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जैनहितैषी
[भाग १३
उठाई तो पतिसे दृष्टि मिल गई जिससे दोनों कुछ पैसे चुराये । पिटारेमें तीन रुपये और रोपड़े । बालकने दो एक बार इनकी ओर देखा आठ आनेके पैसे पड़े थे। रामेश्वरने केवल आठ और फिर अन्तमें वह भी रोने लगा। इस प्रकार आने पैसे ही निकाले । घरवालोंमेंसे किसीको भी तोनों बड़ी देरतक रोते रहे । बालक रोते रोते चेत नहीं हुआ। सो गया।
___ चलते चलते रामेश्वरने सोचा कि पैसे तो संध्या होगई, रामेश्वर उठ खड़े हुए और मिले; किन्तु चावल और नोन कहाँ मिलेगा ? अपने जीमें दृढ प्रतिज्ञा करके चल पड़े । आखिर इस सामानकी खोजमें वे एक दूसरे एक जगह पर उन्होंने देखा कि नये निकले हुए गाँवको गये। आसपासके पाँच सात गाँवोंमेंसे केवल चन्द्रमाके उजालेमें एक बावड़ीके किनारे कई एक उसी गाँवमें एक दूकान थी । वहाँ पहुँचकर कम अवस्थावाले बाबू लोग बालकाढ़े और कोट रामेश्वरने दूकानदारको कई बार पुकारा; पर पहने हुए चाँदनीसे चमकते हुए स्वच्छ जलमें दूकानदार कहीं गया था, इसलिए कोई उत्तर पैसे फेंक फेंककर 'छन मन' खेल रहे हैं। न मिला । हारकर उन्होंने दूकानका दरवाजा उनके सामने हाथ जोड़ कर रुद्धकंठ रामेश्वरने खोला और भीतर पहुँचकर वहाँसे रातके गुजारे चार पैसेकी भिक्षा माँगी । इसपर उन्होंने कहा- भरके लिए दाल चावल और नोनको निकाला । " हम अपने पैसे तुझे क्यों दे ?" रामेश्वरने सब चीजोंको कपड़ेके छोरमें बाँधकर उचित कातर होकर कहा “ मैं पैसोंके बिना अपने कुटु- मूल्य वहाँ रख दिया और इसके बाद उन्होंने म्बके सहित भूखों मरा जाता हूँ, और आप वहाँसे प्रस्थान किया। रास्तेभर उनका जी पैसोंको जलमें फेंक रहे हैं।" बाबुओंने उत्तर डरता रहा, किन्तु कोई विपत्ति नहीं आई और दिया, “ हम अपने पैसोंको चाहे जलमें फेंकें वे सकुशल घर जा पहुंचे। पार्वर्ताने भोजन बनाया या कुछ करें, तू कौन है साले !” यह कह और रामेश्वर और लड़केने खाया। पार्वती चुकने पर एक आदमी घूसा तानकर रामेश्वरको खा लेती तो दूसरे दिनको कुछ भी नहीं बचता. मारनेको चला । तीर लगे हुए सिंहकी भाँति इससे उसने उपवास किया और अपने हिस्सेका रामेश्वर वहाँसे हट गये और कुछ दूर जाकर भोजन स्वामीसे छिपाकर एक हाँडीमें बालजीमें सोचने लगे कि मैं तो इन बन्दरोंको एक कके लिए दूसरे दिनको रख दिया । रामेश्वरको एक थप्पड़ जमा देकर इनके पैसे छीन ले सकता इसका पता नहीं लगा। था, तब मैंने छीन ही क्यों न लिये ! क्षुधाकी दूसरे दिन पार्वतीसे सलाह करके रामेश्वरने ज्वालासे उनका धर्म और अधर्मका ज्ञान लोप अपना गाँव छोड़ दिया और परिवारसहित होने लगा था। वहाँसे वे एक और गाँवमें गये वे भातीपुर गाँवको चले गये । यह गाँव उनके
और एक मकानके पास जाकर खड़े हो जन्मस्थानसे दो मंजिल दूर था । वहाँ गये । घरमें सब सोये हुए जान पड़े । पर पहिचाने जानेकी कोई संभावना नहीं थी,इतनेहीमें आनन्ददुलारेका भूखा और कातर इसलिए उन्होंने सोचा कि मैं अपनेको क्षत्रिय नन्हासा मुख स्मरण आगया और पार्वतीके बतलाकर और लोगोंकी भाँति शारीरिक परिरोनेकी याद आगई, जिसस उन्होंने विचारा कि श्रम करके घरवालोंका पेट पाल सकूँगा । पार्वती' अकेले धर्मको लेकर क्या चादूँगा ! वे उसी समय बोली कि मैं किसी भले घरानेमें दासीवृत्ति घरमें घुस गये और वहाँ एक पिटारेमेंसे उन्होंने कर लूंगी। यह सलाह ठहरा कर उन्होंने अपने
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