Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 64
________________ ६२ करती है; नागिनीकी मूर्ति स्त्रियोंके गर्भोका और लक्ष्मी तथा शाकंभरी देवीकी मूर्तियाँ नगका विनाश करती हैं। इसी प्रकार यदि शिवलिंग फूट जाय तो उससे मंत्रीका भेद होता है, उसमें से अग्निज्वाला निकलने पर देशका नाश समझना चाहिए; और चर्बी, तेल तथा रुधिरकी धारायें निकलने पर वे किसी प्रधान पुरुषके रोगका कारण होती हैं । यदि इन देवताओंकी भक्ति भावपूर्वक पूजा नहीं की जाती है तो ये सभी उत्पात तीन महीने के भीतर अपना अपना रंग दिखलाते हैं अर्थात् फल देते हैं । ' इस कथन के आदि और अन्तकी दो दो गाथायें नमूने के तौर पर इस प्रकार है: जैन हितैषी , इसके आगे उत्पातोंकी शांति के लिए उक्त कुबेरादिक देवताओंके पूजनका विधान करते हुए लिखा है कि 'ऐसी उत्पातावस्थामें ये सब देव गंध, माल्य, दीप, धूप और अनेक प्रकारके बलिदानोंसे पूजा किये जाने पर संतुष्ट हो जाते हैं, शांतिको देते हैं और पुष्टिप्रदान करते हैं । साथ ही यह भी लिखा है कि, — चूँ कि अपमानित देवता मनुष्योंका नाश करते हैं और पूजित देवता उनकी सेवा करते हैं, इस लिए इन देवताओंकी नित्य ही पूजा करना श्रेष्ठ है। इस पूजाके कारण न तो देवता किसीका नाश करते हैं, न रोगोंको उत्पन्न करते हैं और न किसीको दुःख या संताप देते हैं। बल्कि अति विरुद्ध देवता भी शांत हो जाते हैं । यथा: ܕ इसके बाद कुछ दूसरे प्रकारके उत्पातोंका वर्णन देकर, सर्व प्रकार के उत्पातोंकी शांतिके लिए अर्हन्त और सिद्धकी पूजा के साथ हरिहर ब्रह्मादिक देवोंके पूजनका भी विधान किया है। साथ ही, ब्राह्मण देवताओंको दक्षिणा देने - सोना, गौ और भूमि प्रदान करने तथा संपूर्ण ब्राह्मणों और श्रेष्ठ मुनियों आदिको भोजन -*“ वणियाणं च कुबेरो खंदो भोयाण णासणं कुणदि । खिलाने का भी उपदेश दिया है। और अन्त में कायस्थाणं वसहो इंदो रणं णिवेदेदि ॥ ८२ ॥ लिखा है कि उत्पात - शांति के लिए यह विधि हमेशा करने योग्य है । यथाः 46 • भोगवदीण य कामो किण्हो पुण सव्वलोयणासयरो | अरहंत सिद्धबुद्धा जदीण णासं पकुव्वंति ॥ ८३ ॥ 'फुडिदो मंतियभेद अग्गीजालेण देसणासयरो । वसतेलरुहिरधारा कुणंति रोगं णरवरस्स ॥ ८७ ॥ मासेहिं तीयेहिं रूवं दंसंति अप्पणो सव्त्र । जदि वि कीरदि पूजा देवाणं भत्तिरायेण ॥ ८८ ॥ Jain Education International [ भाग १३ मलेहिं गंधधूवेहिं पूजिदा बलिपयार दावेहिं । तूसंति तत्थ देवा संतिं पुष्टिं णिवेदिति ॥ ८९ ॥ . अवमाणिया य णासं करंति तह पूजिदा य पूजति । देवाण णिश्च पूजा तम्हा पुण सोहणा भणिया ।। ९० । य कुव्वंति विणासं पयरोगे णेव दुक्खसंतावं । देवावि अइविरुद्धा हवंति पुण पुज्जिदा संता ॥ ९१ ॥ ८८ अरहंत सिद्धपूजा कायव्वा सुद्धभत्ताए ॥ ११० ॥ हरिहर विरंचिआईदेवाण य दहियदुद्धण्हवणंपि । पच्छावलिं च सिरिखंडेण य लेवधूपदीवआदीहिं ॥ १११ जं किंविवि उप्पादं अण्णं विग्धं च तत्थ णासेइ । दक्खिणदेज्जसुवण्णं गावी भूमीउ विप्पदेवाणं ॥११२॥ जवस बह्मे तवसीलसव्वलोयस्स । णिसाव्त्रय यइ सारय एस विही सव्वकालस्स ॥११३॥ ८.८ 1 इस तरह पर, बहुत स्पष्ट शब्दों में, अजैन देवताओंके पूजनका यह विधान इस ग्रन्थमें पाया जाता है । और वह भी प्राकृत भाषामें, जिस भाषा में बने हुए ग्रंथको आजकलकी साधारण जैन - जनता कुछ प्राचीन और अधिक महत्वका समझा करती है। इस विधानमें सिर्फ उत्पा तोंकी शांति के लिए ही हरि-हर-ब्रह्मादिक देवताओंका पूजन करना नहीं बतलाया, बल्कि नित्य पूजन न किये जाने पर कहीं वे देवता अपने को अपमानित न समझ बैठें और इस लिए कुपित होकर जैनियों में अनेक प्रकार के रोग, मरी तथा अन्य उपद्रव खड़े न करदें, इस भयसे उनका For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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