Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 66
________________ ६४ दिक तथा सर्पादिक और भी बहुतसे देवता - ओंकी पूजाका विधान किया है, उन्हें शान्तिका कर्त्ता बतलाया हैं और उनसे तरह तरहकी प्रार्थनायें की गई हैं; जिन सबका कथन यहाँ कथन विस्तार भयसे छोड़ा जाता है । सिर्फ ग्रहोंके पूजन-सम्बंध में दो श्लोक नमूने के तौर पर उद्धृत किये जाते हैं जिनमें लिखा है कि ' ग्रहोंका पूजन करनेके बाद उन्हें बलि देनेसे, जिनेंद्रका अभिषेक करनेसे और जैन महामुनियोंके संघको दान देनेसे, नवग्रह तृप्त होते हैं और तृप्त होकर उन लोगों पर अनुग्रह करते हैं जो ग्रहोंसे पीड़ित हैं। साथ ही, अपने किये हुए रोगोंको दूर कर देते हैं । यथा:" पूजान्ते बलिदानेन जिनेन्द्राभिषवेण च । महाश्रमण संघस्य दानेन विहितेन च ॥ २०९ ॥ नवग्रहास्ते तृप्यंति ग्रहातिश्चानुगृह्णते । शमयंति रोगांस्तान्स्वस्वस्थानस्वात्मनाकृतान् ॥२१०॥ जैनहितैषी - इससे यह सूचित किया गया है कि सूर्या - दिक नव देवता अपनी इच्छासे ही लोगों को कष्ट देते हैं और उनके अंगोंमें अनेक प्रकारके रोग उत्पन्न करते हैं । जब वे पूजन और बलिदाना - दिकसे संतुष्ट हो जाते हैं तब स्वयं ही अपनी मायाको समेट लेते हैं और इच्छापूर्वक लोगों पर अनुग्रह करने लगते हैं । दूसरे देवताओंके पूजन सम्बंध में भी प्रायः इसी प्रकारका भाव व्यक्त किया गया है । इससे मालूम होता है कि यह सब पूजन विधान जैनसिद्धान्तोंके विरुद्ध है, मिथ्यात्वादिकको पुष्ट करके जैनियोंको उनके आदर्शसे गिरानेवाला है और, इस लिए कदापि इसे जैनधर्मकी शिक्षा नहीं कह सकते । स्वामिकार्तिकेय लिखते हैं कि ' जो मनुष्य ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी और यक्षोंको अपने रक्षक मानता है और इस लिए पूजनादिक द्वारा उनके शरणमें प्राप्त होता Jain Education International [ भाग - १३ है, समझना चाहिए कि वह मूढ़ है और उसके तीव्र मिथ्यात्वका उदय है । यथा: " एवं पेच्छं तो बिहु गहभुयपिसायजोइणीजक्खं सरणं भण्णइ मूढो सुगाढमिच्छत्तभावादो ॥ २७ ॥ इसी प्रकारके और भी बहुत से लेखोंसे, जो दूसरे ग्रंथोंमें पाये जाते हैं, स्पष्ट है कि यह सब पूजन-विधान जैनधर्मकी शिक्षा न होकर दूसरे धर्मों से उधार लिया गया है। गुरुमंत्र या गुप्तमंत्र | (१७) उधार लेनेका एक गुरुमंत्र या गुप्तमंत्र भी इस ग्रंथके अन्तिम अध्यायमें पाया जाता है और वह इस प्रकार हैं:— " शान्तिनाथमनुस्मृत्य येने केन प्रकाशितम् । दुर्भिक्षमारीशान्त्यर्थं विदध्यात्सुविधानकम् ॥ २२५ ॥ • इसमें लिखा है कि 'दुर्भिक्ष और मरी. ( उप लक्षणसे रोग तथा अन्य उत्पातादिक ) की शांति के लिए जिस किसी भी व्यक्तिने कोई अच्छा विधान प्रकाशित किया हो वह 'शांतिनाथको स्मरण करके - अर्थात् शांतिनाथकी पूजा उसके साथ जोड़ करके - जैनियोंको भी करलेना चाहिए ।' इससे साफ तौर पर अजैन विधान को जैन बनानेकी खुली आज्ञा और विधि पाई जाती है । इसी मंत्रके आधार पर, मालूम होता है कि, ग्रंथकर्ताने यह सब पूजन - विधान दूसरे धर्मोसे उधार लेकर यहाँ रक्खा है । शायद इसी मंत्रकी शिक्षासे शिक्षित होकर ही उसने दूसरे बहुत से प्रकरणों को भी, जिनका परिचय पहले लेखोंमें दिया गया है, अजैन ग्रंथोंसे उठाकर इस संहितामें शामिल किया हो । और इस तरह पर उन्हें भद्रबाहुके वचन प्रगट करके जैनके कथन बनाया हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, यह मंत्र बहुत बड़े कामका मंत्र है | देखने में छोटा मालूम होने पर भी इसका प्रकाश दूर तक फैलता है और यह अनेक बड़े बड़े For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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