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ग्यारहवाँ (
भाग ।
ست
जैनहितैषी ।
साहित्य, इतिहास, समाज और धर्मसम्बन्धी लेखों से विभूषित मासिकपत्र |
सम्पादक और प्रकाशक - नाथूराम प्रेमी ।
माघ ।
श्रीवीर नि०संवत् २४४१
विषयसूची ।
१ शान्तिवैभव
२ तोतेपर अन्योक्ति ( कविता ) ३ मनुष्यकर्तव्य
४ बच्चों की शिक्षा...
५ उठो प्यारो, उठो प्यारो (कविता )...
६ परोपकार
७ आचारकी उन्नति
...
८ एक चिट्ठी ( हास्यकौतुक )
९ विविध प्रसंग...
of
Reg. No. B. 719.
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१० पं. अर्जुनलाल सेठी बी. ए. (जीवनचरित ) ...
११ सेठीजीके मामला
१२ सहयोगियोंको विचार १३ पुस्तक-परिचय
...
अंक ४ ।
...
of Personal & Private use only 6
पृष्ठ.
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ANANANAI
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उपहारकी सूचना। अवधि बीत चको इस लिए अब जो भाई उपहार लेना चाहेंगे। उन्हें चार आने अधिक देना होंगे। अर्थात् अब उपहारके ग्रन्थों सहित २।) दो रुपया सात आनेका वी. पी. भेजा जायगा ।। ग्राहक सालके शुरूसे ही बनाये जाते हैं। प्रकाशित हुए चारों मँगा लेना चाहिए।
उपहारके ग्रन्थ जो न मँगावेंगे उन्हें एक रुपया नौ अ वी. पी. भेज दिया जायगा । नमनेका अंक मुफ्त भेजा जाता है। टिकट भेजना चाहिए।
फीजी द्वीपमें मेरे २१ वर्ष। बिलकुल नये ढंगकी पुस्तक है। पं. तोताराम सनाढ्य नामके एक सज्जन कुली बनाकर जबर्दस्ती फिजी द्वीपमें भेज दिये गये थे । वहाँने २५ वर्ष रहे । उस समय उन्हें और दूर भारतवासियोंको जो नरकयातनायें दी गई हैं उनका इसमें बड़ा ही दुःखप्रद वर्णन है । प्रत्येक भारतवासीको इसका पाठ करके अपने भाईयोंको इस दुःखसे बचानेका यत्न करना चाहिए । फिनी द्वीपके सम्बन्धमें सैकड़ों जानने योग्य बातें भी हैं। मूल्य )
मैनेजर-जैनहितैषी, गिरगांव-बम्बई.
स्वामी रामायके सदुपदेश। पहला भाग छपकर तैयार है । पढ़ने योग्य है । मूल्य ।)
रिपोर्ट में भूल। गत अंकके साथ जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था काश रिपोर्ट बॉटी गई थी। उसमें राजवार्तिकनी पूर्ण ९) की जगह पूर्वा ६)रु. और शब्दार्णव चन्द्रिका ५) की जगह प्रथमखण्ड २) और
२६॥) की जगह १९॥) समझना । दोनों ग्रन्थों के उत्तरार्ध अभीdain edamo natalem moment I For Personal & Private use only qar a shland.org
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जैनहितैषी।
श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात्सर्वज्ञनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥
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११ वाँ भाग माघ, वीर नि० सं० २४४१।१ अंक ४
शांति-वैभव।
8 शां ति मनुप्यके जीवनमें एक अमूल्य वस्तु है ।
इस पर ऐसे महान् जीवनका आधार है कि जिसकी आंतरिक गति और उद्देश्योंमें पणेतया सहानुभूति है । शांति उस स्थान पर पाई जाती है जहाँ स्वाधीन, स्वावलम्बशील और सच्चरित्र मनुष्योंका वास होता है।
ति क्या वस्तु है ? दृढ़ प्रतिज्ञा, उद्देश्यकी स्थिरता, आत्मनिर्भरता और आत्मबलका नाम ही शांति है। __ शांतिका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य बिलकुल आलसी, निरुद्योगी और साहसहीन होकर बैठ जावे । ऐसा होना तो मौतकी निशानी है, कारण कि इसमें तमाम शक्तियाँ बेकार हो जाती हैं
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जैनहितैषी -
और जीवन बिलकुल नीरस हो जाता है। जिसको शान्ति प्राप्त है उसका जीवन तो सरस और आनन्दमय होता है ।
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जो मनुष्य केवल दैव पर भरोसा रखता है उसे कभी शांति नहीं मिल सकती । वह अपनी वर्तमान स्थितिसे तनिक भी आगे नहीं बढ़ता और भविष्य की कोई चिंता नहीं करता । वह काय और पुरुषार्थहीन होता है । उसके मुँह में यदि कोई डाल देता हैं तो खालेता है, नहीं तो योंही पड़ा रहता है । वह स्वयं कुछ नहीं करता । उसकी दशा उस बिना चप्पू (?) की नौकाके सदृश है जो यही किसी व्यवस्था के बिना समुद्र में छोड़ दी गई हो । न उसके पास कम्पास है, न समुद्रका नकशा है और न यही उसे मालूम है कि मुझे कहाँ जाना है । जिधर हवा ले जाय वह उसी तरफ बहा चला जाता है । उसका जीवन बड़ा अनियमित और बेका यदा है । न कोई उसका संकल्प होता है, न उद्देश्य होता है और न कोई कार्यप्रणाली होती है। ऐसे मनुष्यको कभी शांति नहीं मिल सकती । ऐसी गतिको हम कभी शांति नाम नहीं दे सकते ।
इसके विपरीत जिस मनुष्यको शांति होती है उसका जीवन बहुत ही नियमित और बाकायदा होता है । उसका उद्देश्य पहलेसे निर्दिष्ट रहता है और वह सदा निश्चित मार्गका अनुगामी होता है। चाहे मार्गमें कितनी ही आपत्तियाँ आवें, चाहे कितनी ही हानियाँ उठानी पड़ें, परंतु वह धीरवीर अपने उद्देश्यसे तनिक भी चल - बिचल नहीं होता और अपने मार्गसे कभी पीछे नहीं हटता; निर्भय रूपसे
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शान्ति वैभव |
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आगे बढ़ता चला जाता है । वह जानता है कि मार्गमें अनेक विघ्न आया ही करते हैं उनसे घबराना नहीं चाहिए । कठिन समय में साहस और धैर्य होना चाहिए । उसको मालूम है कि मुझे सिर्फ कुछ करना ही नहीं है किन्तु जो कुछ करना है वह यथाशक्ति अच्छा करना है । सम्भव है कि किसी कारणसे उसे अपने मार्गसे कुछ इधर उधर हटना पड़े, परंतु वह शीघ्र उसी जगह पर वापिस आजाता है। यह नहीं कि जिधर हवा ले गई उधर चले गये । कब वह अपने नियत स्थान पर पहुँचेगा, कैसे पहुँचेगा, अथवा कब उसे अपने उद्देश्य में सफलता होगी, इन बातोंकी वह परवा नहीं करता, वह अपना कार्य किये जाता है । यदि सब कुछ करने पर भी उसे सफलता नहीं होती तो वह निराश नहीं होता, अधीर नहीं होता ।
शान्त मनुष्य अपने कार्यको ऐसी धीरता से करता रहता है कि किसीको मालूम भी नहीं होता कि उसका भविष्य क्या होगा और अंतमें उसके कार्यका क्या परिणाम होगा । मनुष्यको सदा नये नये मौके और नई नई बुद्धि मिलती रहती है । मनुष्यका कर्तव्य है कि उनको यथाशक्ति अच्छे काम में लगावे ।
शान्ति मनुष्य की भीतरी गति है । उसका सम्बंध हृदयसे है; हृदयमें शांति होना चाहिए । बाहर की चुपचापको शांति नहीं कह सकते । जब भीतर शांति प्राप्त हो जाती है तब बाहर चाहे जो भी हुआ करे; बाहरकी गड़बड़से भीतरी शांति तक कुछ आँच नहीं पहुँचती । जिस तरह हवा और आँधीका असर केवल समुद्रकी सतह पर ही रहता है; अधिकसे अधिक २००, ३०० फीट
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जैनहितैषी
नीचे तक जाता है। उससे नीचे कोई असर नहीं होता । एकसी हालत रहती है । इसी तरह भीतरी शांतिकी गति है । जीवनके बड़े बड़े कार्योंके सम्पादन करनेके लिए हमको अपने नित्यके छोटे छोटे कार्योंमें बड़ा ही शांत होना चाहिए । शांति उसी मनुष्यको प्राप्त होती है जो अपने पर काबू पाजाता है, अपनेको वशमें करलेता है, अपनी इंद्रियोंको दमन कर लेता है । इंद्रियदमनका दूसरा नाम शांति है। ___ जब तुमको सांसारिक चिन्तायें सतावें और आपत्तियोंसे तुम्हारा जी घबराने लगे तब तुम्हें चाहिए कि शांतिके पवित्र मंदिरमें प्रवेश करो और थोड़ी देरके लिए सब कुछ भूलकर केवल शांति देवीकी ही आराधना करो । यदि उस समय भी सांसारिक चिंताओं और बाधाओंने तुमको दबा लिया और तुम दब गये तो याद रक्खो तुम स्वयं उनको अपनेसे सबल बनाना चाहते हो । तुम सदा उनसे दबे रहोगे और उन पर कभी विजय नहीं पासकोगे। चिंता और आपत्तिके समय शांति प्राप्त करनेकी यह विधि है कि जिन बातोंसे तुमको घबराहट होती हो उनको एक एक करके समझो और अपनी सम्पूर्ण संकल्प शक्तिको उन पर लगा दो । तुम देखोगे कि जैसे सूरजके निकलते ही तमाम अंधेरा दूर हो जाता है ऐसे ही तुम्हारी तमाम घबराहट अपने आप दूर हो जायगी । उसके बाद जो शांतिका चमत्कार तुम्हारे हृदयमंदिरमें प्रकाशित होगा और जो नवीन शक्ति तुमको मालूम होने लगेगी वहाँसे पूर्ण शांतिकी प्राप्तिका आरम्भ होगा । बस फिर तुम बड़ीसे बड़ी आप
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शान्ति-वैभव ।
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त्तियों और कठिनाइयोंका भी वीरताके साथ निर्भय होकर सामना कर सकोगे । यदि तुम्हारी सम्पूर्ण आशायें और तुम्हारे सम्पूर्ण उद्योग निष्फल भी हो जायँ तो भी तुम्हें घबराहट न होगी और तुम यही कहोगे कि कुछ परवा नहीं, हो जायगा । ___ जब तुम देखो कि दूसरे लोग ईर्ष्या या द्वेषके कारण तुम्हारी निंदा करते हैं, तुम पर दोष लगाते हैं, अथवा तुम्हें और किसी प्रकार हानि पहुँचाते हैं उस समय यदि तुम्हें क्रोध आवे और तुम्हारे मनमें बदला लेनेकी इच्छा हो तो तुमको चाहिए कि शांति. को काममें लाओ । तुमको स्मरण रहे कि जो दूसरेके लिए गढ़ा खोदता है स्वयं उसके लिए कुवाँ तैयार रहता है । दूसरोंके साथ • बिना प्रयोजन बुराई करनेवाला मनुष्य आप ही उसका बुरा फल पालेता है। फिर बदला लेनेकी क्या आवश्यकता है? दुनियामें आजतक कोई भी ऐसा नहीं हुआ जिसने दूसरोंके साथ बुराई की हो और उसको किसी न किसी तरह किसी न किसी समय उसका बुरा फल न मिला हो। __ यदि मनुष्य यह समझे कि मैंने किसीके साथ बुराई कर ली, अब मेरा क्या हो सकता है तो यह उसकी भूल है । प्रकृतिमें छोटीसी छोटी चीज़ भी बा-कायदा है । हरेक चीज़का जमा खर्च होता जाता है और अंतमें सबका हिसाब होता है । हाँ, यह अवश्य है कि प्रकृति अपने हिसाबदारोंके नाम हर महीने बकाया नहीं निकालती । जो मनुष्य शांत होता है उसको बदला लेना ऐसा नीच कर्म मालूम होता है कि वह भूलकर भी उसका नाम
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नहीं लेता । यदि कोई उसको सताता है तो भी वह शांतिके ही काममें लाता है । यह नहीं कि बुराईके बदले बुराईका विचार करे। ___ जब मनुप्य छोटी छोटी बातोंमें शांतिको काममें लाना मीग्व लेता है तब वह बडे बडे मौकों पर भी शांत रह सकता है । ऐसे आदमीका यदि कोई प्यारेमे प्यारा सम्बंधी कालका ग्राम होजावे और उसकी मृत्युसे उसका जीवन सर्वथा निष्फल दीखने लंग तो शांति ही एक ऐसी वस्तु है कि जो उसकी तसल्ली कर सके और उसको माहस और ढाढस बँधा सके । ___ स्थूल दृष्टि से देखनेसे प्रायः दुष्ट और नीच मनुष्योंकी ही इस संसारमें बढ़ती होती दीख पड़ती है। वे ही लोग फलते फूलने मालूम होते हैं जो अपराधी, मायाचारी और दगचारी हैं। यह दृश्य ही लोगोंको धोखेमें डाल देता है और मचे मार्गमे हटाकर खोटे मार्ग पर ले जाता है। परंतु शांत मनुष्यको इसमे कुछ भी बाधा नहीं पहुँचती । यद्यपि वह देखता है कि सच्चे लोग तकलीफमें हैं और झूठे आराममें हैं. बेईमान ईमानदारोंमे बह रहे हैं. झट फरेव और मायाचारसे रुपया पैदा हो रहा है: मूर्व विद्वानोंमे अधिक लाभमें हैं तथापि वह अपने पथमे च्युत नहीं होता; इस प्रकार की बातें उसे तनिक भी नहीं सताती । वह अपना काम उत्तम रीतिसे किये जाता है और इस बातकी कोई परवा नहीं करना कि दूसरे लोग क्या कह रहे हैं और उनको इसका क्या फल मिल रहा है । इन बातोंको वह देवाधीन छोड़ देता है !
