवर, रकेवी, कलश, व्यंजन, रत्न और स्वर्ण तथा मोतियोंकी मालाओं आदि से भी पूजा करनेका विधान किया है । अर्थात ये चीजें भी, इस शांतिविधान में, भगवानको अर्पण करनी चाहिए, ऐसा लिखा है । यथा: जैनहितैषी - 'भंगारमुकुरच्छत्रं पालिकाध्वजचामरैः । घंटैः पंचमहाशब्दकलशव्यंजनाचलैः ॥ ५६ ॥ सद्र्धचूर्णैर्मणिभिः स्त्रर्णमौक्तिकद (मभिः । वेणुवीणादिवादित्रैः गीतैर्नृत्यैश्च मंगलैः ॥ ५७ ॥। भगवंतं समभ्यर्च्य शांतिभहारकं ततः । तत्पादाम्बुरुहोपान्ते शांतिधारां निपातयेत् ॥ ५८ ॥" " ऊपर के तीसरे पद्य में यह भी बतलाया गया है कि पूजन के बाद शांतिनाथ के चरण-कमलोंके निकट शांतिधारा छोड़नी चाहिए । यही इस प्रकरण में अभिषेकका विधान है जिसको 'महाभिषेक ' प्रगट किया है ! इस अभिषेक के बाद 'शान्त्य' को और फिर ' पुण्याहमंत्र' को, जिसे 'शांतिमंत्र भी सूचित किया है और जो केवल आशीर्वादालक गय है, पढ़नेका विज्ञान करके लिखा है कि 'गुरु प्रसन्नचित्त* होकर भगवान के स्नानका वह जल ( जिसे भगवान के शरीरने छुआ भी नहीं ! ) उस मनुष्यके ऊपर छिड़के जिसके लिए शांति-विधान किया गया है। साथ ही उस नगर तथा ग्रामके रहनेवाले दूसरे मनुष्यों, हाथी-घोड़ों, गाय-भैंसों, भेड़-बकरियों और ऊँट तथा गधों आदि अन्य प्राणियों पर भी उस जल के छिड़के जानेका विधान किया है । इसके बाद एक सुन्दर नवयुवकको सफेद * गुरुकी प्रसन्नता सम्पादन करनेके लिए इसी अध्याय में एक स्थान पर लिखा है कि जिस द्रव्यके देनेसे आचार्य प्रसन्नचित्त हो जाय वही उसको देना चाहिए। यथा [ भाग १३ वस्त्र तथा पुष्पमालादिकसे सजाकर और उसके मस्तक पर 'सर्वाल्ह' नामके किसी यक्षकी मूर्ति विराजमान करके उसे गाजेबाजे के साथ चौराहों, राजद्वारों, महाद्वारों, देवमंदिरों अनाजके ढेरों या हाथियोंके स्तंभों, स्त्रियोंके निवासस्थानों, अश्वशालाओं, तीर्थों और तालाबों पर घुमाते हुए पाँच वर्णके नैवेद्यसे गंध- पुष्प-अक्षतके साथ जलधारा पूर्वक बलि देनेका विधान किया है । और साथ ही यह भी लिखा है कि पूजन, अभिषेक और बलिदान सम्बंधी यह सब अनुटान दिनमें तीन बार करना चाहिए । इस बलिदान के पहले तीन पर्योों को छोड़कर, जो उस नवयुवककी सजावट से सम्बंध रखते हैं, शेष पय इस प्रकार हैं: Jain Education International ― ॥ "" कस्यचिच्चारुरूपस्य पुंसः सङ्गात्रधारिणः । सर्वाल्हयक्षं सोष्णीषे मूर्द्धन्यारोपयेत्ततः ॥ ६९ ॥ तत्सहायो विनिर्गच्छेदिदानाय मंत्रवित् । छत्रचामरखत्कतुशखभर्यादिसंपदा ॥ ७० चतुष्पथेषु ग्रामस्य पत्तनस्य पुरस्य च । राजद्वारे महाद्वार्षु देवतायतनेषु च ॥ ७१ ॥ स्वम्बेराणां च स्थानेषु तुरंगानां च धामसु । बहुसेव्येषु तीर्थेषु चरतां सरसामपि ॥ ७२ ॥ चरुणा पंचवर्णेन गंधपुष्पाक्षतैरपि । यथाविधिवलिं दद्याज्जलधारापुरःसरं ॥ ७३ ॥ अनुष्ठितो विधिर्योयं पूर्वाह्णेऽभित्रवादिकः । मध्याह्ने च प्रदोषे च तं तथैव समाचरत् ॥ ७४ ॥ "> इसके बाद अर्धरात्रि के समय खूब रोशनी करके, सुगंधित धूप जलाकर और आह्वान पूर्वक शांतिनाथका अनेक बहुमूल्य द्रव्योंसे पूजन करके शांतिमंत्रसे होम करना, तथा वही जलधारा छोड़नेरूप अभिषेक - विधान पढ़ना और फिर विसर्जन करना बतलाया है । इसके बाद फिर ये पद्य दिये हैं: शान्त्यष्टक 'द्रव्येण येन दत्तेनाचार्यः सुप्रसन्नहृदयः स्यात् " एवं संध्यात्रये चार्धरात्रौ च दिवसस्य यः । महशान्त्यन्ते दद्यात्तत्तस्मै श्रद्धया साध्यः ॥ २१५ ॥ " जिनस्नानादिहोमान्तो विधि: सम्यमनुसृतः ॥ १०२ ॥ For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org

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