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अङ्क २]
भद्रबाहु-संहिता। 'पुंसवन' और 'सीमन्त । नामकी दूसरी है। पुंसवन सम्बंधी क्रियाका अभिप्राय उनके दो क्रियाओंके करनेका भी विधान किया है। यहाँ यह माना जाता है कि इसके कारण गर्भिणीयथाः
__ के गर्भसे लड़का पैदा होता है । परन्तु जैन "गर्भस्य त्रितये मासे व्यक्ते पुंसवनं भवेत् । सिद्धान्तके अनुसार, इस प्रकारके संस्कारसे, गर्भे व्यक्ते तृतीये चेच्चतुर्थे मासि कारयेत् ॥१३९॥ गर्भ में आई हुई लड़कीका लड़का नहीं बन सकता। अथ षष्ठाष्टम मासि सीमन्तविधिरुच्यते ।
इस लिए जैनधर्मसे इस संस्कारका कुछ सम्बंध केशमध्ये तु गर्भिण्याः सीमा सीमन्तमुच्यते॥१४२॥ नहीं है। पुत्रस्य जन्मसंजाती प्रीतिसुप्रीतिके क्रिये ।
दंडमें मुनि-भोजन-विधान। प्रियोद्भवश्च सोत्साहः कर्तव्यो जातकर्मणि ॥ १४९॥
परन्तु भगवज्जिनसेनप्रणीत आदिपराणमें (५) इस संहिताके प्रथम खंडमें 'प्रायगर्भाधानसे निर्वाण पर्यंत ५३ क्रियाओंका श्चित्त' नामका एक अध्याय है, जिसके दो माग वर्णन करते हुए, जिनमें उक्त पंसवन ' और हैं-पहला पद्यभाग और दूसरा गयभाग पयभा'सीमन्त' नामकी क्रियायें नहीं हैं, लिखा है गमें, व्यभिचारका दंड-विधान करते हुए, एक कि प्रीति' क्रिया गर्भसे तीसरे महीने और स्थान पर ये चार पद्य दिये हैं:सुप्रीति क्रिया पाँचवे महीने करनी चाहिए। “माता मातानुजा ज्येष्ठा लिंगिनी भगिनी स्नुषा । साथ ही, यह भी लिखा है कि उक्त ५३ क्रिया- चाण्डाली भ्रातृपत्नी च मातुली गोत्रजाथवा ॥ २० ॥ ओंसे भिन्न जो, दूसरे लोगोंकी मानी हुई, गर्भसे .
सकृद्भान्त्याथ दर्पाद्वा सेविता दुर्जनेरिता । मरण तककी क्रियायें हैं वे सम्यक् क्रियायें
प्रायश्चित्तोपवासाः स्युत्रिंशत्तच्छीर्षमुंडनम् ॥२९॥
तीर्थयात्राश्च पंचैव महाभिषेकपूर्वकम् ॥ , नं होकर मिथ्या क्रियायें समझनी चाहिए ।
कृत्वा नित्यार्चनायाश्च क्षेत्रं घंटा वितीर्य च ॥३०॥ यथाः
भोजयेन्मुनिमुख्यानां संघ द्विशतसंमितं । .. " गर्भाधानात्परं मासे तृतीये संप्रवर्तते ।
वस्त्राभरणताम्बूलभोजनः श्रावकान् भजेत् ॥ ३१ ॥ प्रीतिर्नामि क्रिया प्रीतैर्याऽनुष्ठेया द्विजन्मभिः॥३८-७७ इन पद्यों में लिखा है कि यदि एक वार भ्रमसे आधानात्पंचमे मासि क्रिया सुप्रीतिरिष्यते ।
__अथवा जान बूझकर अपनी माता, माताकी या सुप्रीतैः प्रयोक्तव्या परमोपासकव्रतैः ॥-८० ॥
छोटी बड़ी बहिन, लिंगिनी (आर्यिकादिक), कियां गर्भादिका यास्ता निर्वाणान्ताः पुरोदिताः। आधानादिस्मशानान्ता न ताः सम्यक्रिया
बहिन, पुत्रवधू, चांडाली, भाईकी स्त्री, मामी
अथवा अपने गोत्रकी किसी दूसरी स्त्रीका सेवन __ मताः ३९-२५॥
हो जाय तो उसके प्रायश्चित्तमें तीस उपवास इससे साफ जाहिर है कि संहिताका उक्त
__ करने चाहिए, उस स्त्रीका सिर मुंडना चाहिए, कथन आदिपुराणके कथनसे विरुद्ध है। और
र महाभिषेक पूर्वक पाँच तीर्थयात्रायें करनी चाहिए, उसकी 'पुंसवन' तथा 'सीमंत' नामकी दोनों क्रियायें भगवज्जिनसेनके वचनानुसार मिथ्या
नित्यपूजनके लिए भूमि तथा घंटा वितरण क्रियायें हैं। वास्तवमें ये दोनों क्रियायें हिन्दू
करना चाहिए। और यह सब कर चुकनेके बाद,
प्रधान मुनियोंके दोसे संख्या प्रमाण धर्मकी क्रियायें ( संस्कार ) हैं । हिन्दुओंके धर्मग्रंथों में इनका विस्तारके साथ वर्णन पाया जाता श्रावकोंको वस्त्राभूषण, ताम्बूल और भोजनसे
संघको भोजन खिलाना चाहिए। साथ ही, .१ गर्भवतीके केशोंकी रचना-विशेष माँग उपाड़ना - संतुष्ट करना चाहिए । इस दंडविधानमें, अन्य
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