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शान्ति-वैभव ।
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जब मनुष्यको इतनी शांति प्राप्त हो जाती है कि शांति उसका एक अंग बन जाती है, वह शांतिमय हो जाता है अर्थात् जहाँ जाता है वहाँ शांतिका ही उसमें प्रकाश होता रहता है तो उस समय कहना चाहिए कि उस मनुष्यने अपने जीवनमें सफलता प्राप्त करली । शांति ऐसी वस्तु नहीं है जो अपने आप मिलजाय अथवा एकदम मिलजाय । इसके प्राप्त करनेके लिए और बहुतसे गुणोंकी अवश्यकता है। पहले उनको सीखना चाहिए। __जीवनका तात्पर्य केवल यही नहीं है कि जिस तरह हो सके जीवन बिता दे । वास्तवमें जीवन एक बड़े महत्त्वकी चीज़ है। उसका आदर करना जीवनका मुख्य कर्तव्य है । किस तरह जीवन अपने तथा दूसरोंके लिए उपयोगी बनसकता है, इसके जानने और सीखनेकी बड़ी भारी ज़रूरत है । जब मनुप्यमें शांतिका प्रवेश होजाता है तब वह दुनियाके झगड़ोंसे हटकर अपने आपमें मग्न हो जाता है । दुनियामें कितना ही शोरोगुल हुआ करे, उसे कुछ हानि नहीं पहुँचती । इससे यह न समझना चाहिए कि वह अपने स्वार्थके कारण दुनियासे अलग होता है; नहीं नहीं ऐसा मनुष्य विश्वभरके प्राणियोंके आनंदमें अपना आनंद मानता है। उसकी शांति परम पवित्र शांति है। वह संसारमें रहनेकी शक्तिको प्राप्त करनेके लिए संसारसे अलग होता है। ( अपूर्ण)
दयाचन्द्र जैन. बी. ए.। चिरंजीलाल माथुर बी. ए.।
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जैनहितैषी
तोते पर अन्योक्ति।
गीत तोते तू तेरे करतबने,
इस बन्धनमें डाला है रे ॥ टेक ॥ सुन सीखे जो शब्द हमारे, उनको बोल रहा है प्यारे, मिठू, तुझे इसी कारणसे, कनरसियोंने पाला है रे ॥१॥ हा ! कोटरमें बास नहीं है, प्यारा कुनबा पास नहीं है, लोह-तीलियोंका घर पाया, अटका कष्ट कसाला है रे ॥२॥ सुआ सैकड़ों पढ़नेवाले, पकड़ बिल्लियोंने खा डाले, तू भी कल कुत्तेके मुखसे, प्राण बचाय निकाला है रे ॥३॥ पजे नहीं छुड़ा सकते हैं, क्या ये पंख उड़ा सकते हैं, चोंच न काटेगी पिंजड़ेको, 'शंकर' ही रखवाला है रे ॥४॥
पं० नाथूराम (शंकर) शर्मा। ( अनुरागरत्नसे)
मनुष्यकर्तव्य । ( बाबू ऋषभदासजी बी. ए. के उर्दू लेखका अनुवाद )
त्येक मनुष्यके लिए इस बात पर विचार करना Morang आवश्यक है कि मेरा क्या कर्तव्य है। मैंने इस ET संसारमें क्यों जन्म लिया और मुझें जन्म लेकर HOME क्या करना उचित है। इस पर विचार करनेसे पहले यह जान लेना अत्यन्त आवश्यक है कि मनुष्य क्या चीज़ है । वह
CELENTENE TEUE TENENFLETO
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मनुष्यकर्तव्य।
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कोई सादा चीज है अथवा कई चीजोंकों मिल कर बना हुआ है। जगतमें जो मनुष्यमें भिन्न भिन्न अवस्थायें देखनेमें आती हैं वे किस चीज़का असर हैं । एक मनुष्य क्रोधके वश हो रहा है। आँखें लाल हो रहीं है। चेहरा तमतमा रहा है । तलवार हाथमें है। दूसरेके मार . डालनेको तैयार है । एक दूसरा मनुष्य-जो लोभमें फँसा हुआ है-हर वक्त उसको यही ख़याल रहता है कि किस प्रकार ज्यादह ज्यादह दौलत मिलती रहे । आधी रातका समय है । वह सिर और चेहरे पर कपड़ा लपेट कर अपने आपको छिपाता हुआ किसी धनीके यहाँ चोरी करनेके अभिप्रायसे जाता है। वहाँ जाते ही पकड़ा जाता है
और कैदखानेमें डाल दिया जाता है। ___ एक तीसरा मनुष्य है जो मानके घोड़े पर सवार है । अपने कुल, अपने बल, अपनी सुंदरता और अपनी सम्पदाके नशेमें चूर है । बड़ेसे बड़ेको तुच्छ और छोटा समझता है । एक और चौथा मनुष्य है जिसने मायांचारको अपना पेशा बना रक्खा है। सदा दूसरोंको मायाके जालमें फँसानेकी फिकरम लगा रहता है । उसके मनमें कुछ है और कहता कुछ और है। अंदर कुछ है
और बाहर कुछ है । पाँचवाँ एक और मनुष्य है जो काम और विषयकी चाहमें अंधा हो रहा है । इस धुनमें न उसको अपनीपराई बहू बेटीका खयाल है न किसीकी लाज शरम है । इस तरह सैकड़ों अच्छी बुरी हालतें मनुष्योंमें पाई जाती हैं। कोई राजा है कोई रंक । कोई धनी है कोई निर्धन । कोई रोगी
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जैनहितैषी
है कोई निरोगी । कोई सबल है कोई अबल । कोई विद्वान् है कोई मूर्ख । इन सब अच्छी बुरी अवस्थाओंका कारण उसी समय समझमें आ सकता है जब यह मालूम किया जाय कि मनुष्य किम किस चीज़मे मिलकर बना है और उन चीजोंका असली स्वभाव क्या है।
मनुष्य दो चीजोंसे बना है. आत्मा और पुद्गल । जो कुछ अवस्थायें मनुष्यमें पाई जाती हैं वे सब इन दोनोंके स्वभावोंके प्रभावसे होती हैं । मनुष्यकी आत्मा एक है और पुद्गलके असंख्यात परमाणु भिन्न भिन्न अवस्थाओंमें होकर उसके माथ लगे हुए हैं। आत्मा चैतन्य है। पुद्गल जड़ है। आत्माका स्वभाव देखना जानना, पुद्गलका म्वभाव म्पर्श. ग्म, गंध. वर्ण है। जानने देखनेकी शक्ति पुद्गलमें नहीं है । यदि मनुष्य केवल आत्मा ही
आत्मा होता, या यों कहिए कि शुद्ध आत्मा ही होता तो मनुष्यमें बिना किसी समय या स्थानकी कैदके जानना देखना होता, अर्थात् मनुष्य सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता। इसके विपरीत यदि मनुष्य केवल पुदलहीसे बना हुआ होता तो देखना जानना उसमें बिलकुल न होता। यह विचार कि मैं कोई चीज़ हूँ . मैं मुखी या दुग्बी हूँ उसमें कदापि न होता। केवल स्पर्श, रम. गंध, वर्ण ही पाये जाते, जैसे इंट. पत्थर वगैरह और चीजोंमें पाये जाते हैं। अतएव मनुप्यमें जो गुण व अवस्थायें पाई जाती हैं वे आत्मा और पुद्गल दोनोंके म्वभावोंका परिणाम है। आत्मा मनुष्यका सबसे बड़ा और सबसे जरूरी भाग है । दूसरे शब्दोंमें यों भी कह सकते हैं कि असली
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मनुष्य कर्तव्य ।
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चीज़ मनुष्यमें आत्मा ही है । आत्माही के कारण मनुष्यमें देखने जानने और हर एक प्रकारकी उन्नति करनेकी शक्ति पाई जाती है; परन्तु आत्मा चारों तरफसे पुद्गलसे घिरा हुआ है और पुद्गलमें एकमेक हो रहा है । इस कारण यह अपनी शक्तियों और गुणोंका पूर्ण प्रकाश नहीं कर सकता; दूसरे शब्दों में पुद्गलने इसकी शक्तियोंको छुपा या दवा रक्खा है। सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकारका पुद्गल आत्मा के साथ लगा हुआ है । अनेक प्रकारके पुद्गलसे आत्मा बंधा हुआ है । उसकी दशा बिलकुल ऐसी हो रही है जैसे किसी राहगीरको कुछ डाकू मिल जायँ वे उसको चारों तरफ से घेरलें और चारों तरफसे लूटना शुरू कर दें । इसी तरह पुद्गलने आत्माके गुणों और शक्तियों को लूटना शुरू कर रक्खा है।
मनुष्य की आत्मा के साथ तीन प्रकारके शरीर हर समय लगे रहते हैं; कर्माण, तैजस और औदारिक । कार्माण शरीर आठ प्रकारके अत्यंत सूक्ष्म पुद्गलों का बना हुआ है जिनको जैनधर्म
में आठ कर्म कहते हैं। यह सूक्ष्म पुद्गल आत्माके रागद्वेषादि
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परिणाम तथा क्रोध मान आदि कषायोंके कारण आत्माकी तरफ आकर्षित होकर आत्मासे बँध जाता है और अपने समय पर उदय होकर आत्माको सुखदुःख देता है । सुखदुःख भोगते समय आत्मा । फिर रागद्वेष करता है । इस लिए पुद्गलके और और नवीन परमाणु आत्माकी तरफ खिंचकर आत्मासे बँध जाते हैं । इनमेंसे एक प्रकारका पुद्गल है जो आत्माके ज्ञानस्वभावको दबाये व ढके रहता है ।
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जनहितैषी -
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उसको ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं । दूसरे प्रकारका पुद्गल है जो आत्माकी दर्शन शक्तिको दवा रखता है । उसको दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । तीसरे प्रकारका पुद्गल है जो आत्माको संसारके मोहजालमें फँसाकर उसको आत्मानुभव और आत्मिक सुखसे रोकता है। इसके मुख्य दो भेद हैं:- १ दर्शन मोहनीय, २ चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीयसे सच्चा श्रद्धान नहीं होता । चारित्र - मोहनीयसे क्रोध, लोभ, मान. माया, हास्य. रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि आदि बुरे भाव पैदा होकर मनुष्यका चारित्र ठीक नहीं होने पाता । चौथे प्रकारका पुगल अंतराय कर्म कहलाता है जिसके कारण आत्मा दानादि नहीं कर सकता अथवा अपनी शक्तिको काम - में नहीं ला सकता । पाँचवें प्रकारका पुद्गल आयु कर्म है जो आत्माको नियत समयतक एक शरीर में रखता है । छट्टे प्रकारका पुद्गल वेदनीय कर्म है जो आत्माको सुख दुःखका कारण होता है । सातवें प्रकारका पुद्गल नाम कर्म है जो आत्माके वास्ते भिन्न भिन्न प्रकारकी शरीरकी आकृति करता है । आठवें प्रकारका पुद्गल गोत्र कर्म है जो आत्माके उच्च नीच कुलमें जन्म लेनेका कारण हे'ता है । इस तरह यह आठ प्रकारका सूक्ष्म पुद्गल है जिसको जैनसिद्धांत में आठ कर्म कहते हैं । इन्हींसे कार्माण शरीर बना हुआ है जो अन्य शरीरों और आत्माकी सम्पूर्ण संसारिक अवस्थाओंका कारण होता है । दूसरा शरीर मनुष्यकी आत्माके साथ तैजस शरीर है जिसके कारण शरीर में तेज और गर्मी रहती है । तीसरा औदारिक शरीर है जिसको हम तुम सब देखते हैं । इस
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मनुष्य कर्तव्य |
प्रकार मनुष्यकी आत्माको पुद्गलने तीन सूक्ष्म और स्थूल शरीरोंकी शकलमें घेर रक्खा है जिसके कारण आत्माके वास्तविक गुण और स्वभाव अर्थात् अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य आदि प्रगट नहीं हो सकते। कार्माण शरीरके एक अंग नाम कर्मके कारण औदारिक शरीरके अंगोपांग आदि बनते हैं । इस तरह कार्माण शरीर, औदारिक शरीर तथा आत्माकी अन्य सांसारिक अवस्थाओंका बीजभूत है । अतएव मनुष्यका सबसे बड़ा कर्तव्य यह है कि अपनी आत्माको पुद्गलके मैलसे पवित्र करके शुद्ध आत्मा बनावे | यहाँ पर यह ख्याल न करना चाहिए कि मरनेके बाद शरीरसे आत्मा निकल जाता है और उस समय वह शुद्ध हो जाता होगा । यह भ्रम है । निःसंदेह औदारिक शरीर उस समय पृथक होजाता है, परंतु कार्माण और तैजस ये दोनों शरीर आत्माके साथ लगे रहते हैं । ये दोनों शरीर जबतक आत्माको मोक्ष न हो जाय सदा आत्माके साथ रहते हैं ।
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मनुष्य इस ही कारणंसे सब जीवोंमें श्रेष्ठ कहलाता है कि मनुष्य शरीरसे ही वह आत्मा पुगलका सम्बंध छोड़कर परम पदको प्राप्त. कर सकता है। प्रत्येक मनुष्यका यही सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है कि वह अपने मन, वचन, कायको इस तरहसे वशमें करके प्रवर्ते कि जिससे आत्मा शुद्ध होनेकी तरफ रुचि करे । हर एक मनुष्यको चाहिए कि अपने मस्तकमें ऐसे ही विचारोंको स्थान दे, ऐसे शब्द मुखसे निकाले और ऐसे ही कार्य अपने शरीर से करे कि जिनसे उसकी आत्मा पुलके असर से अधिक अधिक बाहर होती
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जैनहितैषी
रहे । आत्माको शुद्ध करनेका यही उपाय हो सकता है कि आत्माके स्वभावको ग्रहण किया जाय और पुद्गलके स्वभावको छोड़ा जाय । इस बातको पूरी तौरसे अपने दिलमें रक्खा जाय कि पुद्गल आत्मासे भिन्न है । पुद्गलका धर्म आत्माका धर्म नहीं हो सकता और आत्माका धर्म पुद्गलका धर्म नहीं हो सकता। पुद्गलके धर्मने आत्माके धर्मको मैला और खराब कर रक्खा है। पुद्गलके धर्मके असरसे आत्मा पुद्गलमें अपना आत्मा मानता है । पुद्गलकी सुंदरता और असुंदरताको देखकर रागद्वेष करता है। रागद्वेष आत्माका स्वभाव नहीं है । पुद्गलके निमित्तसे आत्माके ज्ञानमें खराबी आरही है। वास्तवमें आत्माका ज्ञान ऐसा निर्मल और विस्ताररूप है कि समस्त लोक अलोक और सम्पूर्णब्रह्मांडके पदार्थ अपनी भूत भविष्यत् वर्तमान तीनों कालकी पर्यायांसहित उसमें एक समयमें ही दिखलाई दिये जा सकते हैं । परंतु पुद्गलके संयोगसे आत्माका ज्ञान बहुत ही मैला और तंग होरहा है । अतएव आत्माके ज्ञानकी असली अवस्थाको प्राप्त करना ही सबसे बड़ा कर्तव्य है। ___ अब प्रश्न यह है कि मनुष्य अपनी आत्माके असली स्वभावको किस तरह प्राप्त करे । यह जब ही हो सकता है जब कि मनुष्य यह जाने कि आत्माका धर्म क्या है। पुद्गल क्या है। पुद्गलका संयोग आत्माके साथ किस तरह और क्यों हो रहा है। किन उपायोंसे आत्मा पुद्गलसे पृथक् किया जा सकता है । इन ही सिद्धांतोंका नाम · जैनधर्म' है। यही सिद्धांत सम्पूर्ण मतोंकी
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मनुष्यकर्तव्य ।
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जड़ है। यद्यपि भिन्न भिन्न मतावलम्बी इन सिद्धांतोंको भिन्न भिन्न रूपमें प्रगट करते हैं; कोई पुद्गलका नाम माया रख ले, कोई उसको प्रकृतिके नामसे पुकारे; परंतु वास्तवमें धर्मके मूल सिद्धांत ये ही हैं। __ अतएव मनुष्यका कर्तव्य यह है कि इन सिद्धांतोंको स्वयं जाने और इनके अनुसार जहाँ तक होसके अमल करे और केवल अपने जानने पर ही संतोष न करे, किंतु जहाँ तक हो सके दूसरोंको भी इन सिद्धांतोंका ज्ञान करावे । जहाँतक उसकी शक्ति हो उनका संसारमें प्रचार करे । दूसरोंके साथ इस प्रकारका व्यवहार करे कि जिससे स्वयं उसकी आत्मा तथा जिसके साथ व्यवहार करे उसकी आत्मा पुद्गलके धर्मसे दूर हो और आत्माके धर्मकी तरफ़ रुचि करे। दूसरोंको बद्ध करने अथवा हानि पहुँचानेमें, दूसरोंसे झूठ बोलनेमें, दूसरोंका धन या दूसरोंकी स्त्री छीननेमें, सांसारिक वस्तुओंकी तीव्र इच्छा करनेमें, व्यवहार करनेवालेकी आत्मा तथा जिसके साथ व्यवहार किया जाय उसकी आत्मा, दोनोंकी आत्मायें
