Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 15
________________ मनुष्य कर्तव्य | प्रकार मनुष्यकी आत्माको पुद्गलने तीन सूक्ष्म और स्थूल शरीरोंकी शकलमें घेर रक्खा है जिसके कारण आत्माके वास्तविक गुण और स्वभाव अर्थात् अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य आदि प्रगट नहीं हो सकते। कार्माण शरीरके एक अंग नाम कर्मके कारण औदारिक शरीरके अंगोपांग आदि बनते हैं । इस तरह कार्माण शरीर, औदारिक शरीर तथा आत्माकी अन्य सांसारिक अवस्थाओंका बीजभूत है । अतएव मनुष्यका सबसे बड़ा कर्तव्य यह है कि अपनी आत्माको पुद्गलके मैलसे पवित्र करके शुद्ध आत्मा बनावे | यहाँ पर यह ख्याल न करना चाहिए कि मरनेके बाद शरीरसे आत्मा निकल जाता है और उस समय वह शुद्ध हो जाता होगा । यह भ्रम है । निःसंदेह औदारिक शरीर उस समय पृथक होजाता है, परंतु कार्माण और तैजस ये दोनों शरीर आत्माके साथ लगे रहते हैं । ये दोनों शरीर जबतक आत्माको मोक्ष न हो जाय सदा आत्माके साथ रहते हैं । 1 मनुष्य इस ही कारणंसे सब जीवोंमें श्रेष्ठ कहलाता है कि मनुष्य शरीरसे ही वह आत्मा पुगलका सम्बंध छोड़कर परम पदको प्राप्त. कर सकता है। प्रत्येक मनुष्यका यही सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है कि वह अपने मन, वचन, कायको इस तरहसे वशमें करके प्रवर्ते कि जिससे आत्मा शुद्ध होनेकी तरफ रुचि करे । हर एक मनुष्यको चाहिए कि अपने मस्तकमें ऐसे ही विचारोंको स्थान दे, ऐसे शब्द मुखसे निकाले और ऐसे ही कार्य अपने शरीर से करे कि जिनसे उसकी आत्मा पुलके असर से अधिक अधिक बाहर होती Jain Education International २०५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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