Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 53
________________ अङ्क २ ] भद्रबाहु -संहिता : दूषित --- ८८ दंड - विषयक कथन पूर्वापर - विरोध - दोषसे है। साथ ही, श्रुतकेवली जैसे विद्वानों की कीर्तिको कलंकित करनेवाला है । उदाहरण के तौर पर यहाँ उसके कुछ नमूने दिखलाये जाते हैं:कूपाद्रज्जुं घटं वस्त्रं यो हरेत्स्तन्यकर्मणा । कशाविंशतिभिस्ताड्यः पुनर्ग्रामाद्विवासयेत् । ७-१२॥ इस पद्यमें कुएँ परसे रस्सी, घड़ा तथा वस्त्र चुरानेवालेके लिए २० चाबुक से ताड़ित करने और फिर ग्रामसे निकाल देनेकी सजा तजवीज की गई है । पाठक सोचें, यह सजा पहले नियमके कितनी विरुद्ध है और साथ ही कितनी अधिक सख्त है ! उक्त नियमानुसार चोरी के इस अपराधमें धनदंड ( जुर्माना ) का विधान होना चाहिए था, देहदंड या निर्वासनका नहीं । कुलीनानां नराणां च हरणे बालकन्ययोः । तथानुपमरत्नानां चौरो बंदिग्रहं विशेत् ॥ ७-१६॥ येन यज्ञोपवीतादिकृते सूत्राणि यो हरेत् । • संस्कृतानि नृपस्तस्य मासकं बंधके न्यसेत् ॥ २४ ॥ इन दोनों पयोंमें चोर के लिए बंदिग्रह ( जेलखाना ) की सजा बतलाई गई है। पहले पद्यमें यह सजा कुलीन मनुष्यों, बालक-बालिकाओं • और उत्तम रत्नोंको चुराने के अपराधमें तजवीज की गई है। दूसरे पद्यमें लिखा है कि जो यज्ञोपवीत (जनेऊ) आदि के लिए संस्कृत किये हुए सूतके डोरोको चुराता है, राजाको चाहिए कि उसे एक महीने तक कैदमें रक्खे। चोरीके काममें धनदंडका विधान न करके यह दंड तजवीज करना भी उपयुक्त नियमके विरुद्ध है । "" केशान् ग्रीवां च वृषणं क्रोधाद्गृह्णाति यः शठः । दंष्यते स्वर्णनिष्केण प्राणिघाताभिलोलुपः । ६- २०। त्वग्भेत्ता तु शतैर्दंड्यः ब्राह्मणोऽसृक्प्रच्यावने । - शतद्वयेन दंड्यः स्यातुर्यैम सापकर्षकः ॥ २१ ॥ इन दोनों पद्योंमें प्राणिघातकी इच्छा से क्रो- धमें आकर दूसरेके केरा, गर्दन और अंडकोश पकड़नेवाले व्यक्तिको, तथा त्वचाका भेद करने Jain Education International ५१ वाले, रक्तपात करनेवाले और मांस उखाड़नेवाले ब्राह्मणको शारीरिक दंडका विधान न करके धन दंडका विधान किया गया है। यह भी उपर्युक्त नियमके बिरुद्ध है । इसके आगे तीन पयोंमें, उद्यानको जाते हुए किसी वृक्षकी छाल, दंड, पत्र या पुष्पादिकको तोडू डालने अथवा नष्ट कर डालनेके अपराधमें धनदंडका विधान न करके 'प्रवास्यो वृक्षभेदक:' इस पदके द्वारा वृक्ष तोड़ डालनेवालेके लिए देशसे निकाल देनेकी सजा तजवीज की है । यह सजा उपर्युक्त नियमसे कहाँ तक सम्बंध रखती है, इसे पाठक स्वयं विचार सकते हैं । " वैश्यः शूद्रोऽथवा काष्टधातुनिर्मित, आसने । क्षत्रियद्विजयोर्मोहाद्दर्पाश्चोपविशेत्तदा ॥ ६-१७ ॥ कशाविंशतिभिर्वैश्यः पंचाशद्भिश्च ताड्यते । शूद्रः पुनस्तु सता- (?) मासनं कोऽपि न श्रयेत्॥ - १८॥ महान्तं यो दर्पान्निष्ठीवति हसेच्च वा । चतुर्वर्णेषु यः कश्चिद्दंड्यते दश राजतैः ॥ १९ ॥ ” ( इन पयोंमें से पहले दो पद्योंमें लिखा है कि यदि क्षत्रिय तथा ब्राह्मणके आसन पर कोई वैश्य अथवा शूद्र बैठ जाय तो वैश्यको २० और शूद्रको ५० चाबुककी सजा देनी चाहिए ! तीसरे पयमें किसी भी वर्णके उस व्यक्तिके लिए धनदंडका विधान किया गया है जो किसी महान् पुरुषको देखकर हँसता है अथवा घृणाप्रकाश करने रूप थूकता है । उपर्युक्त नियमानुसार इन दोनों प्रकारके कृत्योंके लिए यदि कोई दंडविधान हो सकता था तो वह सिर्फ वाग्दंड था । क्योंकि आसन पर बैठने और हँसने आदि कृत्योंका चोरी आदि अपराधोंमें समावेश नहीं हो सकता । परन्तु यहाँ पर ऐसा विधान नहीं किया गया; इस लिए यह कथन भी पूर्व पर विरोध - दोष से दूषित है ।' cc मूर्खः सारथिरेव स्याद्युग्यस्था दंडभागिनः । भूपः पणशतं लाखा हानिनीशं च दापयेत् ॥ ६-३५॥६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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