आत्मिक धर्मसे गिरती हैं और पुद्गलकी अधीनतामें अधिक अधिक फँसती हैं। इस लिए इन पाँचों बातोंको पाप बताया गया है और इनको मना किया गया है। अतएव मनुष्यका सबसे पहला और सबसे बड़ा कर्तव्य यही है कि आत्माके धर्मको यथाशक्ति ग्रहण करे और दूसरोंको ग्रहण करावे जिससे आत्मा पुद्गलके असरसे निकलती और शुद्ध होती चली जाय ।
दयाचन्द्र गोयलीय बी. ए. ।
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बच्चोंकी शिक्षा।
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मारे देशके नेता व हितेच्छु इस बातको समझने FIRoboost लगे हैं कि देशके उद्धार करनेमें विद्या और
- उसकी प्रणाली मुख्य ध्यान देने योग्य है । इस PATNA बातको सब ही जानते हैं कि विद्या धन संसारके समस्त धनोंमें श्रेष्ठ है । न इसे चोर चुरा सकता है न हिस्सेदार ही इसे बाँट सकते हैं । इसका जितना ही उपयोग और दान किया जाय उतनी ही इसकी वृद्धि होती है । ज्ञान जो विद्याके आश्रित है मनुष्यको पशु. पक्षियोंसे श्रेष्ठ बनाता है और बिना इसके मनुष्य जन्मका मिलना भी दुर्भाग्य ही है । नरजन्मका पाना विद्याहीसे सफल है । ऐसी सुखदायिनी विद्याका संपादन सहन और नियमित रूपसे केवल बाल्यकालहीमें किया जा सकता है । इस अवस्थाकी शिक्षा सारी जिंदगीको ढाल देती है। अब देखना यह है कि वह ऐसी कौनसी शिक्षा है जो बालकको उसके भविष्य जीवनमें लाभकारी हो तथा उसे पात्र मनुष्य बनाकर उसको जीवन पर्यंतके लिए सुखी बना देसकती है। यह भी विचारना चाहिए कि ऐसी शिक्षा किसप्रकार और किस अवस्थामें होनी चाहिए और उसका उद्देश्य भी कौनसा होना उचित और लाभकारी है।
सबसे प्रथम इस बातको निश्चय कर लेना चाहिए कि बच्चोंका विद्यारंभ किस अवस्थामें होना चाहिए । इस विषय पर विद्वानोंके
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बच्चों की शिक्षा |
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मनाम अंतर है । कोई कहते हैं कि यह १० वर्ष होना चाहिए, कोई कहते हैं. नहीं. यह अवस्था ८ वर्ष ही ठीक है और किसीका मन है कि विद्याकाल ५ वर्ष आरंभ होता है । कोई कोई तीन ही मालकी उमरमें अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देते हैं। पाश्चात्य विद्यागुरुओं का मत ८ से १० वर्ष तकके लिए है; पर भारतवर्ष में प्रथानुसार तथा शास्त्रानुसार यह अवस्था पाँच वर्ष मानी जाती है देश के जलवायुका विचार कर यह विद्यारंभ काल ५ वर्ष ठीक ही माना गया है | इससे ज्यादा और कम दोनों ही अवस्थायें हानिका रक है। पर इससे यह न समझ बैठना चाहिए कि बस पाँच वर्ष कम या अधिक होना एकदम पाप है । नहीं, प्रत्येक बालकका शरीरसंगठन इत्यादि देख उसे ५ से ८ वर्ष तककी अवस्था में विद्याभ्यास शुरू करना चाहिए। इस कालमें उसकी मस्तकशक्तियांका तथा मानसिक भावोका विकाश होने लगता है बालककी वृद्धिका विकाश होने से इन दिनों उसका मन प्रभावों | Impressions ) के लिए परिपक्क हो जाता है । अगर इस अवस्थाको हाथसे जाने दिया जाय और उसे खोटी संगतिमें तथा
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संस्कारों पड़ने दिया जाय तो उसकी सारी जिंदगी दुःखमय हो जायगी । यहाँ इस बातको बना देना अनुचित न होगा कि शिक्षाको हम केवल वर्णमालाका ज्ञान ही न समझ बैठें। शिक्षाका सबसे प्रधान अंग अथवा गौरव बालक में सत्यनिष्ठा. समयनिर्धारिता (Punctuality ). नियमबद्धता ( Regularity ), स्वच्छता, मनकी एकाग्रता और इन सबसे अधिक मातापिता व गुरुओंकी आज्ञा पालना
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जैनहितैषी
इत्यादि गुणोंका कूटकूट कर भर देना है । सारांश उसमें सम्पूर्ण रूपसे सतोगुणी भावोंका विकाश कराना चाहिए जिससे उसके समस्त अच्छे गुण व मानसिक भव्य भाव प्रकाश हो जावें । इस अवस्थामें इस बातका पूर्ण ध्यान रखना चाहिए कि बालकमें कितनी योग्यता है और उस ही प्रकार क्रम क्रमसे उसे ऊँची शिक्षा देनी चाहिए । जैसे जैसे उसमें नवीन शक्तियोंका प्रादुर्भाव होता जावे उसीके अनुसार शिक्षाका क्रम होना आवश्यक है । ऐसा करनेसे बालकको न मानसिक कष्ट ही होगा और न उसकी मानसिक बाढ़में हानि पहुँचेगी । उसे विचार करनेमें भी सहायता मिलेगी । कारण, बालकमें नवीन अवस्थामें नये नये बि. चार स्वतः पैदा होते हैं । और ज्ञान केवल बाहरी कारणोंसे ही नहीं बरन् इन बाहरी कारणोंका योग पाकर भीतरहीसे उत्पन्न होता है। ज्ञान और बुद्धि एक मात्र स्मरण शक्तिके बढ़नेसे ही नहीं बढ़ती है । तोते सा रटा हुआ ज्ञान सच्चा ज्ञान नहीं कहा जा सकता। जबतक बालकमें स्वतः विचारने और निर्णय करनेकी शक्ति बढानेकी शिक्षा न दी जाय तबतक उसे सच्ची शिक्षा नहीं कह सकते। इन सब बातों पर अगर पूर्ण ध्यान दिया जाय तो कोई कारण नहीं कि विद्यार्थीमें देखने, निर्णय करने और स्वतंत्र सोचनेकी शक्ति आप ही आप न स्फुरित हो जाय, उसमें उच्च शिक्षा पानेकी योग्यता न बढे और चरित्रगठनमें सहायता न मिले । __ चरित्रगठनको लोग मामूली बात समझ उस पर ध्यान ही नहीं देते जिसका फल यह होता है कि बालक प्रौढ़ होने पर सारी
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बच्चोंकी शिक्षा।
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उम्र दुःख भोगता है । संसाररूपी समुद्रमें केवल चरित्र ही मनुष्यको वांछारूपी लहरोंसे बचा सकता है । दुःखके साथ कहना पड़ता है कि आज कलकी (आधुनिक) शिक्षाका ऐसा प्रवाह बह रहा है कि नीतिशिक्षा व धार्मिकशिक्षाकी अवहेलना की जाती है; बालकोंको केवल मानसिक ( Intellectual ) शिक्षामें निपुण किया जाता है जिसका फल यह हुआ है कि नास्तिकता और असन्तुष्टता जनसमाजमें फैलती जा रही है। मानसिक शिक्षाके शिक्षित केवल विषयाभिलाषी हो दुःख उठाते हैं। जिन नव युवकोंमें खाने, पीने और खुश रहनेकी सुगम चाल व उदंडताका व्यवहार देखा जाता है वह केवल मात्र उनकी नैतिक और धार्मिक शिक्षाकी कमीके कारण है। _दूसरी मुख्य बात जिसकी अवहेलना हमारे स्कूलमास्टर व पंडित लोग प्रायः कर जाते हैं वह यह है कि वे अपने चरित्रको आदर्शरूप नहीं बनाते । बालकोंका स्वभाव नकल करनेका होता है और जैसा वे अपने गुरुजनोंको करते देखते हैं वैसा स्वयं भी करने लगते हैं । अध्यापकोंका चरित्र ऐसी उच्चकोटिका होना चाहिए कि बालक उसे अनुसरण कर सदाचारी बन जावें । इस लिए उन्हें बालकोंके भावोंके जान लेनेके साथ साथ अपना चरित्रबल बढाना चाहिए और इसका सबसे अच्छा उपाय उन्हें स्वयंशिक्षा लेना चाहिए अर्थात् उन्हें ट्रेनिंगस्कूलोंमें पढ़कर खुद योग्य बनना चाहिए । शोकका विषय है कि जैनजातिमें अभी तक ऐसे अध्यापक तैयार करनेकी कोई भी संस्था नहीं है।
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. जैनहितैषी
___ एक बातका और उल्लेख कर देना उचित है कि बालकों पर सबसे अधिक असर माताकी शिक्षाका होता है। पर दुर्भाग्यवश हमारे समाजकी मातायें अशिक्षित और मूढ हैं। वे बालकोंको उचित शिक्षा नहीं दे सकतीं । इससे यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि जहाँतक हो सके बालकको नीतिवान् शिक्षकहीके पास रक्खा जावे । इसका एक मात्र उपाय गुरुकुल और उच्च कोटिके बोर्डिंग हाउस हैं। अब समयको देख तथा अपनी स्थितिको विचार ऐसी संस्थाओंको उत्तेजित करना चाहिए । हमारा कर्त्तव्य है कि हम ऊपर कही हुई शिक्षाको जनसाधारणमें फैलावें । हमारी जातिका अथवा धर्मका उत्थान केवल इसी शिक्षा पर निर्भर है। हमें अपने बालक सुचतुर, नीतिवान् तथा सच्चे सत्यके खोजक बनाना है और यह केवल बाल्यकालकी शिक्षा ही पर निर्भर है। इससे धर्म और जातिके हितैषी महाशयोंको प्रारंभिक शिक्षाको ठीक रूप लाने कमी न करना चाहिए; कमर कसकर भले प्रकार निर्धारित मार्ग पर शिक्षाका ढंग जारी करना चाहिए।
समाजका हितेच्छुक
कस्तूरचन्द जैन बी. ए.।
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उठो प्यारो, उठो प्यारो ।
उठो प्यारो, उठो प्यारो !
( श्रीयुत बाबू अर्जुनलालजी सेठी बी. ए. के महेन्द्रकुमार नाटकसे उद्धृत | )
हुआ है भर उन्नतिका, उठो प्यारो उठो प्यारो । वह देखो ज्ञानका दिनकर, उठो प्यारो उठो प्यारो ॥ १ ॥
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कला कौशलके पक्षीगण, सुनाते शब्द हैं मनहर, पढ़ो अध्यात्मकी वाणी, उठो प्यारो उठो प्यारो ॥ २ ॥ अविद्याका अँधेरा सब, मिटा जाता है दुनियासे । जगा है चीन भी देखो, उठो प्यारो उठो प्यारो ॥ ३ ॥
सँभालो अपने घरको अब जगा दो बूढ़े भारतको । यह गुरु है सर्व देशोंका, उठो प्यारो उठो प्यारो ॥ ४ ॥
क्या हिन्दू क्या मुसल्मां, और जैनी बौद्ध ईसाई । करो अब मेल आपसमें, उठो प्यारो उठा प्यारो ॥ ५ ॥
जहाँके अन्न पानी से बना यह तन हमारा है । करो सब उस पै न्योछावर, उठो प्यारो उठो प्यारो ॥ ६ ॥
बजाके वाजे शिक्षाके, भरो आलाप साहसका । बनोगे पात्र लक्ष्मी, उठो प्यारो उठो प्यारो ॥ ७ ॥
नोट – इस कविता से भी सेठजीके विचारोंका पता लगता है । देशसेवाको वे अपना कर्तव्य समझते थे और उसके लिए आपसमें मेलजोल बढ़ाना, अज्ञानान्धकारको दूर करनेके लिए शिक्षा विस्तार करना और इसी कार्य में अपना तन-मन-धन न्योछावर कर देना, इन बातोंका उपदेश देते थे । राजद्रोह के विचारोंकी उनमें गन्ध भी न थी ।
- सम्पादक ।
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जैनहितैषी
परोपकार ।
DROAD
DDOOLCE
( संकलित) FIR रोपकाराय फलन्ति वृक्षाःपरोपकाराय वहांत नद्यः
परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थमिदंशरीरम्
वृक्ष दूसरोंके उपकारके लिए फलते हैं, नदियाँच HSSAYE दूसरोंकी भलाईके लिए बहती हैं और गायें दूसरोंकेर पोषणके लिए दूध देती हैं, अतएव यह शरीर परोपकारके लिए ही है-इससे दूसरोंका भला करना चाहिए।
'तुलसी' सन्त सुअम्बतरु, फूलि फलहिं परहेत। . इतते ये पाहन हने, उतते वे फल देत ॥
सन्तपुरुषोंके समान आमके वृक्ष दूसरोंके ही लिए फूलते फलते हैं। लोग यहाँसे उन्हें पत्थरोंके ढेले मारते हैं; परन्तु वहाँसे वे उनके लिए मीठे फल ही टपकाते हैं । सज्जनोंकी सज्जनता यही है कि वे अपकार करनेवालोंका भी उपकार करते हैं।
परोपकारशून्यस्य धिङ्मनुष्यस्य जीवितम् । जीवन्ति पशवो येषां चर्मोप्युपकरिष्यति ॥
जो दूसरोंकी भलाई नहीं करता उस मनुष्यका जीना धिक्कारवे योग्य है । पशुओंका जीना अच्छा है जो मरने पर भी अपने चमड़ेसे दूसरोंको लाभ पहुंचाते हैं।
यस्मिन्जीवति जीवन्ति वहवः स तु जीवति । काकोऽपि किं न कुरुते चच्या स्वोदरपूरणम् ॥
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परोपकार।
___ जीना उमीका कामका है जिसके जीनेसे और बहुतोंका जीना होता है अर्थात् जो दूसरोंकी सहायता करके उन्हें भी जीवित रखता है। यों अपना पेट तो कौए भी अपनी चोंचसे भर लेते हैं।
जीविते यस्य जीवन्ति विप्रा मित्राणि बान्धवाः । सफलं जीवितं तस्य आत्मार्थ को न जीवति ॥
अपने लिए कौन नहीं जीता ? जीना उसीका सफल है जिसके कारण विद्वान् मित्र और बन्धुजन भी जीते हैं अर्थात् जो दूसरोंकी सहायता करते हैं।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् । ज्योत्स्ना नोपसंहरते चन्द्रश्चाण्डालवेश्मान ॥ जिनका चरित उदार है-जो उदारहृदय हैं-सारी दुनिया उनका कुटुम्ब है. अर्थात् मारी पृथ्वीके जीवोंको वे अपना समझते हैं और उनकी भलाई करते हैं । चन्द्रमा अपनी चाँदनीको ब्राह्मणादिके समान चाण्डालोक बग्में भी डालता है।
दृढतरगलकनिवन्धः कूपनिपातोऽपि कलश ते धन्यः । यजीवनदानस्त्वम् तर्षामर्ष नृणां हरसि ॥ हे बडे. तू धन्य है ! धन्य है ! ! अपना गला मजबूत रस्सीसे बँधवाकर और कुएमें गिरकर भी तू जीवन ( जल ) दान करके लोगोंकी प्यास बुझाता और उन्हें शान्त करता है।
परकृत्यविधौ समुद्यतः पुरुषः कृच्छ्रगतोऽपि पूज्यते । शिरसास्तमयेप्यदीधरद्यदशीतद्युतिमस्तभूधरः॥ परोपकार करनेवाला पुरुष कष्टमें पड़ जाय तो भी उसका आदर
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जैनहितैषी
.mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm सत्कार होता है । देखिए, अपने प्रकाशसे संसारका उपकार करनेवाला सूर्य जब अस्त होता है तब भी उसे अस्ताचल अपने सिरपर धारण करता है।
मन्द करत जो करे भलाई । उमा सन्तकर यही बड़ाई ॥ सन्तोंका बडप्पन-तारीफ इसीमें है कि वे बुराई करनेवाले पर भी भलाई करते हैं।
आधे दोहेमें कहो, सब ग्रन्थनिको सार। परपीड़ा सो पाप है, पुण्य सो पर उपकार॥
आचारकी उन्नति।
ह मारे देशके पण्डित लोग आजकल सभी बातोंमें
अवनति बतलाते हैं। वे कहते हैं कि आचारविचार, विद्या-विज्ञान, दयादाक्षिण्य, धर्मकर्म
- आदि कोई भी बात ऐसी नहीं है जिसमें आजकलके लोग पूर्वकालके लोगोंकी बराबरी कर सकें; परन्तु मेरी समझमें यह उनकी निरी पण्डिताईकी बात है । मैं ऐसी सैकड़ों बातें बतला सकता हूँ जिसमें आजकलके लोग बहुत तरक्की कर गये हैं और जिनकी इतनी उन्नतिके विषयमें पूर्वके लोगोंने कभी कल्पना भी न की होगी। आज मैं सिर्फ एक बातका निवेदन करूँगा।
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आचारकी उन्नति ।
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आजकल सबसे अधिक अवनति आचारके सम्बन्धमें बतलाई जाती है । जिससे पूछिए वही कहता है कि क्या किया जाय ? कालका दीप है | आचार-विचार ( चौके-चूल्हेकी पवित्रता, छुआछूत, पानी ढालना आदि ) तो आजकल रहा ही नहीं है; अँगरेजी सभ्यतांक प्रवाहमें सारी शुद्धता वही जा रही है । परन्तु मेरी समझ में यह बात किसी अंशमं ठीक होकर भी सर्वथा सत्य नहीं है । क्योंकि जिस तरह एक दल इस आचारमे पराङ्मुख होता जाता है उसी तरह एक दल इस आचारका सीमासे अधिक अनन्यभक्त भी होता जाता है। बाहरी शुद्धता या पवित्रता उसने इतनी तरक्की की है कि जिससे अधिक शुद्धता जड़ पदार्थोंको छोड़कर किसी सचेतन - पदार्थ संभव ही नही |
