Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 41
________________ अङ्क] भाग्यचक। मरना आँखों · नहीं देखा जाता है-बस यही जब दासी यह बातें करके चली गई तब अपराध है। दारोगाने कहा, "जो कुछ सुनने में आया है उससे इतनेहीमें आकाशको चीरती हुई पुष्पाच्छादित समझ पड़ता है कि आसामी भाग जानेकी ताकमें है वृक्षों, लताओं, पत्रों और बस्तीवाले स्थानोंको और यदि भाग नहीं पाया तो कमसे कम मजिकॅपाती हुई एक तीव्र, करुणाजनक, और मर्मभेदी स्ट्रेटके सामने इकरार तो नहीं करेगा।" नायरोनेकी आवाज रामेश्वरके कानोंमें आकर पड़ी। बने कहा, “ तब क्या करना चाहिए ?" दारोघूमकर देखने पर हाँफती हुई और दौड़ती आती हुई गा बोला, “यदि आसामी अपराध स्वीकार नहीं पार्वती दिखाई पड़ी। वह रोकर यह कह रही थी- करेगा तो कोई प्रमाण देना पड़ेगा। आसामीके "जरा ठहरो,तुमको देख तो लँ।” अब रामेश्वरसे घरसे चोरीका माल निकालना पड़ेगा और इस संभला नहीं गया; वह घमकर खड़ा होगया और कामको करनेके लिए माल वहाँ पहलेसे ही रख दौड़कर ब्राह्मणी के पास पहुँचनेकी चेष्टा करने आना होगा। तुम इसी समय एक लोटा लेजाकर लगा, पर सिपाहियोंने उसको जाने नहीं दिया और उसकी स्त्रीको राजी करके स्वयं रख आओ।" धक्का देकर वे उसे आगेको ले चले। इतनेहीमें नायबने कहा, “अब तो रात होगई, कल सबेरे ही देखते देखते गाँवके कछ लोगोंने आकर पार्वती- इस कार्यको कर डालूंगा।” दारोगाने कहा, को पकड़ लिया। पार्वती धूलमें गिरकर चीत्कार “ आलस्य करनेमें लाभ नहीं है । यदि सबेरे करने लगी। उसके बाल धलमें मैले होगये । अब लोग देख लेंगे तो सब चौपट होजायगा। इस रामेश्वरको आँखोंसे यह कुछ दीख नहीं पड रहा लिए देर न करो, जाओ।" नायबको हार मान था, क्योंकि वह बराबर दूर होता जा रहा था। कर जाना हा पड़ा। केवल बीच बीचमें पत्नीके रोनेकी ध्वनि कानमें रामेश्वरके भाग्यकी जंजीरने उसे सब ओरसे आपडती थी जिससे कि उसको समद्र चढता बाँध डाला था। अँधेरी रातमें रामेश्वर सिपाहियोंके हुआ और संसार रोता हुआ जान पड़ता था। हाथसे छूटकर निकल भागा। कहीं कोई पहि चान न ले, इस भयसे वह छिपकर मकानके पास. दूसरा परिच्छेद । के एक पेड़की आड़में खड़ा हो गया और चारों तालिसके सिपाहियोंके रामेश्वरकोलेजाने बाद ओर देखने लगा। इसी समय पूर्वकी ओरसे ॐदारोगा और नायब दोनों भोजन करके कोई मनुष्य आया। रामेश्वरने उसे सिरसे पैर एक जगह बैठे और बातचीत करने लगे। इतनेही- तक देखकर पहचान लिया कि यह नायब है। में एक दासीने आकर संवाद दिया कि रामेश्वर- एकबार उसके जीमें आया कि दौड़कर इसके की स्त्री कुछ कुछ शान्त हुई है और जान पड़ता पैर पकड़ लूँ और रुपये फेर ढूँ। स्त्रीको सुख देनेहै कि अब वह पतिवियोगकी यन्त्रणाको सह हीके लिए मैंने यह काम किया था और यदि लेगी। वह बालकको सुलाकर लेट रही है- उसीको कष्ट हुआ तो फिर रुपये किस कामके ! धीरे धीरे रोती भी जाती है। वह यह सोचता ही रहा कि नायब उसके मकान नायबने कहा “आज उसके पास जिस स्त्री- पर जाकर खड़ा हो गया। उस समय भी पार्वती के रखनेकी बात हुई थी वह क्या अब भी नहीं बहुत धीरे धीरे रो रही थी। उस घरमें जो पहुँची है ?" दासीने उत्तर दिया, "वह वहाँ ही स्त्रियाँ थीं, उन्होंने कहा- 'अजी ! सो जाओ, है और मैं भी वहीं थी; अभी वहींसे आई हूँ।" नहीं तो बीमार हो जाओगी ।' यह सुनकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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