Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 27
________________ हिन्दी-जैनसाहित्यका इतिहास । अमृतविजय कधि था। इन्होंने बहुतसे आध्या- डाल देते और मौज हुई तो सुंदर मकानोमें मिक और प्रार्थनात्मक पद बनाये हैं । इनकी आकर जम जाते । ये योगी अच्छे थे और अपना इन कृतियोंका एक संग्रह, जो स्वयं इन्हींके साम्प्रदायिक नाम छोड़ कर ‘चिदानन्द ' के हाथका लिखा हुआ है, श्वेताम्बर साधु प्रवर्तक अभेदमार्गीय नामसे अपना परिचय देते थे। श्रीकांतिविजयजीके शास्त्रसंग्रहमें है। इस इन्होंने बहुतसे आध्यात्मिक पद बनाये हैं। संग्रहमें कोई २०० पद इनके बनाये हुए हैं । स्वरशास्त्रके ये अच्छे ज्ञाता थे, इस लिए. 'स्वरे रचना सरल और सरस है । वैष्णव कवियोंने दय' नामका एक प्रबंध भी इन्होंने स्वरज्ञानविजैसे राधा और कृष्णको लक्ष्य कर भक्ति और षयक बनाया है । कहते हैं ये संवत् १९०५ शृंगारकी रचना की है वैसे ही इन्होंने भी तक विद्यमान थे । इनकी रचना आनंदघनके राजीमती और नेमिनाथके विषयमें बहुतसे जैसी ही अनुभवपूर्ण और मार्मिक है । एक पद शृंगारभावके पद लिखे हैं । नमूनाके लिए यह देखिए:-- एक पद देखिए; जौं लौं तत्त्व न सूझ पड़े रे। आवन देरी या होरी। तौ लौं मूढ़ भरमवश भूल्यौ,. . चंदमुखी राजुलसौं जपत, मत ममता गहि जगसौं लडै रे॥ ल्याउं मनाय पकर बरजोरी॥ . अकर रोग शुभ कंप अशुभ लख, फागुनके दिन दूर नहीं अब, भवसागर इण भांति मडै रे! कहा सोचत तू जियमैं भोरी॥ धान काज जिम मूरख खिंतहड़, बाँह पकर राहा जो कहावू, उखेर भूमिको खेत खडै रे॥ छाईं ना मुख माँ. रोरी ॥ उचित ति ओलख बिन चेतन, सज सनगार सकल जदुवनिता, निश दिन खोटो घाट थडैरे। - अबीर गुलाल लेह भर झोरी॥ मस्तक मुकुट उचित मणि अनुपम, नेमीसर संग खेलें खिलौना, पग भूषण अज्ञान जडै रे॥ 'चंग मृद्ग डफ ताल टेकोरी॥ कुमता वश मन वक्र तुरग जिम, हैं प्रभु समुदविजैके छौना, गहि विकल्प मग माहिं अडैरे। तू है उग्रसेनकी छोरी॥ 'चिदानन्द' निज रूप मगन भया, 'रंग' कहै अंमृत पद दायक, तब कुतर्क तोहि नाहिं नडै रे॥ ... चिरजीवहु या जुग जुग जोरी ॥ गुजरातमें निवास होनेके कारण इसमें कुछ संवत् १८४९ में इन्होंने एक गजल बनाई है कुछ गुजरातीकी झलक है। जिसमें ५५ पद्य है और जिसमें अहमदाबाद ११ टेकचन्द । इनके बनाये हुए ग्रन्थ-१ नगरका वर्णन है । यह खड़ी हिन्दीके ढंगकी तत्त्वार्थकी श्रुतसागरी टीकाकी वचनिका (सं० भाषा है। १८३७ ), सुदृष्टितरंगिनी वचनिका (१८३८) । १० कपूरविजय य चिदानन्दाये संवेगी षट्पाहुड़ वर्चनिका, कथाकोश छन्दोवद्ध, साधु थे, पर रहते थे सदा अपने ही मतमें मस्त । बुधप्रकाश छ०, अनेक पूजा पाठ । इनका सुदृइन्हें मतभेदका कर्कश पार्श कुछ भी नहीं कर किसान । २ ऊसर । ३ पहिचान । ४नडना सकता था । इच्छा हुई तो गुहाओंमें जा डेरा बाधा देना । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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