इस तरह की शुद्धता या पवित्रता जनसमाज अन्य किसी समाजसे पीछे नहीं है। मालवा, बुन्देलखण्ड आदि प्रान्त इस विषय में बहुत बढ़े हैं। कुछ समय पहले क्षुल्लकऐलकों के जमाने से पहलेएक बाबाजी थे । उनका नाम मैं भूल गया हूँ । श्रद्धालु जैनसमाज में उनकी बड़ी ही पूजा होती थी। पढ़े लिखे वे शायद बिल्कुल न थे; परन्तु पवित्रताके तो आदर्श थे । उनका सारा दिन पवित्र भोजनसामग्री जुटाने में ही व्यतीत हो जाता था । उनके लिए अनाज धोया जाता था. चक्की घोई जाती थी. चौकेचूल्हे की धुलाई पुताई होती थी और रसोई बनानेवाला तो धुलाई के मारे - नहाते नहाते और हाथ धोते धोते--तंग आ जाता था । बाबाजी दूध भी पीते थे; परन्तु उनके लिए सेरभर दूध जुटाने में श्रावकों को छटीका दूध
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याद आ जाता था ! गाय या भैंस छने हुए जलसे नहलाधुलाकर सूखी जमीनमें बाँधी जाती थी। उसके खानेको सूखा घास और पीनेके लिए तत्कालका छाना हुआ शुद्ध जल दिया जाता था।
उसका मलमूत्र एक टोकनी या बर्तनमें ऊपरका ऊपर ले लेनेके लिए एक आदमी मुकरर्र किया जाता था । दूध दुहनेके समय गाय फिर नहलाई जाती थी। इसके बाद दुहनेवाला नहाता था और फिर उसकी अँगुलियोंकी और नखोंकी परीक्षा की जाती थी ! यदि जरा भी नख बढे हुए होते थे तो उन्हें , पत्थर पर घिस डालनेके लिए कहा जाता था ! जबतक नखाग्र भागमें रक्तकी ललाई न झलकने लगती थी तब तक बाबाजीको उनके पवित्र और निर्मल होनेके विषयमें विश्वास नहीं होता था । इस तरह बड़े भारी परिश्रम और प्रयत्नोंके बाद बाबाजीका पवित्रतर पेट उस पवित्र दुग्धको अपने द्वार पर आनेकी आज्ञा देता था ।आचार तत्त्वकी इस सूक्ष्मता कष्टसाध्यता और जटिलताको देखकर भक्तजन गद्गद होजाते थे। ___ कुछ वर्ष पहले मैंने एक त्यागी बाबाजीके दर्शन और भी किये
थे। वे कर्णाटक देशके थे। अपनी आहारशुद्धिके विषयमें वे कितनी सावधानी रखते थे इसका पता इसी एक बातसे लग जायगा कि वे आटा भी अपने हाथसे पीसते थे ! स्वावलम्बन-शीलता उनकी इतनी बढी चढी थी कि वर्तन माँजने और पानी भरनेमें भी वे किसी दूसरेको हाथ न लगाने देते थे ! . शुद्धाम्नायके स्तंभ एक सेठजीके विषयमें सुनते हैं कि वे अपने बाँयें हाथको, अतिशय अपवित्र समझकर चौकेके भीतर बैठने पर
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भी, उसे बाहर रखते थे ! चौकेके बाहर खड़े होकर यदि भीतर चौकेके लोटे में पानी डाल दिया जाय तो बाहर के लोटेकी धाराका सम्बन्ध होनेके कारण चौकेकी शुद्धता उसी समय हवा हो जाती थी और बाहरका लोटा तो इसके भी पहले ' सखरा ' हो जाता था ! पहले मेरा ख़याल था कि इस तरहकी पवित्रता पवित्र जैनसमाजमें ही होगी; इस विषय में और कोई समाज उसकी बराबरी न कर सकेगा । परन्तु अभी मुझे एक नये सम्प्रदायका पता लगा है जिसमें एक बिलकुल नई तरह के पवित्र जीवधारी देखे गये हैं । इन्हें इधर के लोग मर्जादी या मर्यादी कहते हैं। लोग कहते तो हैं कि ये वैष्णव हैं, परन्तु मेरी समझमें ये जलके उपासक हैं । मछलीको छोड़कर संसारके और किसी जीवमें इनके बराबर जलभक्ति नहीं पाई जा सकती ।
सौभाग्यसे इन दिनों मैं जिस स्थानमें रहता हूँ वहाँ दो मर्जादी रहते हैं । एक तो मेरे बिलकुल पड़ोस में है । मर्जादियोंकी जातिके या कुटुम्बके सब लोग मर्जादी नहीं होते; जो आदमी मर्यादा धर्मकी दीक्षा ले लेता है उसीको यह संज्ञा प्राप्त होती है । अपने इष्ट - देवकी उपासना करनेका इन लोगोंको खास अधिकार प्राप्त होता है ।
मर्ज़ादी उसके हाथका भोजन नहीं कर सकता जो मर्जादी न हो । हमारे पड़ोसी अपनी माताके हाथकी बनाई रसोई नहीं जीमते; परन्तु अपनी श्रीमतीके हाथकी बड़े प्रेमसे जीते हैं । उनकी श्रीमती दीक्षित हैं । जलके परम भक्त होने पर भी वे नलके जलसे इतनी घृणा करते हैं जितनी कि लश्करके
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तेरापंथी भाई वीसपंथियोंसे और जैनगज़टके उपासक छपे हुए
ग्रन्थोंसे । कुएके जलसे नहा चुकनेके बाद यदि नलका एक छींटा - भी कहींसे उन पर आ पड़े तो उन्हें तत्काल ही कई डोल पानीसे फिर नहाना पड़े ! नहाकरके जब वे कुएसे घर जाते हैं तब छायाको बचाते हुए चलते हैं । यदि किसीकी छाया पड़ जाती है तो वे लौट जाते हैं और दो चार डोल पानी फिर ऊपरसे डाल लेते हैं ! दिन भरमें कमसे कम ५-६ बार तो उन्हें नहाना ही पड़ता है। यदि कभी किसी मुसलमानका या अस्पृश्य जातिका स्पर्श हो जाता हैं तो वे स्पर्श करनेवाले अपने शरीरको ५० डोल पानीस नहानकी सजा देते हैं ! किसका स्पर्श होनेपर कितने डोल पानीसे नहाना चाहिए इसके भी नियम बने हुए हैं।
हमारे मुहल्लेमें जो दूसरे मर्जादी महाशय हैं वे पवित्रताके सम्बन्धमें अन्य मर्जादियोंसे बहुत ऊँचे दर्जे पर पहुँच गये हैं । उनका सेरों पीली मिट्टीसे पचासों बार टिहुनियोतक हाथ और घुटनों तक पैर धोनेका तमाशा तो देखने योग्य होता ही है, साथ ही उनकी शौचक्रियाकी सावधानी देखकर विधाताको यह उलहना दिये बिना नहीं रहा जाता कि ये दिव्य जीव किसी दिव्यलोकमें या जललोकमें ही रहने योग्य थे; इन्हें तुमने इस अपवित्र नरलोकमें क्यों जन्म दिया ? ___एक दिन आप पाखाने से निकलकर सीधे कुएँ पर गये और वहाँ रक्खे हुए कपड़ेके डोलसे पानी निकाल निकालकर उपर डालने लगे । बाडीकी देखरेख रखनेवाले जमादारने देखा कि मादी
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जी बिना लोटेके पाखानेमें से निकले हैं और कुए पर आकर भराभर पानी सिरपरसे ढोल रहे हैं। जमादारने कुछ तो पहलेहीसे सुन रक्खा था और जो कुछ रहा सहा सन्देह था वह इस समय दूर हो गया। उसने उसे खूब धमकाया और जी भर गालियाँ सुनाई। वेचारा मर्जादी उस दिनसे अपनी उक्त क्रियाको छोड़ बैठा है और ऐसी ही किसी दूसरी क्रियाकी तजवीजमें अन्यमनस्क रहता है।
मर्जादीजीकी घरवाली भी कम पवित्र नहीं है । जिससमय वह मलमलकी पतली धोती पहने हुए कुएँ पर स्नान करती है और पानीसे सराबोर हुई धोतीको पहने हुए जलसेचनसे पृथिवीको पुनीत करती हुई अपने घर जाती है उस समय साक्षात पवित्रता भी उसे देखकर सिर झुका लेती है ! कहते हैं कि मर्जादिननी छुआछूत नहानेधोने आदिके विषयमें जितना अधिक खयाल रखती हैं उतना गैर मर्दोसे हमी दिल्लगी करने और रहस्यमय वार्तालाप करने में नहीं रखतीं ! कभी कभी जब वे अपने घर पर नहाती हैं और बिना नहाये दूसरे कपड़ोंको छूना ठीक नहीं समझती तब अपने नौकर
को आज्ञा देती हैं कि तू आँखें बन्द करके मेरे ऊपर पानी डालता रह, मैं नहाये लेती हूँ ! नौकर आँखें बन्द रख सकता है कि नहीं सो तो मालूम नहीं; पर वह पानी ढोलनेमें जरा भी गलती नहीं करता !
मैं समझता हूँ इन लोगोंकी पवित्रता और आचारशीलताका वृत्तान्त पढ़कर उन लोगोंको बहुत कुछ ढाढस बँधेगा जो रातदिन कलिकालको या पंचमकालको कोसा करते हैं और जिन्हें जहाँ तहाँ | आचारभ्रष्टता ही दिखलाई देती है। उन्हें विश्वास रखना चाहिए
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जैनहितैषी -
एक इस कलियुग या पंचमकालमें भी बहुत से सतयुगी जीवोंका अस्तित्व बना हुआ है और यदि प्रयत्न किया जायगा तो इनका सम्प्रदाय खासा बढ़ सकता है । अच्छा हो यदि इसके लिए आन्दोलन किया जाय और कोई अच्छी सुजला भूमि देखकर दो चार आश्रम इनके लिए स्थापित कर दिये जायँ ।
- पवित्रात्मा ।
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एक चिट्ठी ।
श्रीमान् महाराजाधिराज भरत चक्रवर्तीकी सेवामें ।
म हाशय,
सबसे पहले मैं यह निवेदन कर देना चाहता हूँ कि आजकल यहाँ पर होलीके दिन हैं । इन दिनोंमें यहाँ हँसी दिल्लगी करनेका रिवाज़ झूठ सचका पृथक्करण करना इस समय बड़े बड़े मानसिक-रसायन-विशारदोंके लिए भी कठिन है। इसलिए कहीं आप मेरी इस चिट्ठीको निरीदिल्लगी न समझ लीजिएगा । मुझे हँसी दिल्लगीका ज़रा भी शौक़ नहीं और इन दिनोंमें जब कि देश दुर्दशाप्रसिन हो रहा है होली मनानेको कोई भी सहृदय अच्छा नहीं
समझ सकता ।
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एक चिट्टी।
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इन दिनों में मैं आदिपुराणका स्वाध्याय कर रहा हूँ । इस ग्रन्थका नाम तो आपने जरूर सुना होगा। क्योंकि इसमें आपके पूज्य पिता भगवान् ऋषभदेवका जीवनचरित है । आपके सम्बन्धमें भी इसमें बहुतसी बातें लिखी हुई हैं । जैनधर्मके अनुयायी इस ग्रन्थके प्रत्येक अक्षर और शब्दको सत्य समझते हैं । मेरा भी पहले यही ख़याल था; परन्तु अब मुझे इस पर विश्वास नहीं होता । हो भी कैसे ? इसमें लिखा है कि आपकी ९६ हज़ार स्त्रियाँ थीं ! दो चार, दश वीस, सौ पचास नहीं, एकदम च्यानवे हज़ार ! एक लाखमें सिर्फ चार हजार कम ! छोटी माटी झूट तो किसी तरह धर्मश्रद्धाके सोटेसे ठेलकर गलेकी नीचे उतारी जा सकती है; पर इतनी मोटीताजी गजवकी झूठ, भला आप ही बतलाइए कि किस तरह गले उतारी जावे ? ___ यह मैं मानता हूँ कि आपके जमानेमें और अबके जमानेमें बहुत बड़ा अन्तर है । लारवा वर्ष बीत चुके हैं. इसलिए आजकलके रीति-रिवाज़ आपके ज़मानेके रीति-रिवाजांसे मिलान नहीं खा सकते तो भी उनमें इतना ज़मीन आसमानका अन्तर नहीं हो सकता। आप. यदि कुछ दिनोंके लिए यहाँ आकर रहें तो मालूम हो कि स्त्री कितनी दुर्लभ चीज है और उसके प्राप्त करनेमें किन किन मसीबतोंका सामना करना पड़ता है। पहले तो वह द्विजवर्णों की नहीं, स्ववर्णकी नहीं, स्वजातिकी नहीं, स्व-उपजातिकी ही होनी चाहिए, फिर उसके चार या आठ गोत्र टाले जाना चाहिए । इसके बाद वरके पास धन होना चाहिए, जेवर होना चाहिए और कन्याके
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जैनहितैषी
पिताकी तथा दूसरे दलालोंकी पूजा करनेके लिए भी कुछ चाहिए, तब कहीं मुश्किलसे यह सुदलेभ स्त्रीरत्न प्राप्त होता है। पर यह सबके भाग्यमें नहीं । मेरे जैसे हज़ारों पढ़े लिखे हट्टेकट्टे नवयुवक तो इस रत्नके लिए जीवन भर तरसते रहते हैं तो भी नहीं पा सकते। एक रत्नसे ज्यादा रखनेका तो किसीको अधिकार ही नहीं है। तब बतलाइए हम कैसे मान लें कि आपके ९६ हज़ार स्त्रियाँ थीं ? ___ हमारे यहाँ जो धनी हैं वे अपने धनके जोरसे साठ पैंसठ वर्षकी उम्र तक स्त्रियाँ प्राप्त कर लेते हैं; आप छह खण्डके राजा थे इस लिए अपनी अतुलित सम्पत्तिके जोरसे संभव है कि आपने भी स्त्रियोंके लिए कुछ प्रयत्न किया हो; परन्तु इस प्रयत्नमें भी इतनी सफलता कदापि प्राप्त नहीं हो सकती कि एकदम ९६ हजार स्त्रियाँ आपको मिल जावें ! स्त्रियाँ भी मनुष्य हैं, वे ऐसी चीज नहीं कि फरमाइशके माफ़िक तैयार कराई जा सकें। और आपके जमानेमें तो स्त्रीजातिकी बड़ी प्रतिष्ठा थी । तब यह भी माननेके लिए जी नहीं चाहता कि आपने उन्हें भी उसी तरह प्राप्त कर ली होंगी जिस तरह अठारह करोड घोड़े और चौरासी लाख हाथी प्राप्त किये थे ! ____ मुझे उम्मेद है कि आप 'रिव्यू आफ रिन्यू के सम्पादक मि० स्टेडके समान एक पत्र या संदेशा भेजकर-आदिपुराणकी उक्त ९६ हज़ार स्त्रियोंकी बातका खण्डन कर देंगे और यदि यह बात वास्तवमें ही सच हो तो कृपा करके वह तरकीब लिख भेजेंगे जिससे कि स्त्रीरत्न इतनी बहुलतासे प्राप्त हो सकते हैं। इस :
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एक चिट्ठी।
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ममय इस देशको-विशेष करके जैनसमाजको-उस तरकीबके जान लेनेकी बड़ी भारी जरूरत है। मेरी खण्डेलवाल जातिकी तो इसके बिना बड़ी ही दुर्दशा हो रही है। मेरे जैसे हजारों युवक ऐसे हैं जो केवल एक ही एक स्त्रीकी प्राप्तिके लिए इस समय चाहे जो करनेके लिए तैयार हैं। हम लोगोंके दुःखोंका कुछ पार नहीं है । उन दुःखोंका अनुभव आप जैसे हज़ारों पत्नियोंके स्वामी कदापि नहीं कर सकते । हमारी जातिके धनी मानी पंच मुखिया भी-जिनके कि केवल एक ही एक पत्नी ( किसी किसीके दो दो चार चार उपपत्नियां भी ) है-जब हमारे दुःखका अनुभव नहीं कर सकते तत्र आपसे तो उम्मेद ही क्या की जा सकती है ? • इस परम दुःखमे मुक्त होनेके लिए यदि आप वह तरकीब बतला देंगे तो हम लोगोंका बड़ा भारी कल्याण होगा। आपके प्यारे जैनधर्मकी नीव इस समय डगमगा रही है । बड़ी तेजीसे जैनोंकी संख्याका हाम हो रहा है । यदि आपने स्त्रीप्राप्तिका उपाय न बतलाया तो फिर आशा नहीं है कि यह समाज जीवित बना रहेगा । कमसे कम मेरे लिए तो आप अवश्य ही कुछ उपाय बतला दीजिएगा।
हाँ, आदिपुगणमे मालूम होता है आप बड़े भारी सुधारक या रिफार्मर थे । आपने दान पुण्य करनेके लिए एक नया वर्ण स्थापित किया था । देशकालकी ज़रूरतके अनुसार समाजसंघटना करनेके सुधारकोंके तत्त्वको आप मानते थे। अच्छा तो ऐसा ही कोई उपाय बतलाइए. जो हम एक नये वर्णकी स्थापना ही कर डालें ।
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जैनहितैषी
आपके समयमें दान लेनेवाले वर्णकी ज़रूरत थी, पर इस समयमें एक दान करनेवाले-कन्यादान करनेवाले वर्णकी जरूरत है । उसका काम यह रहे कि मेरे जैसे अविवाहित युवकोंके प्रार्थना करते ही वह उनके लिए कन्यायें ढूँढकर विवाह कर दिया करे। ___ आपके जमानेमें जब आपके ९६ हज़ार स्त्रियाँ थीं तब औरोंके
भी हजारों नहीं तो दो दो चार स्त्रियाँ अवश्य होंगीं । इससे मालूम होता है कि उस समय पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंकी संख्या अधिक होगी–अर्थात् लड़कियोंकी पैदायश लड़कोंसे कई गुनी ज्यादह होगी । परन्तु आजकल यह बात नहीं है । लड़कियोंकी पैदायश ही कम होने लगी है। क्या इसके लिए भी . आप कोई तरकीब बतलाइएगा !
