Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 20
________________ जैनहितैषी [ भाग १३ दीनी विद्या जनकनैं, प्रतिभा है, पर वह मूलग्रन्थकी कैदके कारण कीनी अति व्युत्पन्न । विकसित नहीं होने पाई । मूलग्रन्थकी ही रचना पंडित जापै सीख लें, बढ़ियाँ नहीं है । यह ग्रन्थ संवत् १७५४ में । धरनीतलमैं धन्न ॥ । समाप्त हुआ है। सुगुनकी खानि कीधौं सुकृतकी वानि सुभ, कीरतिकी दानि अपकीरति-कृपानि है। १० कितनासह । य सागानरक रहनवाल स्वारथविधानि परस्वारथकी राजधानि, खण्डेलवाल थे । इनका गोत्र. पाटणी था । रमाहूकी रानि कीधौं जैनी जिनवानि है। 'संघी' पद था । कल्याणसिंगईके सुखदेव और धरमधरनि भव भरम हरनि कीधौं, आनन्दसिंह दो बेटे थे। सुखदेवके थान, मान असरन सरनि कीधौं जननि-जहानि है। और किशनसिंह ये तीन बेटे हुए । किशनसिंहहेमसौ...पन सीलसागर...भनि, जीने संवत् १७८४ में क्रियाकोश नामका दुरितदरनि सुरसरिता समानि है ॥ छन्दोवद्ध ग्रन्थ बनाया, जिसकी श्लोकसंख्या बुलाकीदासजी पीछे अपनी माताके सहित २९०० है । रचना स्वतंत्र है; पर कविताकी दिल्ली में आ रहे थे। पाण्डवपुराण या 'भारत दृष्टिसे बिल्कुल साधारण है । इस ग्रन्थका प्रचार भाषा' की रचना आपने दिल्लीमें ही रहकर की बहुत है । भद्रबाहुचरित्र ( सं०१७८५ ) और थी। इनकी माता · जैनी ' या 'जैनुलदे' ने रात्रिभोजनकथा (सं०१७७३) ये दो छन्दोबद्ध जब शुभचन्द्र भट्टारकका बनाया हुआ संस्कृत ग्रन्थ भी आपहीके बनाये हुए हैं। पाण्डवपुराण पढ़ा, तब वह उन्हें बहुत पसन्द ११ शिरोमणिदास । ये पण्डित गंगादाआया, इसलिए उन्होंने पुत्रसे कहा: सके शिष्य थे । इन्होंने भट्टारक सकलकीर्तिके ताको अर्थ विचारकै, उपदेशसे, सिहरोन नगरमें रहकर, जहाँ राजा भारत भाषा नाम । देवीसिंह राज्य करते थे, सं० १७३२ में, कथा पांडुसुत पंचकी, दोहा-चौपाईवद्ध 'धर्मसार । नामके ग्रन्थकी कीजै बहु अभिराम ॥ रचना की। इसमें ७६३ दोहा चौपाई हैं । सुगम अर्थ श्रावक सबै, भनँ भना3 जाहि। रचना स्वतंत्र है । किसी ग्रन्थका अनुवाद नहीं ऐसो रचिकै प्रथम ही, है। कविता साधारण है। मोहि सुनावी ताहि ॥ १२ रायचन्द । इनका बनाया हुआ इस आज्ञाको मस्तक पर चढ़ाकर बलाकी- 'सीताचरित ' नामका छन्दोवद्ध ग्रन्थ है दासजीने इस ग्रन्थकी रचना की है। इसी लिए जिसकी श्लोकसंख्या ३६०० है । रविषेणके इस ग्रन्थ के प्रत्येक सर्गमें ' श्रीमन्महाशीलाभरण- पद्मपुराणके आधारसे यह बनाया गया है । बनभूषितायां जैनीनामाडितायां भारतभाषायां । इस • नेका समय संवत् १७१३ है । कवितामें कवि प्रकार लिखकर उन्होंने अपनी माताकी स्मति अपना नाम 'चन्द्र ' लिखता है । कविता रक्षा की है । ग्रन्थके अन्तमें भी कविने अपनी साधारण है। माताके प्रति बहुत भक्ति प्रकट की है । ग्रन्थकी १३ मनोहरलाल । इन्होंने संवत् १७०५ लोकसंख्या ५५०० है । रचना मध्यम श्रेणीकी में धर्मपरीक्षा नामका ग्रन्थ बनाया है। यह है, पर कहीं कहीं बहुंत अच्छी है । कविमें आचार्य अमितगतिके इसी नामके सस्कृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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