Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 43
________________ अङ्क ] कर रामेश्वरने सलाम किया । उस समय उसकी मानसिक पीड़ा बहुत ही अधिक हो गई थी । उसने अपने लिये इसी कारणसे हत्यारा बनाया था कि जैसे बने तैसे इस जीवनको त्याग देना ही भला है । जमादार ने इस सम्बन्धका आवश्यक प्रमाण जुटा दिया और रामेश्वर दौरा सुपुर्द कर दिया गया । वहाँ उसको जन्म भरके लिए काले पानीका दण्ड दिया गया । निजामत अदालत ने इस दंडकी आज्ञाको कम कर दिया । उन दिनों में पिनल कोड ( दंडसंग्रह ) नहीं बना था । रामेश्वर बीस वर्षको काले पानी भेज दिया गया | भाग्यचक्र । उधर पार्वती अपने पतिके शब्दको एक बार सुनने के पीछे फिर उत्तर न पाकर पगलीसी होकर उनको ढूँढने के लिए वन वन भटकती फिरने लगी । उसको उसके पति कहीं भी नहीं मिले। वह कितनी ही रोई किन्तु उसको किसीने भी नहीं चुपाया । अन्तमें पद्मानदीकी धारमें खड़ी होकर वह कुछ सोचने लगी । सोचते ही सोचते एक साथ उसको ध्यान आया कि जब पति गये थे, तब उनकी बातमें एक शब्द था - एक बहुत ही निष्ठुर और भयंकर वाक्य था । उस समय आनन्दमें पार्वतीने कुछ कान नहीं दिया था, उस समय उस बातका अर्थ वह समझ पाई थी। अब उसे उस बातका अर्थ समझमें आया- अब समझ में आया कि वे क्यों चले गये ! अब उसे सूझा कि मेरा भाग्य फूट गया- अब संसारमें पतिका साक्षात् नहीं होगा । उस समय उसको आकाश, नक्षत्र और जल सर्वत्र अँधेरा सुझने लगा । नदीके जलमें एक शब्द हुआ, जलतरंग उठी और फिर जल मिल गया, अंतमें फिर स्तब्धता होगई । पार्वती जहाँ खड़ी थी वहाँ नहीं रही; वह पानीमें डूब गई । नहीं Jain Education International ४१ तृतीय परिच्छेद । इस घोर नाद करनेवाले समुद्रकी वज्र जैसी भारी लहरोंको सुनते सुनते बीस वर्ष ! रेतेसे पूर्ण किनारे के पास के नारियल के वृक्षों की छोकरते बीस वर्ष ! इस समुद्र- प्रान्तके फेनके ऊपर के टीसी छाया में कुदाल हाथमें लिये हुए विश्राम करते धुएँमें आनन्ददुलारे के मुस्कुराते हुए मुखको खोजते हुए बीस वर्ष ! ओफ ! अपने आप कालेपानी जानेवाले रामेश्वरने सोचा था कि मैं मर जाऊँगा, किन्तु वह मर नहीं पाया उसे बीस वर्षकी यन्त्रणा भोगनेको जाना पड़ा । हम लोग मनमें विचारते हैं कि यह करेंगे और वह करेंगे; किन्तु एक और कोई है जो वैसा होने नहीं देता। हमलोगों का काम दिखाई पड़ता है और उसका काम अदृष्ट है । जिस समय विश्वासघातिनी पार्वती की बातको मनमें लाकर रामेश्वरने मरना चाहा था, उस समय उसे आनन्ददुलारेकी याद नहीं आई थी; किन्तु इस देशसे निकाले गये लोगों के रहने के स्थान में आनन्ददुलारेका स्वाभाविक और सरल मुस्कुराहटवाला चेहरा, उसकी तोतली बातें और तरह तरहके खेल दिनरात याद आने लगे । जब समुद्र धीरे धीरे शब्द करता था तब रामेश्वर सोचता था कि आनन्ददुलारे बोल रहा है। जब दूरपर अच्छी तरह न दिखाई पड़नेवाली कोई लहर उठ कर नाचती थी, तब रामेश्वर समझता था कि आनन्ददुलारे नाचता है । रामेश्वरने तो समझा था कि बीसवर्ष नहीं जीऊँगा; किन्तु हुआ यह कि वह जीता रहा और अवधि पूरी होनेपर स्वदेशको लौट आया । भातीपुर लौटने पर उसने देखा कि न वह झोपड़ी है और न उसकी स्त्री ही है । आनन्ददुलारेको भी कोई नहीं जानता- कोई भी उनका पता नहीं बतला सकता । रामेश्वर ! ऐं, रामेश्वर कौन ? रामेश्वरको कोई नहीं पहचानता । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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