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अङ्क २ ]
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आदि सभी कुछ होते हैं । और जिनके कृत्योंकी यह समालोचना हो रही है वे भी जैनगुरु कह लाते थे तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि जो गुरुके वचनको नहीं मानता वह अर्हन्तके वचनों को भी नहीं मानता ? और उसे जैनधर्मसे बाहर्भूत-खारिज - अजैनी समझना चाहिए ? मालूम होता है कि यह सब भोले जीवोंको ठगने के लिए कपटी साधुओंका मायाजाल है । उनके कार्यों में कोई बाधा न डाल सके उनकी काली कृतियों पर उनके अत्याचारदुराचारों पर कोई आक्षेप न कर सके और समाजमें उनकी उलटी सीधी सभी बातें प्रचलित हो जायँ, इन्हीं सब बातोंके लिए यह बँध बाँधा गया है । आगे 'साफ लिख दिया है कि ' तदाज्ञाकारको मर्त्यो न दुष्यति विधौ पुनः – गुरुकी आज्ञासे काम करनेवालेको कोई दोष नहीं लगता । कितना बड़ा आश्वासन है । ऐसे ही मिथ्या आश्वासनके जैनसमाजमें मिथ्यात्वका द्वारा हुआ है । अनेक प्रकारकी पूजायें- देवी-देवताओंकी उपासनायें जारी हुई हैं, जिनका बहुतसा कथन इस ग्रंथ में भी पाया जाता है । इसी प्रतिष्ठाध्यायमें अनेक ऐसे कृत्योंकी सूचना की गई है, जो जैनधर्मके विरुद्ध हैं- जैनसिद्धान्तसे जिनका कोई सम्बंध नहीं है और जिनका सर्व साधारण के सन्मुख स्वतंत्र विवेचन प्रगट किये जाने की जरूरत है । यहाँ इस अध्यायके सम्बंध में सिर्फ इतना और बतलाया जाता है कि, इसमें मुनिको - साधारण मुनिको नहीं बल्कि गणि और गच्छाधिपतिको — प्रतिष्ठाका 'अधिकारी बतलाया है । उसके द्वारा प्रतिष्ठित किये हुए बिम्बादिकके पूजन सेवनका उपदेश दिया है । और यहाँ तक लिख दिया है कि जो प्रतिष्ठा ऐसे महामुनि द्वारा न हुई हो उसे सम्यक तथा सातिशयवती प्रतिष्ठा ही न सम
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भद्रबाहु -संहिता ।
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झनी चाहिए। और इस लिए उक्त प्रतिष्ठामें प्रतिष्ठित हुई मूर्तियाँ अप्रतिष्ठित ही मानीजानी चाहिए। यथा: -
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सामायिकादिसंयुक्तः प्रभुः सूरिर्विचक्षणः । देशमान्यो राजमान्यः गणी गच्छाधिपो भवेत् ॥९२॥ बिम्बं प्रतिष्ठामिन्द्रत्वं तेन संस्कारितं भजेत् । नोचेत्प्रतिष्ठा न भवेत्सम्यक्सातिशयान्विता ॥ ९३ ॥
परन्तु इन्द्रनन्दि, वसुनन्दि और एकसंधि आदि विद्वानोंने, पूजासारादि ग्रंथोंमें, महाव्रती मुनिके लिए प्रतिष्ठाचार्य होने का सख्त निषेध किया है । और अणुवती के लिए चाहे वह स्वदार संतोषी हो या ब्रह्मचारी - उसका विधान किया है । ऐसी हालत में, जैनी लोग कौनसे गुरुकी बात मानें, यह बड़ी समस्या है ! जिस गुरुकी बातको वे नहीं मानेंगे उसीकी आज्ञा उल्लंघन के पाप द्वारा उन्हें नरक जाना पड़ेगा । इस लिए जैनियोंको सावधान होकर अपने बचने का कोई उपाय करना चाहिए |
अजैन देवताओंकी पूजा । (१५) भद्रबाहु संहिता के तीसरे खंड मेंऋषिपुत्रिका ' नामके चौथे अध्याय में, - देवताओं की मूर्तियोंके फूटने टूटने आदिरूप उत्पातोंके फलका वर्णन करते हुए, ' अथान्यदेव - तोत्पातमाह ' यह वाक्य देकर, लिखा है कि ' भंग होने पर - कुबेरकी प्रतिमा वैश्योंका, स्कंदकी प्रतिमा भोज्योंका, नंदिवृषभ ( नादिया बैल ) की प्रतिमा कायस्थोंका नाश करती है; इन्द्रकी प्रतिमा युद्धको उपस्थित करती है; कामदेवकी प्रतिमा भोगियोंका, कृष्णकी प्रतिमा सर्व लोकका, अर्हत-सिद्ध तथा बुद्ध देवकी प्रतिमायें साधुओंका नाश करती हैं; कात्यायनी - चंडिका - केशी - काली की मूर्तियाँ सर्व स्त्रियोंका, पार्वती दुर्गा-सरस्वती - त्रिपुरा की मूर्तियाँ बालकों का, वराहीकी मूर्ति हाथियोंका घात
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