Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 52
________________ जैनहितैषी [भाग १३ वाग्दंड, जिसके हा, मा, और धिक्कार ऐसे शारीरिक दंडकी भी योजना की थी *। जिससे तीन भेद हैं; दूसरा धनदंड, तीसरा देहदंड पौराणिक दृष्टिकी अपेक्षा यह बात स्पष्ट हो ( वध-बन्धादिरूप) और चौथा ज्ञातिदंड जाती है कि तीसरे शारीरिक दंडका प्रणयन (जातिच्युतादिरूप ) । ये सब दंड अपराधों शान्तिनाथसे बहुत पहले प्रायः ऋषभदेवके और कृत्योंके अनुसार चारों ही वर्गों के लिए समयमें ही हो चुका था। यहाँ पाठकोंको यह प्रयुक्त किये जानेके योग्य हैं । इनमेंसे पहले जानकर आश्चर्य होगा कि आदिपुराणका यह दंडके प्रणेता भगवान् श्रीआदिनाथ ( ऋषभ- सब कथन संहिताके 'केवल काल' नामक ३४४ देव ), दूसरेके भगवान् वासुपूज्य, तीसरेके वें अध्यायमें भी पाया जाता है । परन्तु इन सब १६ वें तीर्थकर श्रीशांतिनाथ और चौथे बातोंको छोड़िए, और संहिताके इस निम्न वाक्य दंडके प्रणेता श्रीवर्धमान स्वामी हुए हैं । पर ध्यान दीजए, जिसमें उक्त कथनसे आगे आजकल पाँचवें कालमें संपूर्ण राजाओंके द्वारा ये अपराधोंके चार विभाग करके प्रत्येकके दंड सभी दंड अपराधों के अनुसार प्रयुक्त किये जाते हैं। विधानका नियम बतलाते हुए लिखा है किइस कथनसे ऐसा सूचित होता है कि, तीसरे व्यवहारमें वाग्दंड, चोरीके काममें धनदंड, बालकालके अन्तसे प्रारंभ होकर, चतुर्थ कालमें यह हत्यादिकमें देहदंड और धर्मके लोपमें ज्ञातिचार प्रकारका दंडविधान उपर्युक्त. अलग अलग दंडका प्रयोग होना चाहिए । ' यथा:तीर्थकरोंके द्वारा संसारमें प्रवर्तित हुआ है । परन्तु " व्यवहारे तु प्रथमो द्वितीयः स्तैन्यकर्मणि । वास्तवमें ऐसा हुआ या नहीं, यह अभी निर्णयाधीन तृतीयो बालहत्यादौ धर्मलोपेऽन्तिमः स्मृतः ॥२४॥ है और उस पर विचार करनेका इस समय अवसर दंडविधानका यह नियम जगत्का शासन नहीं है । यहाँ पर मैं सिर्फ इतना बतला देना करनेके लिए कहाँ तक समुचित और उपयोगी जरूरी समझता हूँ कि दंडप्रणयन-संबन्धी यह है, इस विचारको छोड़कर, जिस समय हम इस सब कथन ऐतिहासिक दृष्टिसे कुछ सत्य प्रतीत निमयको सामने रखते हुए इसी खंडके अगले दंडविधान-संबंधी अध्यायोंका पाठ करते हैं उस नहीं होता। श्रीगुणभद्राचार्यकृत महापुराण - समय मालूम होता है कि ग्रंथकर्ता महाशयने (उत्तरपुराण ) में या उससे पहलेके बने हुए हुए स्थान स्थान पर स्वयं ही इस नियमका उल्लंघन किसी माननीय प्राचीन जैनग्रंथमें भी इसका किया है। और इस लिए उनका यह संपूर्ण कोई उल्लेख नहीं है। हाँ, भगवज्जिनसेन - * यथाःप्रणीत आदिपुराणमें इतना कथन जरूर मिलता ।। लता 'हामाकारौ च दंडोऽन्यैः पंचभिः सम्प्रवर्तितः। है कि ऋषभदेवने हा-मा-धिक्कार लक्षणवाला पंचभिस्तु ततः शेषैर्हामाधिकारलक्षणः ॥ ३-२१५ ॥ वह वाचिक दंड प्रवर्तित किया था जिसको शारीरं दंडनं चैव वध-बन्धादिलक्षणम् । उनसे पहलेके कुलकर ( मनु ) जारी कर चके नृणां प्रबलदोषेण भरतेन नियोजितम् ॥-२१६ ॥ थे और इस लिए जो उनके अवतारसे पहले ही + जिसका एक पद्य इस प्रकार है:- “हामाधि ग्नीतिमार्गोक्तोऽस्य पुत्रो भरतोऽग्रजः । चक्री भूमंडल पर प्रचलित था । साथ ही, उक्त ग्रंथमें , कुलकरो जातो वध-बन्धादिदंडभृत् ॥ १२०॥" यह भी लिखा हुआ मिलता है कि ऋषभदेवके इस अध्यायकी शद्वरचनासे मालूम होता है कि पुत्र भरत चक्रवर्तीने वध-बन्धादि लक्षणवाले वह प्रायः आदिपुराणपरसे उसे देखकर बनाया गयाहै। HAHTHHTHE Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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