हाँ, आदिपुराणसे यह भी मालूम हुआ कि आपने म्लेच्छोंकी कई हजार कन्याओंके साथ विवाह किया था । इस रिवाजका पता भगवान् महावीरस्वामीके समय तक लगता है । सम्राट चन्द्रगुप्तने म्लेच्छ राजा सेल्यूकसकी बेटीके साथ विवाह किया था और चन्द्रगुप्त 'जैनासिद्धान्त भास्कर' के लेखोंसे मालूम होता है कि जैन थे। ' कन्यारत्नं दुष्कुलादपि ' का वचन भी यही बात कहता है। क्या आप जैनसमाजके मुखियोंके पास एक पत्र नहीं भेज सकते जिससे वे "और और जातियोंकी कन्यायें लेलेनेमें कोई हर्ज नहीं है" इस तरहका एक नियम जारी कर दें ? कमसे कम अपने वर्णकी किसी भी
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जातिकी कन्या लेलेनेमें तो कोई रुकावट न रहे । मेरी समझमें आपकी चिट्ठीसे यह काम ज़रूर हो जायगा। ___ उत्तर ज़रूर भिजवाइए, चिट्ठीके साथ एक टिकट भेजा जाता है। मेरे नामके साथ ' बम्बई नं. ४ ' लिखदेनेसे मुझे पत्र मिल जायगा !
काशलीवाल जैन । नोट-यह चिट्ठी 'डेडलैटर आफिस' की हवा खाकर हमारे पास आई है। भेजनेवालेके नामके साथ 'जैन ' लिखा रहनेसे पोस्टमेन हमारे यहाँ डाल गया है । लेखक महाशयने यह नहीं सोचा कि भरत महाराज मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं; उनतक पत्र कैसे पहुँचेगा और उत्तर कौन देगा । आप डॉकका टिकट भेजना भी नहीं भूले हैं । मानों वहाँ भी डॉकखाने खुले हुए हैं ! बलिहारी !
सम्पादक।
विविध-प्रसंग।
१ सेठीजीके विषयमें प्रयत्न ।
पा से ठीजीके विषयमें आन्दोलन होने लगा है और REAN संतोषका विषय है कि वह बहुत अच्छे ढंगसे
प्रारंभ हुआ है। अनेक सज्जनोंने जिनका क नाम प्रकाशित करनेकी इस समय आवश्यकता नहीं है इस महीनेमें खूब ही दौड़ धूप और मेहनत की है और उन्होंने इस
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जैनहितैषी
प्रश्नको देशव्यापी कर दिया है। जैनसमाजकी नींद टूट गई है
और हम बड़े हर्षके साथ प्रकट करते हैं कि वह कार्यक्षेत्रमें उतर पड़ी है । कलकत्ता, लखनौ, इलाहाबाद, बनारस, मिर्जापूर, अमरोह फीरोजपुर, रोहतक आदि बड़े बड़े नगरोंमें सभायें हुई हैं, जगह जगह चन्दा एकत्र हो रहा है, लगभग १५००)रु० जैनमित्रके आफि समें आ चुके हैं, १५००)रु० कलकत्तेकी सभामें एकत्र हुए हैं। और में, कई स्थानोंसे रुपये एकत्र होनेके समाचार मिले हैं । महाराज जयपुर और वायसराय साहबकी सेवामें अर्जी भेजनेके लिए जगह जगहसे दस्तखत होकर भी आ रहे हैं, कई हजार सहियाँ आ चुकी हैं। बड़े बड़े प्रतिष्ठित पुरुषोंने इस विषयमें सहानुभूति दिखलाई है। सिर्फ आकोलासे ( बरार ) से ही कोई २० वकीलोंकी सहियाँ आई हैं जिनमें से एक महाशय आनरेवल हैं । इलाहाबादके सुप्रसिद्ध वकील आनरेबल डा० तेजबहादुर सप्रू श्रीमती गुलाबबाईके वकील नियुक्त हुए हैं। उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया है। वे एक मेमोरियल महाराजा जयपुरकी सेवामें भेज चुके हैं । वायसराय साहबकी सेवामें मेमोरियल भेजनेका प्रयत्न हो रहा है। डेप्यूटेशनके लिए भी उद्योग जारी है । लाट साहबकी लेजिस्लेटिव कौन्सिलमें और विलायतकी पार्लियामेंटमें यह प्रश्न उपस्थित किया जाय इसके लिए भी प्रयत्न हुआ है । हमको विश्वास है कि यदि हम इसी तरह उद्योग करते रहे तो वह दिन बहुत ही समीप है जब हम अपने समाजके निःस्वार्थ सेवक श्रीयुत अर्जुनलालजी सेठीके मुक्त होनेका शुभ समाचार सुनानेके लिए समर्थ हो सकेंगे । यह
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विविध प्रसंग |
कभी संभव नहीं कि प्रयत्न किया जाय और उसमें सफलता न हो। उद्योगके आगें सफलतायें हाथ जोड़कर खड़ी रहती हैं ।
२ समाचारपत्रोंकी सहानुभूति ।
सेठीजीके विषय में देशके प्रायः सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध समाचारपत्रोंने लेख लिखनेकी कृपा की है। बंगाली, अमृतबाज़ारपत्रिका, एडवोकेट, लीडर, इन्दुप्रकाश, बाम्बे क्रानिकल, न्यूइंडिया, दि गुजराती, पंजाबी, कलकत्तागजट, अभ्युदय, प्रताप, भारतोदय, कलकत्तासमाचार, हिंदुस्तान, आर्यप्रकाश, हिन्दी समाचार, भारतमित्र आदि नामी नामी पत्रोंने युक्तिपूर्ण अग्रलेख लिखकर और श्रीमती गुलाबबाईकी हृदयझवक अपील प्रकाशित करके इस प्रश्नको देशव्यापी बना दिया है । सभीने एक स्वर से भारतसरकारसे प्रार्थना की है कि वह जयपुर राज्यके इस अनुचित कार्यमें हस्तक्षेप करे और ब्रिटिशराज्यकी न्यायशीलताकी रक्षा करे | इतना अच्छा आन्दोलन जहाँतक हम जानते हैं बहुत कम व्याक्तियोंके लिए हुआ है और इससे आशा होती है कि भारतसरकार प्रजाके इन प्रतिनिधियोंकी पुकार पर बहुत जल्द ध्यान देगी। हम अपने सहयोगियोंकी इस उदारता और सहानुभूतिको कभी नहीं भूल सकते हैं जो उन्होंने सेठीजीके विषयमें दिखलाई है । उन्होंने इस समय न केवल हमारी सहायता की है प्रत्युत यह बतलाया है कि धर्मभिन्नता होने पर भी तुम हमारे भाई हो, देशके एक अंग हो और तुम पर जो कष्ट आता है उसका अनुभव हमें भी तुम्हारे ही जैसा होता है । जैनसमाज इस शिक्षाको
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अब कभी नहीं भूल सकता; अबसे उसका नाता अपने देशबन्धुओंके साथ और भी घनिष्ठ होगा-वह अपने कर्तव्यका पालन करने में कभी आनाकानी न करेगा।
३ अब क्या करना चाहिए ? अभीतक जो कुछ हुआ है वह अच्छा हुआ है; परन्तु यथेष्ट नहीं हुआ है। आन्दोलनकी गतिको हमें बराबर बढाते जाना चाहिए और उस समय तक शान्त न होना चाहिए जब तक कि सेठीजीके भाग्यका कुछ न कुछ निबटारा न हो जाय । हमारे भाई यह तो अब अच्छी तरह समझ गये हैं कि इस मामलेमें आन्दोलन करना, उद्योग करना, सहायता देना कोई राजद्रोहका काम नहीं है। क्योंकि हम केवल यह चाहते हैं कि सेठीजीपर बाकायदा मुकद्दमा चलाया जाय और यदि उसमें वे निर्दोष सिद्ध हों तो छोड़ दिये जावें, नहीं तो उन्हें उचित दण्ड दिया जावे । हम यह कभी नहीं चाहते हैं कि वे अपराधी होने पर भी छोड़ दिये जावें । ऐसी दशामें राजभक्तसे राजभक्त पुरुष भी-रायबहादुर, आनरेरी मजिस्ट्रेट, बेंकर, व्यापारी, वकील, बैरिस्टर, और सरकारी नौकरी करनेवाले भी इस आन्दोलनमें बिना किसी डरके शामिल हो सकते हैं। इस विषयमें सबसे अच्छा उदाहरण हमारे सामने यह है कि श्रीयुक्तबाबू अजितप्रसादजी एम. ए. एलएल. बी. जो लखनऊचीफ कोर्टके सरकारी वकील हैं इस कार्यमें खुल्लमखुल्ला प्रयत्न कर रहे हैं । यदि राजद्रोहका या सरकारकी अवकृपा होनेका काम होता तो वे इसमें कभी शामिल न होते । आशा है कि इस उदा
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हरणसे हमारे भाइयोंका डर बिल्कुल दूर हो जायगा और वे इस मामलेमें जीजानसे उद्योग करेंगे । दो बातोंकी सबसे बड़ी ज़रूरत है। एक तो यह कि तमाम बड़े बड़े शहरोंमें पब्लिक सभायें या जैनसभायें की जावें और उनका वृत्तान्त समाचारपत्रोंमें प्रकाशित कराया नाय । दूसरे, जगह जगह चन्दा एकत्र करनेकी कोशिश की जाय
और जितना रुपया एकत्र हो वह यहाँ जैनमित्रके आफिसमें भेज दिया जाय । जो सज्जन अपना नाम प्रकट न कराना चाहें वे भी चन्दा दे सकते हैं । रुपयोंकी बहुत आवश्यकता है । महाराजाजयपुर और वायसराय साहबके पास जो डेप्युटेशन जानेवाला है उसमें समाजके प्रतिष्ठित सज्जनोंको मेम्बर बनना चाहिए । इसके लिए भी प्रयत्न करनेकी ज़रूरत है। समाचारपत्रोंमें लेख प्रकाशित करना, कराना, सफलताके दूसरे उपाय सोचना, सुझाना, जगह जगहसे सहियाँ कराके भेजना, आदि और भी बहुतसे करने योग्य काम हैं। जिससे जो बने उसे वही करना चाहिए। यह एक ऐसा मामला हैं जिससे संसार जानेगा कि हम अपने भाइयोंकी रक्षाके लिए भी कुछ कर सकते हैं या नहीं ।
४ धर्मशास्त्रोंके गभीर अध्ययनकी आवश्यकता।
दूसरे समाजोंकी अपेक्षा जैनसमाजमें धार्मिक श्रद्धा बहुत अधिक है और इस कारण धर्मग्रन्थोंके पठनपाठनकी परिपाटी जितनी अधिक जैनसमाजमें है उतनी शायद ही किसी समाजमें हो। जैनसमाजका अधिक भाग पढ़ने लिखनेका--ज्ञानोपार्जन करनेकाअर्थ, धर्मशास्त्रोंके पढ़नेके सिवाय और कुछ नहीं समझता । जैन
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जैनहितैषी
शास्त्रोंके बाहर और भी कुछ ज्ञान है, इस बातका अस्तित्व ही मानों उसके विश्वासमें नहीं है । जैनोंकी पाठशालाओंमें, विद्यालयोंमें, उपदेशकसभाओंमें, बैठकों में, जहाँ देखिए वहाँ ही धर्मशास्त्रोंके सिवाय दूसरी बात नहीं । इतना होने पर भी हम देखते हैं कि इस समय धर्मग्रन्थोंके जिन भीतरी रहस्योंकी-मर्मस्थानोंकी थाह लेनेकी आवश्यकता है उनका ज्ञान जैनसमाजके बहुत ही कम विद्वानोंको है । केवल ऊपरी बातोंमें, तोते जैसी रटन्तमें, चर्वितचर्वणमें ही लोग फंसे रहते हैं, शास्त्रोंके भीतर गहराईमें जानेकी मस्तक लड़ानेकी ओर किसीका ध्यान ही नहीं है । जो पुराने ढंगके केवल संस्कृतके पण्डित हैं और जिन्हें यथेष्ट अवकाश है न वे ही कुछ परिश्रम करते हैं और न अँगरेजीकी ऊँची शिक्षा, पाये हुए बाबू लोगोंका ही इस ओर ध्यान है। बाबू लोगोंका प्रमाद तो इस विषयमें बहुत ही बढ़ा चढा है । धर्मशास्त्रोंकी साधारण बातोंका ज्ञान भी उनमेंसे बहुत कम लोगोंमें देखा जाता है । वे जैनसमाजमें काम तो करना चाहते हैं; पर उनसे काम होता नहीं। जैनसमाजके विश्वासोंकी रचना ही कुछ ऐसी है कि उसमें धार्मिक ज्ञानके बिना कोई काम नहीं कर सकता और इस कारण उन्हें निराश होकर बैठ रहना पड़ता है। ___ इस समय जैनधर्मके तत्त्वोंका जैनेतरोंमें प्रचार करनेके लिए भी सभी लोग लालायित हैं । पण्डितमण्डली देशमें और बाबू मण्डली विदेशोंमें जैनधर्मका प्रचार करना चाहती है। इसके लिए कुछ संस्थायें भी स्थापित हो चुकी हैं, परन्तु हमारी
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समझमें इस कार्य में तब तक सफलता नहीं हो सकती, जब तक कि जैनधर्मका अच्छी तरह अध्ययन न किया जाय । स्वाध्याय की प्रतिज्ञा पालनेके लिए अथवा स्वाध्यायका पुण्य सम्पादन करने के लिए किसी ग्रन्थके दो चार पृष्ठ पढ़ लेना दूसरी बात है और अध्ययन करना दूसरी बात है | परीक्षायें पास कर लेनेसे भी कोई जैनधर्मका विद्वान् नहीं हो सकता। इसके लिए बड़े भारी परिश्रमकी दरकार है। किसी एक ग्रन्थका मर्म हृदयंगम करनेके लिए दूसरे बीसों ग्रन्थोंके देखने की जरूरत होती है - केवल उस एक ग्रन्थकी टीकामे ही काम नहीं चल जाता । जब एक ग्रन्थकर्ता एक विषयको एक प्रकार से कहता है और दूसरा उसी विषयको कुछ और प्रकारसे कहता है, तब यह पता लगानेकी ज़रूरत होती है कि इसका कारण क्या है । हमारे यहाँ पुराणग्रन्थों के पढ़नेवाले हजारों लाखों हैं, वे हमेशा देखते हैं कि उत्तरपुराणकी बीसों बातें हरिवंश और पद्मपुराणसे नहीं मिलती हैं । प्रद्युम्नचरित के कर्त्ता कुछ और कहते हैं, हरिवंशके कर्त्ता कुछ और कहते हैं । पर क्या कभी किसीने यह जानने के लिए कुछ विशेष परिश्रम किया है कि इन ग्रन्थोंमें अन्तर होनेका वास्तविक कारण क्या है और इसका मूल कहाँसे है । पता लगाना तो कठिन कार्य है यह भी प्रयत्न नहीं किया गया कि जिन जिन बातों में अंतर है उनकी एक सूची ही बना कर प्रकाशित कर दी जाती । जैनेतर विद्वानोंमें इसप्रकार के प्रयत्न करनेवाले बीसों विद्वान् हैं । स्वर्गीय बाबू बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्यायका ' श्रीकृष्णचरित ' जिन्होंने पढ़ा है वे जानते हैं कि गंभीर अध्ययन
