Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 59
________________ अङ्क २] · भद्रबाहु-संहिता। . वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए !! और पाँचवें व्यक्तिका हृदयोद्गार है जिसने शुद्धि और पद्यमें इससे भी बढ़कर यह आदेश है कि यदि अशुद्धिके तत्त्वको ही नहीं समझा * । निःसन्देह मिथ्यादृष्टियों अर्थात् अजैनोंके घर पर अपने पा- जबसे, कुछ महात्माओंकी कृपासे, जैनधर्मके त्रोंमें तथा अपने ही घर पर उनके पात्रोंमें भोजन साहित्यमें इस प्रकारके अनुदार विचारोंका प्रवेश हो जाय अथवा शूद्रके घर पर बैठकर-चाहे वह हुआ है तबसे जैनधर्मको बहुत बड़ा धक्का पहुँचा सम्यग्दृष्टि और व्रतिक जैनी ही क्यों न हो-कुछ है और उसकी सारी प्रगति रुक गई। वास्तव में खालिया जाय तो इस पापकी शांतिके लिए ऐसे अनुदार विचारोंके अनुकूल चलनेवाले संसारतुरन्त दो हजार संख्या प्रमाण जाप्यके साथ में कभी कोई उन्नति नहीं कर सकते और न पाँच उपवास करने चाहिए!!! पाठको, देखा, उच्च तथा महान् बन सकते हैं। कैसा धार्मिक उपदेश है ! घृणा और देषके पिण्डदान और तर्पण । भावोंसे कितना अलग है! परोपकारमय जीवन (१०) पहले खंडके 'दायभाग ' नामक विताने तथा जगत्का शासन, रक्षण और पालन ९वें अध्यायमें लिखा है कि 'दायग्रहण और करनेके लिए कितना अनुकूल है ! सार्वजनिक पिंडदानमें दोहिते पोतोंकी बराबर हैं' । साथ प्रेम और वात्सल्यभाव इससे कितना प्रवाहित ही, दूसरे स्थान पर पुत्रोंका विभाग करते हुए, होता है । और साथ ही, जैनधर्मके उस उदार जैनागमके अनसार छह प्रकारके पुत्रोंको दाय उद्देश्यसे इसका कितना सम्बंध है जिसका चित्र ग्रहण और पिंडदानके अधिकारी बतलाये जैनग्रंथोंमें, जैनतीर्थंकरोंकी 'समवसरण' हैं। यथाःनामकी सभाका नकशा खींचकर दिखलाया । दाये वा पिंडदाने च पौत्रैःदौहित्रकाः समाः॥२५॥ जाता है !! कहा जाता है कि जैनतीर्थकरोंकी। औरसो दत्तको मुख्यौ क्रीतसौतसहोदराः। सभामें ऊँच-नीचके भेदभावको छोड़कर, सब तथैवोपनतश्चैव इमे गौणा जिनागमे ।। मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी तक भी शामिल दायादाः पिंडदाश्चैव इतरे नाधिकारिणः ॥ ८४ ॥ होते थे। और वहाँ पहुँचते ही वे आपसमें ऐसे इस कथनसे ग्रंथकर्तीने यह सूचित किया है हिलमिल जाते थे कि अपने अपने जातिविरोध कि पितरोंके लिए पिंडदानका करना भी जैनितकको भी भुला देते थे । सर्प निर्भय होकर यों द्वारा मान्य है और यह जैनधर्मकी क्रिया नकुलके पास खेलता था और बिल्ली प्रेमसे चूहे- है। परन्तु.वस्तुतः ऐसा नहीं है। यह सब हिन्दू का आलिंगन करती थी। कितना ऊँचा आदर्श धर्मकी कल्पना है। हिन्दुओंके यहाँ इस पिंड और कितना विश्व-प्रेममय-भाव है ! कहाँ यह दानके करनेसे पितरोंकी सदति आदि अनेक फल आदर्श ? और कहाँ संहिताका उपर्युक्त विधान ! माने गये हैं और उनके लिए वे गया आदिक इससे स्पष्ट है कि संहिताका यह सब कथन जैन- तीर्थों पर भी पिंड देने जाते हैं । जिसका जैनधर्मकी शिक्षा न होकर उससे बहिर्भूत है। जैन धर्मसे कुछ सम्बंध नहीं है । जैनसिद्धान्तके अनुतीर्थकरोंका कदापि ऐसा अनुदार शासन नहीं सार न तो वह पिंड उन पितरोंको पहुँचता है हो सकता। और न जैनसिद्धान्तोंसे इसका * लेखकका विचार है कि शुद्धि-तत्त्व-मीमांसा कोई मेल है । इस लिए कहना होगा कि उपर्युक्त नामका एक विस्तृत लेख लिखा जाय और उसके प्रकारका संपूर्ण कथन दूसरे धर्मोंसे उधार लेकर द्वारा इस विषय पर प्रकाश डाला जाय । अवसर रक्खा गया है। और यह किसी ऐसे संकीर्ण हृदय मिलने पर उसके लिए प्रयत्न किया जायगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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