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बड़ी ही मर्मस्पर्शिनी है। आनन्दघनजीकी मतमतान्तरोंके प्रति समदृष्टि थी । इनकी रचना भरमें खण्डन मण्डनके भाव नहीं है। उदाहरण, -
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जग आशा जंजीरकी, गति उलटी कछु और । जकरचौ धावत जगत मैं,
रहै छुटौ इक टौर ॥ आतम अनुभव फूलकी,
कोउ नवेली रीत ।
नाक न पकरै वासना, कान है न प्रतीत ॥
जैनहितैषी -
राग सारंग ।
मेरे घट ज्ञान भान भयौ भोर ॥ टेक ॥ चेतन चकवा चेतन चकवी, भागौ विरहको सोर ॥ १ ॥ फैली चहुं दिशि चतुर भाव रुचि, मिट्यौ भरम-तम- जोर ।
आपकी चोरी आप ही जानत, और कहत न चोर ॥ २ ॥
अमल कमल विकसित भये भूतल, मंद विषय शशिकोर ।
'आनंदघन' इक वल्लभ लागत, और न लाख किरोर ॥ ३ ॥
७ यशोविजय | आप श्वेताम्बर सम्प्रदाके बहुत ही प्रसिद्ध विद्वान हुए है । इनका जन्म सं० १६८० के लगभग हुआ था और देहान्त सं० १७४५ में गुजरातके डभोई नगर में । ये नयविजयजी के शिष्य थे । संस्कृत, प्राकृत गुजराती और हिन्दी इन चारों भाषाओं के आप कवि थे । आपका एक जीवनचरित अँगरेजीमें प्रकाशित हुआ है। उससे मालूम होता है कि
संस्कृतमें आपने छोटे बड़े सब मिलाकर लगभग ५०० ग्रन्थ बनाये हैं और उनमें से अधिकांश उपलब्ध हैं । न्याय, अध्यात्म आदि अनेक विषयोंपर आपका अधिकार था । यद्यपि आप गुजराती थे, पर विद्याभ्यासके निमित्त कितने
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[ भाग १३
इस कारण हिन्दी में
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ही वर्ष काशीमें रहे थे, भी व्युत्पन्न हो गये थे 6 सज्झाय, पद अने स्तवनसंग्रह ' नामके मुद्रित संग्रह में आपके हिन्दी पदोंका संग्रह ' जसविलास' नामसे छपा है । इसमें आपके ७५ पदोंका संग्रह है । इसी संग्रह में आपके आठ पद 'आनन्दघन अष्टपदी' के नामसे जुदा छपे हैं जो आपने महात्मा आनन्दघनजीके स्तवनस्वरूप बनाये थे । इन सब पदों के देखनेसे मालूम होता है कि यशोविजयजी हिन्दीके भी अच्छे कवि थे । आपकी इस रचना में गुजरातीकी झलक बहुत ही कम - प्रायः नहीं के बराबर है । परन्तु खेदके साथ कहना पड़ता है कि उक्त संग्रह छपानेवालोंने हिन्दीकी बहुत ही दुर्दशा कर डाली है। अच्छा हो यदि कोई श्वेताम्बर सज्जन इस संग्रहको शुद्धतापूर्वक स्वतंत्ररूपसे छपा दें । आपकी हिन्दी कवितामें अध्यात्मिक भावोंकी विशेषता है । हम मगन भये प्रभु ध्यानमैं।
विसर गई दुविधा तनमनकी, अचिरा- सुत- गुनगान ॥ हम० ॥ १ ॥
हारे हर ब्रह्म पुरंदरकी रिधि, आवत नहिं कोउ मानमैं ।
चिदानंदकी मौज मची है, समतारस के पानमैं | हम० ॥ २ ॥
इतने दिन तू नाहिं पिछान्यौ, जन्म गँवाय अजानमैं ।
अब तो अधिकारी है बैठे, प्रभुगुन अखय खजानमैं ॥ ३ ॥
गई दनिता सभी हमारी, प्रभु तुझ समकित दानमेँ ।
प्रभुगुन अनुभवके रसआंगे, आवत नहिं को ध्यानमें ॥ ४ ॥
जिनही पाया तिन हि छिपाया, न कहै कोऊ कानमैं ।
ताली लगी जबहि अनुभवकी, तब जाने कोउ ज्ञानमें ॥ ५ ॥
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