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किसे कहते हैं | इस ग्रन्थके तैयार करनेमें बाबू साहबने गजबका परिश्रम किया है । समग्र महाभारत, भागवत, विष्णुपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, हरिवंशपुराण, आदि ग्रन्थोंका अनेक बार स्वाध्याय अध्ययन और मनन करके यह छोटासा ग्रन्थ बनाया गया है । श्रीकृष्णकी वर्तमान सहचारिणी राधिका — जिसके बिना आजकलके समयमें श्रीकृष्णकी गति ही नहीं है परन्तु महाभारतमें जिसका जिक तक नहीं है— कहाँसे आई, इसके विषयमें जो खोज बाबू साहबने की है वह बड़ी ही कीमती है। महाभारतकी लोकसंख्या इससमय लगभग एक लाख है; परन्तु जिससमय यह बना है, उस समय सिर्फ पच्चीस हज़ार था । इसके सिद्ध करनेमें बड़ी ही गहरी छानबीन की गई है और उसमें बाबू साहबने पूरी सफलता प्राप्त की है । दूसरे विद्वान् इस तरहके सैकड़ों प्रयत्न कर रहे हैं और बतला रहे हैं कि अध्ययन करना किसे कहते हैं। क्या इस तरहके प्रयत्नोंकी हमारे यहाँ आवश्यकता नहीं है ? केवल इतना कहदेने से अब काम नहीं चल सकता कि “ आचार्योंका मतभेद है, वास्तविक बात तो केवली भगवान् ही जान सकते हैं । " परिश्रम करनेसे उक्त मतभेदोंका बहुत कुछ पता लग सकता है । हरिवंश और उत्तरपुराणके मतभेदोंका रहस्य जानने के लिए, प्राकृत हरिवंश, प्राकृत महापुराण, श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचन्द्रका त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित, पाण्डवपुराण, महाभारत, हरिवंश, भागवत, विष्णुपुराण आदि बीसों ग्रन्थोंके अध्ययनकी ज़रूरत है । इसी तरह पद्मपुराण और उत्तरपुराणमें जो अन्तर है उसके लिए इस कथासम्बन्धी समस्त श्वेताम्बर - दिगम्बर
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ग्रन्थोंके सिवाय वाल्मीकि रामायण, बौद्धजातक आदि ग्रन्थोंका भी स्वाध्याय करना चाहिए ।
यह बात हम केवल कथाग्रन्थोंके विषयमें ही नहीं कह रहे हैं। द्रव्यानुयोग अध्यात्म आदिके ग्रन्थों का भी इसी तुलनात्मक पद्धति से अध्ययन करनेकी आवश्यकता है । इससे सैकड़ों नई नई बातोंका पता लगेगा | श्वेताम्बरी ग्रन्थोंका भी हमें अध्ययन करना चाहिए और उन बातों पर विचार करना चाहिए जिनके विषयमें दोनोंका मतभेद है । ऐसा करनेसे केवल ज्ञान ही न बढ़ेगा बल्कि बहुत से मतभेदोंका मूल भी मालूम हो जायगा ।
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हम आशा करते हैं कि हमारे समाज के पण्डित महाशय और बाबू साहब दोनों ही इस ओर ध्यान देंगे और जैनधर्मका गभीर अध्ययन करके उसके फलसे जैनसाहित्यका, जैनसमाजका और अपने देशका कल्याण करने में तत्पर होंगे । यह स्मरण रखना चाहिए कि केवल धर्म धर्म कहने से धर्मकी प्रभावना नहीं होगी, इसके लिए सब ओरोंसे प्रयत्न होना चाहिए ।
५ अरबी साहित्य में हिन्दू जातिकी प्रतिष्ठा । अरबी भाषाका साहित्य किसी समय बहुत बढ़ा चढ़ा था। बड़े बड़े विद्वान् लेखकोंने उसके साहित्यको पुष्ट किया है। संस्कृतके पचासों ग्रन्थोंके अनुवाद अरवी भाषामें मिलते हैं। उंदलस देशके साअद नामके बहुश्रुत पण्डितका बनाया हुआ ' तबकातुल उमम' अर्थात् 'मनुष्य जातिका वृत्तान्त' नामक ग्रन्थ है । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ मुंशी देवीप्रसा
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दनी ( जोधपुर ) हिन्दी चित्रमयजगत् ' में प्रकट करते हैं कि उक्त ग्रन्थमें पृथ्वीकी जिन आठ विदुषी जातियोंके नाम बतलाये हैं, उनमें हिन्दूनातिका नम्बर सबसे पहला है। हिन्दुओंका परिचय देते हुए पण्डितवर साअद कहते हैं कि " हिन्दू परमेश्वरको एक और अद्वितीय मानते हैं और उसीको पूजने तथा आराधना करनेके योग्य जानते हैं । ऐसी ज्ञान और विवेकमयी निष्ठा और आस्थाओंके देखते हुए वे पृथ्वी भरकी अच्छीसे अच्छी जातियोंमें गिने जाने योग्य हैं । इनमें दो प्रकारके लोग हैं । एक ब्राह्मण और दूसरे वे जो ब्राह्मण नहीं ( श्रमण ? ) हैं । ब्राह्मण विद्वान् और ज्ञानविज्ञानवाले हैं । परमेश्वरको कर्त्ता मानते हैं, सृष्टिको अनादि नहीं मानते-और प्रलयको भी सच जानते हैं। उनके धर्ममें जीवहिनाका निषेध है और प्राणिमात्रको दुःख देना महापाप है । जो ब्राह्मण नहीं हैं वे ऋषियोंको अनदि मानते हैं और परमेश्वरको अकर्ता कहते हैं। उनके मतमें कर्म प्रधान है । आगे उक्त विद्वान्ने हिन्दुओंकी सभ्यता, विद्वत्ता, रीतिनीतिकी भूरिभूरि प्रशंसा की है। ब्राह्मणेतर लोगोंसे जान पड़ता है उसका मतलब जैनों या श्रमणोंसे है । क्योंकि जैन ही ईश्वरको अकर्ता और कर्मोंकी प्रधानता माननेवाले हैं । ऋषियों या तीर्थकरोंको वे अनादिकालसे मानते ही हैं । इस विद्वान्ने जो अविद्वान् या मूर्खजातियाँ गिनाई हैं उनमें सबसे पहला नम्बर फिरंगियों या यूरोपवालोंका बतलाया है और उन्हें पशुओंके समान जड़जीव और बहुत ही दुःशील कह। है ! देखिए कालचक्रकी गति ! आज वही यूरोपवाले सभ्यशिरोमणि
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और हिन्दू जड़जीव बन रहे हैं ! कितना बड़ा उलट फेर हो गया ! कालिदासका यह वाक्य याद आता है:
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नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा कालनेमिक्रमेण । 1
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६ कातंत्र व्याकरणका विदेशों में प्रचार |
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कातंत्र या कलाप संस्कृतका बहुत हो प्रसिद्ध व्याकरण है । यह अपने समयका इतना सरल व्याकरण था कि इसका प्रचार सारे भारतवर्ष में हो गया था । उस समय सारे देशमें इसी व्याकरणका पठन पाठन होता था । इस व्याकरण भारत के बाहर विदेशों में भी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी, इसका पता अभी हाल ही लगा है। मंध्यएशिया में पुरातत्त्वसम्बन्धी बड़ी महत्वकी खोजें हो रही हैं । वहाँ जमीनके भीतर से प्राचीन कूचा नामक राज्यका पता लगा है । उसमें जो प्राचीन साहित्य मिला है उससे मालूम हुआ है कि उस समय वहाँ बौद्ध धर्मके अनेक मठ थे और उनमें संस्कृत पढ़ानेके लिए कातंत्रव्याकरणका उपयोग किया जाता था । इससे पाठक समझ सकते हैं कि कातंत्र व्याकरणकी प्रसिद्धि कितनी और कहाँ तक हुई थी । कथासरित्सागर में कातंत्र के सम्बन्धमें एक कथा लिखी है | उससे मालूम होता है कि यह व्याकरण महाराज शालिवाह्न (शक ) के पढ़ाने के लिए उनके मंत्री शर्व - वर्माने बनाया था । जैनोंका विश्वास है कि शर्ववर्मा जैन थे; परन्तु इस विषय में अभीतक कोई संतोषयोग्य निर्णय नहीं हुआ है।
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_७ जीवदयाज्ञानप्रसारक भण्डार । ___ बम्बईमें इस नामकी एक बड़ी ही अच्छी संस्था है । सन् १९१० में इसकी स्थापना हुई थी। " श्रीयुत सेठ लल्लूभाई गुलाबचन्दनी जौहरी, सराफबाजार बम्बई नं० २" इसके अवैतनिक प्रबन्धकर्ता हैं । आप श्वेताम्बर जैन हैं । संस्थाका मुख्य उद्देश्य जीवदयासंबंधी ज्ञानका प्रचार करना है। इस उद्देश्यके अनुसार वह पशुवधको रोकती है, मांसाहारकी हानियाँ बतलाकर लोगोंको शाकाहारी बनात है, और इसके लिए जुदा जुदा भाषाओंमें पुस्तकें पेम्फलेट ट्रेक आदि छपाकर मुफ्तमें वितरण करती है। इसका जो परिचयपत्र हमारे पास आया है उससे मालूम होता है कि संस्थाने पछले चार वर्षोंमें अपने प्रयत्नमें आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की है। उसके प्रयत्नसे लाखों जीवोंकी रक्षा हुई है, हजारों मनुष्य शाकाहारी बन गये हैं और सैकड़ों सज्जनोंने संस्थाके कामसे सहानुभूति प्रकट की है। बड़ोदा महाराजने अपने राज्यके १३०० ग्रामोंमें दशहरे पर जो पशुवध होता था उसे इसी संस्थाके प्रयत्नसे सर्वथा बन्द कर दिया है । दूसरे भी कई राज्योंमें उसे सफलता मिली है।
और तो क्या उसने सुदूर जापानमें भी अपने पवित्र कार्यकी सिद्धके । लिए प्रयत्न किया था जिसके फलसे जापान सरकारने अपनी प्रकट की हुई आरोग्यवर्द्धक नियमावलीका दूसरा नियम इन शब्दोंमें लिखा है-" ऐसा प्रयत्न करो जिससे उत्तम अनाज, फल, शाक, और गायका ताजा दूध ये तुम्हारे नित्यके खानेकी चीजें बन जावें । मांस सर्वथा मत खाओ । गायका दूध जितना अधिक बन सके काममें
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लाओ और अन्नको खूब चबाकर गले उतारो।" संस्थाकी ओरसे जुदा जुदा भाषाओंमें अबतक पचासों ट्रेक्ट छप चुके हैं । केवल रेलखर्च या डाकखर्च देकर प्रत्येक ट्रेक्टकी चाहे जितनी प्रतियाँ चाहे जो वितरण करनेके लिए मँगा सकता है । कई ट्रेक्ट हिन्दीमें भी हैं । संस्था जैनधर्मके मुख्य उद्देश्य जीवदयाको लेकर ही काम कर रही है, धर्मसम्बन्धी दूसरी बातोंसे वह कोई सरोकार नहीं रखती । उसके साहित्यमें किसी खास धर्मकी बुराई भलाईका एक अक्षर भी नहीं मिलसकता और इस कारण उसकी पुस्तकोंको प्रत्येक धर्मके मनुष्य प्रसन्नतासे पढ़ सकते हैं। उसकी यह कार्यप्रणाली अच्छी और अनुकरणीय है । हम अपने पाठकोंसे आग्रहपूर्वक निवेदन करते हैं कि वे इस संस्थाके उद्देश्योंके प्रचारमें हर तरह सहायता करें, उसके साहित्यका प्रचार करें और बन सके तो कुछ द्रव्यसे भी सहायता करें ।
८ महात्मा गोखलेका स्वर्गवास । भारत माताके सुपूत माननीय महात्मा गोखलेका ता० १९ को पूनामें हृद्रोगसे एकाएक स्वर्गवास हो गया । मृत्युके समय उनकी अवस्था ४९ वर्षकी थी। वे केवल भारतवर्षके ही नहीं संसारके एक प्रकाशमान रत्न थे। निःस्वार्थवृत्तिसे देशकी एकनिष्ठ सेवाकरनेवालोंमें उनका आसन सबसे ऊँचा था । एक दरिद्र ब्राह्मणके कुलमें उत्पन्न होकर उन्होंने उच्चश्रेणीकी विद्या सम्पादन की थी। उनके कुटुम्बीजन इस आशामें थे कि अब वे अपने ऊँचे ज्ञानके बलसे धनी बन जावेंगे; परन्तु उन्होंने ज्ञानका फल धन नहीं समझा, वे
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उस धनके कमानेमें लग गये जिससे कि इस समय उनकी कीर्ति दिग्दिगन्तव्यापिनी हो रही है। उनका धर्म, धन, सुख जो कुछ था. सो एक भारतवर्ष था । भारतके ही कल्याणकी वांछा करते हुए उनकी जीवनलीला समाप्त हुई । आज सारा भारतवर्ष उनके वियोगसे शोकाकुलित हो रहा है । वीस हज़ारसे भी अधिक मनुष्य उनकी स्मशानयात्रामें गये थे! इससे पाठक समझ सकते हैं कि वे किस श्रेणीके महात्मा थे । देशका शायद ही कोई नगर होगा जहाँ उनका शोक न मनाया गया हो । विदेशोंमें भी उनके लिए शोकसभायें हुई हैं। वे राजा और प्रजा दोनोंके प्यारे ' नृपतिजनपदानां दुर्लभः कार्यकर्ता' थे । उनका जीवनचरित बड़ा ही शिक्षाप्रद है। यदि देशके नवयुवक म० गोखलेका अनुकरण करके देशकी निष्काम सेवा करना सीखें तो भारतके सुखी समृद्ध होनेमें बहुत देर न लगे।
९ माणिकचन्द्र जैन-ग्रन्थमाला। स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्द हीराचंदजी जे. पी. के स्मारक-फण्डसे जो ग्रन्थमाला निकालनेका निश्चय किया गया था उसका काम प्रारंभ हो चुका है । एक ग्रन्थके दो फार्म छपभी चुके हैं। दूसरे ग्रन्थोंके सम्पादनका प्रबन्ध हो रहा है; आशा है कि पहले ग्रन्थके तैयार होनेके पहले ही दूसरा प्रेसमें पहुँच जायगा। इस कार्यकी ओर जैनसमाजको ध्यान देना चाहिए। इसके सब ग्रन्थ लागतकी कीमत पर बेचे जावेंगे । धर्मात्माओंको इसके प्रत्येक ग्रन्थकी सौ सौ पचास पचास प्रतियाँ बाँटनेके लिए. लेनेकी आज्ञा भेज देना चाहिए।
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श्रीमान् पण्डित अजुनलाल सेठी, बी. ए., डाइरेक्टर, भारतवर्षीय जैनशिक्षाप्रचारक समिति ..
