Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 65
________________ अङ्क २ ] नित्य पूजन करना भी ठहराया गया है। और उसे सुन्दर श्रेष्ठ पूजा - शोभना - पूजा- बयान किया है । आश्चर्य है कि इतने पर भी कुछ जैन विद्वान् इस ग्रंथको जैनग्रन्थ मानते हैं | जैनग्रंथ ही नहीं, बल्कि श्रुतकेवलीका वचन - स्वीकार करते हैं और जैनसमाजमें उसका प्रचार करना चाहते हैं ! अन्धी श्रद्धाकी भी हद हो गई !! यहाँ पर मुझे उस मनुष्य की अवस्था याद आती है जो अपने घरकी चिट्ठीमें किसी कौतुकी द्वारा यह लिखा हुआ देखकर, कि तुम्हारी स्त्री विधवा हो गई है फूट फूट कर रोने लगा था। और लोगों के बहुत कुछ समझाने • बुझाने पर उसने यह उत्तर दिया था कि 'यह तो मैं भी समझता हूँ कि मेरे जीवित रहते हुए मेरी स्त्री विधवा कैसे हो सकती है । परन्तु चिट्ठी में ऐसा ही लिखा है और जो नौकर उस चिट्ठीको लाया है वह बड़ा विश्वासपात्र है, इस लिए वह जरूर विधवा हो गई है, इसमें कोई संदेह नहीं; ' और यह कह कर फिर सिरमें दुह थड़ मारकर रोने लगा था । जैनियोंकी हालत भद्रबाहु -संहिता । कुछ ऐसी ही विचित्र मालूम होती है। किसी ग्रंथ में जैनसिद्धान्त, जैनधर्म और जैननीतिके प्रत्यक्ष विरुद्ध कथनोंको देखते हुए मी, 'यह ग्रंथ हमारे शास्त्र -भंडार से निकला है और एक प्राचीन जैनाचार्यका उस पर नाम . लिखा हुआ है, बस इतने परसे ही, बिना किसी जाँच और परीक्षाके, उस ग्रंथको मानने-मनाने के लिए तैयार हो जाते हैं, उसे साष्टांग प्रणाम करने लगते हैं और उस पर अमल भी शुरू कर देते हैं! यह नहीं सोचते कि जाली ग्रंथ भी हुआ करते हैं, वे शास्त्र - भंडारोंमें भी पहुँच जाया करते हैं और इस लिए हमें 'लकीरके फकीर न बनकर विवेकसे काम लेना चाहिए । पाठक सोचें, इस अंधेरका भी कहीं कुछ ठिकाना है ! क्या जैनगुरुओंकी - Jain Education International ६३ चाहे वे दिगम्बर हों या श्वेताम्बर - ऐसी आज्ञायें भी जैनियोंके लिए माने जानेके योग्य हैं ? क्या इन आज्ञाओंका पालन करने से जैनियोंको कोई दोष नहीं लगेगा ? क्या उनका श्रद्धान और आचरण बिल्कुल निर्मल ही बना रहेगा ? और क्या इनके उल्लंघन से भी उन्हें नरक जाना होगा ? सब बातें बड़ी ही चक्क - रमें डालनेवाली हैं । और इस लिए जैनियोंको बहुत सावधान होनेकी जरूरत हैं । यहाँ पाठकों पर यह भी प्रगट कर देना उचित है कि इस अध्यायके शुरू में भद्रबाहु मुनिका नामोल्लेख पूर्वक यह प्रतिज्ञावाक्य भी दिया हुआ है:अह खलु तो रिसिपुत्तियणाम णिमित्तं सूप्पाज्झयणा । पवक्खइस्सामि सयं सुभद्दबाद्दू मुणिवरोहं ॥ ३ ॥ इसमें लिखा है कि 'मैं भद्रबाहु मुनिवर निश्चयपूर्वक उत्पादाध्ययन नाम के पूर्व से स्वयं ही इस ' ऋषिपुत्रिका ' नामके निमित्ताध्यायका वर्णन करूँगा । ' इससे यह सूचित किया गया है कि यह अध्याय खास द्वादशांग वाणी से निकला हुआ है- उसके ' उत्पाद ' नामके एक पूर्वका अंग है - और उसे भद्रबाहु स्वामीने खास अपने आप ही रचा है- अपने किसी शिष्य या चेलेसे भी नहीं बनवाया और इस लिए वह बड़ी ही पूज्य दृष्टि से देखे जानेके योग्य है ! निःसन्देह ऐसे ऐसे वाक्योंने सर्व साधारणको बहुत बड़े धोखेमे डाला है । यह सब कपटी साधुओंका कृत्य है, जिन्हें कूट बोलते हुए जरा भी लज्जा नहीं आती और जो अपने स्वार्थके सामने दूसरों के हानि-लाभको कुछ नहीं समझते। ग्रहादिकदेवता | (१६) इसी प्रकार से दूसरे अध्यायोंमें और खास कर तीसरे खंडके 'शांति' नामक दसवें अध्यायमें रोग, मरी, दुर्भिक्ष और उत्पातादिककी शांतिके लिए ग्रह - भूत-पिशाच योगिनी-यक्षा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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