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अर्जुनलालजीका जन्म जयपुर नगरमें सन् १८८० में हुआ था। आपके पिताका नाम
लाला जवाहरलालजी सेठी था। महाराजा ANS... जयपुरने उन्हें ठाकुर गोविन्दसिंह जागीरदारका अभिभावक और शिक्षक नियत किया था; अन्ततक वे यही काम करते रहे। ___ अर्जुनलालजीने सन् १९०२ में जयपुर कालेजसे प्रयाग विश्वविद्यालयकी बी. ए. की डिग्री प्राप्त की। कालेनमें पढ़ते समय ये प्राइवेट तौरसे जैनधर्मके ग्रन्थोंका भी अध्ययन किया करते थे और इस कार्यमें इन्हें पं० चिम्मनलालजी जैनवैद्यसे बहुत सहायता मिलती थी । संस्कृतका ज्ञान भी इन्हें इन्हींसे प्राप्त हुआ था।
विद्यार्थी अवस्थामें ही सेठीजीको देशसेवा और समाजसुधारके कामोंसे बहुत प्रेम था। अपने देशकी, धर्मकी और समाजकी गिरी हुई अवस्था पर तो इन्हें बड़ा ही दुःख होता था। इस विषयमें वे निरन्तर ही विचार किया करते थे । सारी अवनतियोंका कारण उन्हें शिक्षाका अभाव ही जान पड़ता था। उन्हें विश्वास हो गया था कि यदि देशमें शिक्षाका प्रचार होगा-निरक्षरों और अज्ञानियोंकी संख्या घट जायगी तो देशकी प्रगति होनेमें जरा भी विलम्ब न लगेगा। पर वे यह जानते थे कि यह कार्य केवल
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सरकारकी सहायतासे नहीं हो सकता; इसके लिए देशवासियोंको स्वयं प्रयत्न करना चाहिए । विशेष करके शिक्षितोंका ध्यान इस ओर जाना चाहिए। शिक्षाप्राप्तिका फल केवल धन कमाना या औरों पर हुकूमत करना नहीं है। जिस शिक्षासे मनुष्य केवल अपना ही स्वार्थसाधन करता है उसे शिक्षा कहना 'शिक्षा' का अपमान करना है । शिक्षितोंको स्वार्थत्याग करना चाहिए और अपने भाईयोंको शिक्षित बनानेमें अपनी सारी शक्तियाँ लगा देना चाहिए। ___ सरकारी स्कूलोंकी शिक्षाके विषयमें उन्हें यह धारणा हो गई थी कि उनमें आचरणके सुधारनेकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता, नैतिक बलको उत्तेजन नहीं दिया जाता, देखने और विचारनेकी शक्तिका गला घोंट दिया जाता है और विद्यार्थी केवल पुस्तकोंके दास बन जाते हैं। धर्म जो मनुष्यत्वका भूषण है उसकी ओरसे तो वे बहुत ही विरक्त हो जाते हैं। इसलिए सरकारी शिक्षापद्धतिका अनुकरण न करके हमें अपना शिक्षाक्रम बनाना चाहिए और उसके अनुसार शिक्षा देनेवाली स्वतंत्र संस्थायें हमारे देशवासियोंको स्थापित करना चाहिए।
ऐसी शिक्षासंस्थायें यदि जुदा जुदा जातियों या समाजोंकी ओरसे स्थापित की जायँगी तो वे अच्छा काम कर सकेंगी; उनकी ओर जुदा जुदा जातियोंका विशेष प्रेम होगा और वे उनकी उन्नतिमें तनमनधनसे सहायता करेंगी। कमसे कम देशकी वर्तमान अवस्थामें तो वे इस प्रकारके जुदा जुदा प्रयत्नोंको बहुत लाभकारी समझने लगे।
कालेज छोड़ने पर तो सेठीजीके मस्तकमें ये बातें रातदिन
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चक्कर लगाने लगीं। उनका चित्त निरन्तर व्याकुल रहने लगा। अपने आगामी जीवनको कर्तव्यपरायण बनानेके लिए वे प्रतिदिन नई नई मानसिक स्कीमें गढ़ने लगे।
उनकी स्वार्थवासनायें बहुत ही दुर्वल थीं, इस लिए वे नहीं चाहते थे कि शिक्षाके प्राप्तिके लिए मैंने जो अश्रान्त परिश्रम किया है और शरीरको अतिशय क्षीण कर डाला है,उसका बदला मैं केवल धन कमाकर और भोगसामग्रियाँ प्राप्त करके लूँ। उनके हृदयपट पर जो बड़े बड़े स्वार्थत्यागी महात्माओंके चरित्र लिखे हुए थे वे उन्हें परोपकारके मार्गका यात्री बनानेके लिए ही प्रेरणा करते थे। यद्यपि नौकरीसे उन्हें बहुत ही घृणा थी; परन्तु अपने पिताके द्वारा बहुत मजबूर किये जाने पर-पिताकी आज्ञाका उल्लंघन करना अच्छा न समझकर उन्हें लाचार होकर नौकरीके लिए राजी होना पड़ा। पहले वे जयपुरमहाराजकी कोंसिलमें 'एपेंटिस' नियत हुए । इसके बाद उन्हें रेजीडेंसीमें काम मिला और इस कामको उन्होंने दो महीने तक किया। इसी समय इनके पिताका देहान्त हो गया. और तब ये उन्हीं जागीरदारके-जिनके यहाँ इनके पिता नियुक्त थे-प्राइवेट सेक्रेटरी नियुक्त हो गये ।
इस पदको प्राप्त हुए थोड़ा ही समय व्यतीत हुआ था कि सेठी. जीको मथुराके जैन महाविद्यालयकी उन्नतिका आन्दोलन सुन पड़ा। उनके हृदयकी तलीमें जो शिक्षाप्रचारके भाव जमे हुए थे और जो विचार उन्हें निरन्तर ही चिन्तित बनाये रखते थे अब उनका रोकना कठिन हो गया। इस बीचमें उन्हें जैनधर्म और जैनसमाजकी दुरवस्थाका
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भी बहुत कुछ परिचय हो गया था और इस कारण वे यह चाहते लगे थे कि मैं अपने कार्यका क्षेत्र जैनसमाजको ही बनाऊँ । इस अवसरको हाथसे जाने देना उन्होंने उचित नहीं समझा और सन् १९०५ में अपनी नौकरीसे स्तीफा दे दिया । इस समय ठाकुरसाहबने उन्हें बहुत समझाया-आग्रह भी किया, पर वह सब निष्फल हुआ। ___ अब सेठीजीने जैनधर्म और जैनसमाजकी सेवाके लिए अपन जीवन अर्पण कर दिया । धन कमा करके भोगविलासके साधन इकट्ठा करनेकी-राजकीय प्रतिष्ठा प्राप्त करनेकी और उठती जवानीकी अन्यान्य सारी वासनाओंको संकुचित करके उन्होंने समाजसेवाकी दीक्षा ले ली और यह उस समय जब कि जैनसमाजमें इस तरहके स्वार्थत्यागकी न तो चर्चा ही थी और न प्रतिष्ठा । अपने भाइयोंकी भलाईके लिए दिनरात अश्रान्त परिश्रमके सिवाय इस स्वार्थत्यागका और कोई ऐहिक फल पानेकी उस समय आशा न थी । इस मार्गमें अनेक विघ्न उपस्थित हुए; परन्तु सेठीजीने उनकी जरा भी परवा न की । सुनते हैं कि अपनी धुनमें उन्होंने अपनी पैतृक सम्पत्ति तकको तुच्छ समझा और अपना हक छोड़कर उसे अपने भाईको ही सोंप दिया । सेठीजीके इस स्वार्थत्यागका महत्त्व वे लोग समझ सकेंगे जिन्होंने सब तरहकी योग्यतायें प्राप्त करके अभी अभी आशामय संसारमें पैर बढ़ाया है और कभी एकान्तमें बैठकर अपनी असीम आशाओंको मर्यादित करनेका थोडासा भी प्रयत्न किया है।
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सेठीजी नौकरी छोड़कर जैनमहाविद्यालयके डेप्यूटेशनमें आकर शामिल हुए । इस डेप्यूटेशनमें साहु जुगमन्दरदासजी, लाला बद्रीदासजी, बाबू शीतलप्रसादजी आदि अनेक सज्जन थे। सेठीजीकी अनेक शहरोंमें अच्छी जोरदार अपीलें हुई और उनका फल भी अच्छा हुआ । लगभग १५ हजार रुपये विद्यालय फण्डको मिल गये ।
इसके बाद सेठीजी जैनमहाविद्यालय मथुराके आनरेरी अध्यक्ष नियत हुए । जब विद्यालय सहारणपुर चला गया, तब वहाँ भी वे गये । लगभग एक वर्ष तक उन्होंने विद्यालयकी सच्चे हृदयसे सेवा की। उस समय जैनमहासभा के कार्यकर्ताओं में मतभेद बहुत बढ़ गया था । समाचारपत्रोंमें एक दूसरेके विरुद्ध लेख प्रकाशित हो रहे थे । इससे तथा और भी कई कारणोंसे सेठीजी विद्यालय से अलग हो गये और १९०६ में अपने घर जयपुर लौट गये ।
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अब उनकी इच्छा एक स्वतंत्र संस्था स्थापित करनेकी हुई और थोड़े ही दिनों में उन्होंने अपने कई मित्रोंकी सहायतासे 'जैनशिक्षा
प्रचारक समिति' नामकी संस्था खोल दी । इस संस्थाकी उन्होंने आश्चर्यजनक उन्नति की और कुछ समयके बाद उसे Jain | Educational Society of India के रूपमें परिवर्तित कर दिया । समिति जिस प्रणाली से काम करती थी और जो काम कर रही थी इसका जिन लोगोंको परिचय है वे ही जानते हैं कि सेठीजी किस श्रेणी मनुष्य हैं और जैनसमाजके लिए उन जैसे पुरुषोंकी कितनी अधिक अवश्यकता है । पाठक यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि
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जैनशिक्षाप्रचारक समितिने अपने पिछले वर्षों में प्रतिवर्ष १२०००)। बारह हज़ार रुपयेके हिसाबसे खर्च किया है ! इतनी बड़ी रकम कहाँसे आती थी ? न सेठीजीके पास कोई स्थायी फण्ड था और न उनका कोई धनी सहायक था । यदि कुछ था तो असाधारण साहस, दृढ प्रतिज्ञा और अश्रान्त परिश्रम करनेकी शक्ति । जैनसमाजका कोई मेला, कोई जल्सा कोई उत्सव और कोई प्रतिष्ठा ऐसी न होती थी जिसमें सेठीजी न जाते हों और कुछ न कुछ चन्दा एकत्र करके न लाते हों। इस कार्यके लिए एक एक पैसा माँगनेमें भी उन्हें संकोच न होता था। उनकी अपील बड़ी जोरदार होती थी। श्रोताओंके कड़ेसे कड़े हृदय भी उनकी हृदयद्रावक वाणीसे पिघल जाते थे। उनके कई मित्र भी उन्हीं जैसे थे। वे जयपुर शहरमेंसे चन्दा वसूल करते थे। कई सज्जनोंने तो यह प्रतिज्ञा ले रक्खी थी कि जिस दिन समितिको कमसे कम एक रुपया कहींसे माँगकर न ला देंगे, उस दिन एक वारका भोजन या कोई एक रस छोड़ देंगे !
समितिके कार्योंके कई विभाग थे। परीक्षाविभागके द्वारा समिति अपने निर्वाचित पठनक्रमके अनुसार जयपुर शहरकी और बाहरकी जैन पाठशालाओंकी परीक्षा लेती थी । जो विद्यार्थी परीक्षामें उत्तीर्ण होते थे उन्हें पारितोषिक और मासिक वृत्तियाँ भी दी जाती थीं। परीक्षाके प्रश्नपत्र समिति बड़े बड़े विद्वानोंसे तैयार करवाती थी, जो विद्यार्थियोंकी योग्यताकी जाँचके लिए बहुत ही अच्छे होते थे।
पुरुषशिक्षाविभाग और स्त्रीशिक्षाविभागकी अधीनतामें समितिने
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जयपुरमें कुछ विद्यालय और कन्या पाठशालायें स्थापित कर रक्खी थीं। इन सबमें समितिके पठनक्रमके अनुसार पढाई होती थी । बारह हज़ार वार्षिक खर्चमेसे अधिकांश रुपया इन्हीं पाठशालाओंके काममें खर्च होता था। __ 'श्रीवर्द्धमानजैनविद्यालय ' समितिका आदर्श विद्यालय था । इसमें लगभग २०० विद्यार्थी शिक्षा पाते थे। विद्यालयके साथ एक छात्रालय भी था जिसमें दूर दूरसे आये हुए लगभग ५० विद्यार्थी रहते थे । विद्यार्थियोंको शारीरिक मानसिक और धार्मिक तीनों प्रकारकी शिक्षायें दी जाती थीं। शिक्षापद्धतिके सम्बन्धमें सेठीजीका ज्ञान और अनुभव बहुत ही बढ़ा चढ़ा है । उन्होंने यूरोप, अमेरिका, जापान आदि सारे उन्नत देशोंकी शिक्षाप्रणालीका अध्ययन और मनन किया है । इस विषयके बहुत ही कम ग्रन्थ होंगे जो उन्होंने न पढे हों । उन्होंने कांगडी, ज्वालापुर, वृन्दावन आदिके गुरुकुल, तथा रवीन्द्रबाबूका शान्तिनिकेतन, आदि एतद्देशीय आदर्श विद्यालयोंका अच्छी तरह अवलोकन किया है तथा उनकी शिक्षापद्धति पर विचार किया है । वे स्वयं भी एक अच्छे शिक्षक हैं । इससे पाठक जान सकते हैं कि उनके विद्यालयका पठनक्रम और पठनप्रणाली कितनी अच्छी होगी । वे अपने विद्यालयमें एक भी अध्यापक ऐसा न रखते थे जो शिक्षापद्धतिका जानकार न हो। अध्यापकोंको वे स्वयं शिक्षा देनेकी पद्धति बतलाते थे।
विद्यालयमें संस्कृत, अँगरेजी और हिन्दी तीन भाषाओंकी शिक्षा सहजसे सहज पद्धतिके द्वारा दी जाती थी। जैनधर्मकी शिक्षाकी
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जैनहितैषीmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ओर तो बहुत ही अधिक लक्ष्य दिया जाता था । जैनधर्मके मूलभूत कर्मसिद्धान्तका ज्ञान वे छोटेसे छोटे बच्चोंको इतना अच्छा कर देते थे कि सुननेवाले आश्चर्य करते थे । विद्यालयकी अन्तिम श्रेणीके विद्यार्थियोंकी योग्यता अँगरेज़ीमें इतनी अच्छी हो जाती थी कि वे कुछ ही समय तक प्राइवेट परिश्रम करके मैट्रिकमें भरती हो जाते थे । संस्कृतमें उनकी प्रवेशिकासे भी अच्छी योग्यता हो जाती थी
और हिन्दी साहित्यके तो वे बहुत अच्छे जानकार हो जाते थे उनके कई विद्यार्थी हिन्दीके अनेक पत्रोंमें लेख लिखते थे और कोई कोई तो कविता भी कर सकते थे । हिन्दीके सेठीजी अनन्र भक्त हैं । इस विषयमें वे अपने विद्यार्थियोंका खास तौरसे उत्साह बढ़ाते थे। हिन्दीका उन्होंने खास तौरसे अध्ययन किया है । यद्यपि उन्हें समय बहुत ही कम मिलता था, तो भी उन्होंने हिन्दीमें कई पुस्तकें लिखी हैं जो अभीतक प्रकाशित नहीं हुई हैं । वे अच्छे लेखक हैं । कविताका भी उन्हें अभ्यास है । उनका बनाया हुआ — महेन्द्रकुमार नाटक ' गद्यपद्यमय है और बहुत ही सुन्दर है।
विद्यालयमें गणित, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, पदार्थविज्ञान, चित्रकारी आदि सब विषय पढाये जाते थे और इतिहासादि कई विषयोंकी पढ़ाई तो उनकी बहुत ही अच्छी होती थी। उनकी शिक्षाका क्षेत्र बहुत ही विशाल है । वे यह नहीं चाहते कि जैनविद्यार्थी किसी संकर्णि परिधिके भीतर कैद कर दिये जावें और वे संसारके विशाल ज्ञानसे वंचित रहकर अंधश्रद्धालु बन जावें। विद्यालयमें जितने कार्यकर्ता थे वे प्रायः अल्पवेतन लेकर काम
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करनेवाले या अवैतनिक थे। उनके विचारोंका विद्यार्थियों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता था। वे उनके चरित्रसे यह सीखते थे कि मनुप्यका सबसे बड़ा कर्तव्य समाज और धर्मकी निःस्वार्थ होकर सेवा करना है।
सेठीजीका धार्मिक ज्ञान बहुत ही बढा चढा है । जैनधर्मके गोम्मटसार, कर्मग्रन्थ आदि सिद्धान्तोंका उन्होंने इतना अच्छा अध्ययन और मनन किया है कि जैनसमाजमें उनकी जोड़का एक भी ग्रेज्युएट नहीं है । जैनधर्मकी सैद्धान्तिक चर्चामें ऐसा शायद ही कोई दिन हो जब उनके दो तीन घंटे न जाते हों । उनकी शंकाओंका समाधान करना बड़े बड़े विद्वानोंके लिए भी कठिन जाता है । जैनधर्मका. हृदय क्या है यह वे जानते हैं। उन्होंने श्वेताम्बरशास्त्रोंका भी एक यति महाशयके पास अच्छा अध्ययन किया है। जैनधर्मकी शिक्षाको वे बहुत ही आवश्यक समझते हैं।
जैनधर्मके वे केवल ज्ञाता ही नहीं हैं, उसका आचरण भी पूर्णतया करते हैं। अभी कुछ दिन पहले जेलखानेमें जिन-दर्शन न मिलनेसे उन्होंने आठ दिन तक भोजन न किया था।
जैनसमाजके बीसों ग्रेज्युएटोंका ध्यान उन्होंने जैनधर्मके अध्ययनकी ओर आकर्षित किया है और उन्हें समझाया है कि अपने इस रत्नाकरको देखो, इसमें अवगाहन करो; तुम्हें वह शान्ति मिलेगी जो और कहीं भी नहीं मिल सकती है। ___ स्त्रीशिक्षाविभागकी ओरसे सरस्वती कन्यापाठशाला और पद्मावती कन्यापाठशाला दो पाठशालायें स्थापित हैं और उनमें समितिके
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पठनक्रमके अनुसार हिन्दी, भूगोल, गणित, गृहकार्य और धर्मकी शिक्षा दी जाती है ।
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समितिका एक पुस्तकालय भी है । उसमें हिन्दीकी तथा अँगरेजी आदिकी कई हज़ार पुस्तकें संग्रह हैं । इससे जैन अजैन सब एक सा लाभ उठाते थे। जयपुरका प्रसिद्ध हिन्दी पुस्तकालय ' नागर्र भवन' समितिको ही मिल गया था ।
प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंका संग्रह और उद्धार करनेके लिए भी एक विभाग स्थापित किया गया था और उसके द्वारा जयपुर समस्त भंडारोंकी सूची तैयार कराई गई थी; परन्तु आगे कोई योग्य कार्यकर्त्ता न मिलनेके कारण यह काम बन्द कर दिया गया
विद्यार्थियोंको व्याख्यान देना भी सिखलाया जाता था । उनके सामने अच्छे अच्छे व्याख्यान होते थे, जिससे वे अपने चरित्रको उदार उन्नत और धर्ममय बनावें और लोगोंके कल्याण करनेकी शक्ति - वक्तृत्व शक्ति प्राप्त कर सकें ।
छात्रालयमें कालेजके पढ़नेवाले विद्यार्थी भी रक्खे जाते थे और जो असमर्थ होते थे उनसे कुछ काम लेकर उन्हें कुछ आर्थिक सहायता कर दी जाती थी । ऐसे विद्यार्थियोंके हृदय पर धार्मिक संस्कार डालनेका सेठीजी बहुत प्रयत्न करते थे । थोड़े ही समय में उन्हें धर्मसे प्रेम हो जाता था और उनकी धर्म तथा समाजकी सेवा करने की ओर रुचि हो जाती थी । उनके यहाँके ऐसे कई विद्यार्थी आज जैनसमाजकी सेवा कर रहे हैं ।
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समिति एक ऐसी अच्छी संस्था थी कि उसकी विशेष विशेष
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बातोंका उल्लेख करनेके लिए ही बहुत स्थान चाहिए । हमने यहाँ मोटी मोटी बातें बतला दी हैं। अधिक जाननेके लिए समितिकी रिपोर्ट देखना चाहिए।
हमारी समझमें सेठीजीका वास्तावेक परिचय पानेके लिएउनके कर्तव्यशील जीवनका महत्त्व समझनेके लिए समितिके कामोंको छोड़कर और कोई साधन नहीं है । उनका अन्तरंग शरीर समितिके ही रूपमें विद्यमान था । ___ हमारा विश्वास है कि यदि सेठीजीकी — समिति ' दश ही वर्ष
और चल जाती तो जैनसमाजकी प्रगति इतनी हो जाती जिसकी कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। अभी तो उसका प्रारंभ ही थाकाम करनेके दिन तो उसके अब आये थे; परन्तु जैनसमाजका दुर्भाग्य कि उस पर अकालहीमें एक वज्र आकर पड़ा और वह नष्ट भ्रष्ट हो गई।
सेठीजीका शिक्षाप्रचारके समान समाजसुधारकी ओर भी लक्ष्य है। उन्होंने जो महत्त्वका और सबसे आवश्यक कार्य अपने हाथमें ले रक्खा था उसके देखते हुए यद्यपि उन्हें इस कार्यमें हाथ न डालना चाहिए था; तथापि जैनसमाजके कल्याणकी-उसकी दशा सुधारनेकी भावना उनके हृदयमें इतनी प्रबल थी कि उन्हें यह कार्य बलात् करना पड़ता था। इससे उन्हें अनेक संकीर्ण हृदय व्यक्तियोंका कोपभाजन बनना पड़ा और बहुतोंने तो उनके मार्गमें काँटे बिछानें तकका प्रयत्न किया । किन्तु वे अपने विचारोंमें इतने दृढ थे कि उन्होंने किसीकी ज़रा भी परवा न की-सब कुछ हानियाँ सहकर भी वे अपने कर्तव्यपथ पर आरूढ रहे।
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वे सुधारक हैं; परन्तु आविचारक नहीं हैं । समाजमें जिन | सुधारोंकी वास्तवमें आवश्यकता है, जिनसे समाजका कल्याण होनेकी संभावना है और जिनसे जैनधर्मके सिद्धान्तोंमें कोई बाधा नहीं आ सकती उन्हीं सुधारों के लिए वे प्रयत्न करते थे । राजपूतानेमें छोटी छोटी सैकड़ों कुरीतियाँ प्रचलित हैं उन्हें सेठीनीने बहुत कुछ बन्द करा दिया है । कन्याविक्रय, बाल्यवृद्धविवाह, रंडियोंका नाच
और फिजूलखर्चीके मिटानेमें उन्हें बहुत सफलता हुई है। उन्होंने अनेक विवाह बहुत ही थोड़े खर्च सर्वथा सभ्य और उच्चरीत्यानुसार करवाये हैं । समाजसुधारके लिए उन्होंने एक नाटकमण्डली स्थापित कर रक्खी थी। इसके नाटकोंका लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ता था । अभी दो वर्ष हुए इनके एक नाटकमें लगभग दश हज़ार दर्शक उपस्थित हुए थे !
जैनोंकी तमाम जातियोंमें परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार जारी करनेकी वे बहुत आवश्यकता बतलाते हैं। इस विषयमें उनकी युक्तियाँ सुनने योग्य होती हैं । जैनोंकी तीनों शाखाओमें-दिगम्बर श्वेताम्बर स्थानकवासियोंमें मेल मिलाप बढानेका-प्रीतिभाव उत्पन्न करानेका वे बहुत उद्योग किया करते थे। इसके लिए उन्होंने एक भजनमण्डली स्थापित कर रक्खी थी जो बारी बारीसे तीनों सम्प्रदायके मन्दिरोंमें जाकर प्रीतिवर्धक भजन गाती थी। कभी कभी वे तीनों सम्प्रदायके शिक्षितोंको एकत्र करते थे और उनका एक साथ प्रीतिभोज कराते थे। अपने विद्यालयमें वे तीनों सम्प्रदायके विद्यार्थियोंको रखते थे; उनकी धर्मशिक्षाका भी उन्होंने यथोचित प्रबन्ध कर रक्खा
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था। उनकी संस्थाके लिए चन्दा भी उन्हें तीनों सम्प्रदायोंसे मिलता था । कई अजैन विद्यार्थी भी उनके विद्यालयमें शिक्षा पाते थे । देशकी उन्नतिके लिए वे यह भी आवश्यक समझते हैं कि नीच जातियोंको शिक्षा दी जाय । उनके खयालमें ज्ञानदान किसीको भी किया जाय, वह पापका कारण नहीं हो सकता है । अवश्य ही उनके इन कामोंसे बहुत लोग अप्रसन्न थे।
सेठीजी जैनसमाजके बड़े नामी व्याख्याता हैं। उनके व्याख्यानोंका प्रभाव भी बड़ा गहरा पड़ता है। नये और पुराने दोनों तरहके ख़यालवाले उनके व्याख्यानोंकी प्रशंसा करते हैं। इस कारण उन्हें प्रायः प्रत्येक जैन सभामें उपस्थित रहना पड़ता था। आज तक उनके देशके एक छोरसे दूसरे छोर तक सैकड़ों व्याख्यान हुए हैं; परन्तु जहाँतक हम जानते हैं समाज और धर्मसे बाहर राजनीति आदिके सम्बन्धमें उनका कोई भी व्याख्यान नहीं हुआ। वे केवल धर्म और शिक्षाके प्रचारक हैं । जैनसमाजमें अभी इतनी योग्यता भी कहाँ है कि वह राजनीतिके. व्याख्यान सुने । जिस समाजकी सारी शक्तियाँ साम्प्रदायिक झगड़ोंमें—शास्त्रार्थोंमें और तीर्थोंकी मुकद्दमेवानीमें खर्च होती हैं उसमें इतना बल कहाँ कि राजनैतिक क्षेत्रमें खड़ा हो सके।
सेठीजीका स्वभाव बड़ा ही सुशील, मृदु और प्रभावशाली है। अभिमान उनको छू तक नहीं गया। वे प्रशंसाके भूखे नहीं । वे केवल काम करना जानते हैं। उनका रहन सहन बहुत ही सादा है । सदा अपनी देशी पोशाक पहनते हैं। जयपुरी पगड़ी
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छोडकर उन्हें कभी किसीने टोपी लगाये न देखा होगा । खाना पीना बहुत ही साधा रखते हैं । कष्ट सहन करनेमें तो वे बहुत ही बढ़े चढे हैं । थोड़ेसे भुने चने साथमें रखकर सैकड़ों मीलोंकी सफा कर आना उनके लिए मामूली बात है।
सेठी के कुटुम्बमें उनकी सहधर्मिणी, एक पुत्र और दो कन्यायेंहैं । अपनी स्त्री श्रीमती गुलाबबाईको उन्होंने इस प्रकारकी शिक्षा दी है, उनके विचारोंको इतना उन्नत और उदार बना दिया है
और उनके मनमें समाजसुधारकी आवश्यकताके भाव इतने दृढ कर दिये हैं कि वे इनके कामोंको अच्छा ही नहीं समझती हैं किन्तु इन्हें बहुत कुछ सहायता भी पहुँचाती हैं। सेठीजीका विश्वास है कि जो पुरुष अपनी सहधर्मिणीको अपने विचारोंकी अनुयायिनी । और शिक्षिता नहीं बना सकता है वह समाजका काम कभी सफलताके साथ नहीं कर सकता।
पुत्र प्रकाशचन्द्रकी अवस्था इस समय ११ वर्षकी है। लड़कियाँ छोटी छोटी हैं । प्रकाशचन्द्रको आप स्वयं ही पढाते थे । आप यह नहीं चाहते हैं कि वह बी. ए., एम. ए. पास करके वकील बन जाय या नौकरी कर ले। आपकी यही इच्छा है कि वह भी अच्छी तरह शिक्षित होकर अपना जीवन देश, धर्म और समाजकी सेवाके लिए अर्पण कर दे । 'प्रकाश' होनहार लड़का है। उससे बातचीत करके और उसके इस छोटीसी उम्रके विचार सुनकर चित्त बहुत ही प्रसन्न होता है।
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गतवर्ष इन्दौरके नामी रईस रायबहादुर सेठ कल्याणमलजीने दो लाख रुपयोंका दान करके इन्दौरमें एक जैन हाईस्कूल खोलना चाहा
और उसकी नीव जमाकर कुछ समय तक स्कूलको अच्छे ढंगसे चला देनेके लिए सेठीनीसे प्रार्थना की। उन्होंने कुछ समयके लिए यह कार्य करना स्वीकार भी कर लिया। करते क्यों नहीं, उनके जीवनका तो उद्देश्य ही शिक्षाप्रचार है। गतमार्चमें वे उक्त स्कूलको आदर्शरूपमें स्थापित करनेकी तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक गिरिफ्तार कर लिये गये। पहले देहलीके षड़यंत्रके मामलेमें देहली लाये गये; परन्तु सुबूत न मिलनेसे थोड़े ही दिनोंमें छोड़ दिये गये। इसके बाद ही न जाने फिर क्यों पकड़ लिये गये और कुछ दिनों इन्दौरमें रक्खे जाकर जयपुर भेज दिये गये । तबसे अबतक वे जयपुरकी जेलमें सड़ रहे हैं । यह नहीं बतलाया जाता है कि उन्होंने क्या अपराध किया है।
देखें जैनसमाजके शुभदिन कब आते हैं और कब वह फिरसे ऐसे महात्मा, उदारहृदय, स्वार्थत्यागी सच्चे सेवकको प्राप्त कर उन्नतिके पथ पर अग्रसर होता है।
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सेठजीका मामला ।
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धिक् तां च तं च विमदं च इमां च मां च ! "
सुप्रसिद्ध विद्वान् राजा भतृहरिको जब मालूम हुआ कि मेरी प्यारी स्त्री व्यभिचारिणी तब उन्होंने अपने हार्दिक दुःखको नीचे लिखे पढ़में प्रकट किया था:
" धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ! " इस अमर पदका अभिप्राय यह है कि, “ धिक्कार है उसको ( रानीको ), धिक्कार है उसे ( पत्नीके जारको), धिक्कार है मदनको ( कामदेवको ), धिक्कार है इसे ( उस जारका चित्त दूसरी जिस स्त्रीपर आसक्त था उसे ) और धिक्कार है मुझे जो मैं अपनी स्त्री पर विश्वास कर रहा था ।
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एक देशी राजाका अपनी प्रजा के प्रति अप्रीतिका वर्ताव देखकर मेरे मुँह से भी सहसा यही पढ़ निकल पडा है, केवल इतना फर्क करके कि भर्तृहरिके ' मदन ' शब्दके स्थान में मैंने ' विमद ' शब्द रख दिया है । वास्तवमें ' मदन ' और ' मढ़' दोनों शब्द एक ही धातुसे बने हैं और दोनोंमें उच्छृंखलताका भाव समान रूपसे भरा हुआ है । पाठक समझ ही गये होंगे कि मैं यह बात जयपुर राज्य और किसी भी प्रकार के अपराध के प्रमाणके विना जेलका कष्ट भोगनेवाले पं. अर्जुनलालजी सेठीको उद्देश्य करके लिख रहा हूँ ।
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सेठीजीका मामला।
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___ पं० अर्जुलालजी सेठीके दुर्भाग्यका वर्णन गतांकमें हो चुके है । आज मैं उक्त महात्माके विषयमें अपना निजी अनुभव प्रकट करना चाहता हूँ । न जाने कितने धार्मिक सम्मेलनोंमें मैंने उन्हें देखा है, उनसे वार्तालाप किया है, उनके धर्मभावनाओंसे भरे हुए व्याख्यानोंको सुना है, दो तीन अवसरों पर तो उनके साथ दिन दिन रातरातपर्यंत निवास किया है और उस समय उनके निजी जीवनका उनके हृदयका-उनके आशयोंका गहरा अभ्यास किया है। मैंने उनका प्रखर आत्मत्यागसे चलनेवाला आदर्श विद्यालय देखा है और उसमें जो शिक्षा दी जाती थी उसकी जाँच की है। उनके रचे हुए धर्म भावनामय नाटकके गीत बाँचे हैं
और उनकी प्रवृत्तियोंका झुकाव देखा है। यदि इतना परिचय प्राप्त करने पर भी एक लेखक किसी मनुष्यके सम्बन्धमें अपने विचार निश्चित करनेका-अपने अभिप्राय प्रकट करनेका अधिकारी न समझा जाय तो कहना होगा कि संसारका कोई भी मनुष्य दूसरे किसीके विषयमें अभिप्राय बाँध ही नहीं सकता। मेरा विश्वास है कि पं० अर्जुनलालजीके साथ मेरा जो उक्त रूपसे परिचय रहा है उससे उनके विषयमें मेरे जो खयाल बने हैं वे सत्य हैं और उनको कोई मनुष्य गलत सिद्ध नहीं कर सकता । मेरे खयालसे सेठीजी केवल धर्मक्षेत्र और शिक्षाकार्यमें तन्मय रहनेवाले पुरुष हैं। शान्तिप्रचारक जैनधर्म और सुखवर्द्धक शिक्षाकी उन्नतिके सिवाय दूसरा कोई विचार उनके मस्तकमें उत्पन्न ही नहीं हो सकता । अब तक वे कभी किसी भी राजनीतिक आन्दोलनमें यहाँतक कि कांग्रेसमें
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भी शामिल नहीं हुए हैं । षड़यंत्र, खून-खराबी, उपद्रव आदि बाते उनकी प्रकृति और उनके परम पवित्र मिशनके अनुकूल कदापि नहीं हो सकती । जैनजातिका उन्होंने इतना उपकार किया है कि उसका ऋण वह अनेक पीढ़ियों तक भी न चुका सकेगी । जयपुर राज्यकी जैन प्रनामें साथ ही अजैन प्रजामें भी उन्होंने जो धार्मिकभावनाओंकी वृद्धिका तथा शिक्षाप्रचारका कार्य किया है, उससे वे जयपुर राज्यके भी बड़े भारी उपकारी हैं। ऐसी अवस्थामें भी उन्हें उनका राज्य--उनका ही स्वदेश राज्य किसी भी प्रकारका अपराध प्रमाणित किये बिना जेलमें ठूस देता है, यह क्या उस आघातसे हलका आघात है जो रानी पिं. गलाने भर्तृहरिके प्रेमपूर्ण विश्वस्त हृदय पर किया था ? प्रसन्नतापू. र्वक-निःस्वार्थतापूर्वक की हुई जनसाधारणकी सेवाका यह कितना भयंकर बदला है ! धिक्कार है उस समाजको-उस जैन समाजको कि जिसने एक मनुष्यसे वर्षों सेवा करानेके बाद उसके कष्टके समय अपनी आँखें बन्द कर लीं और अपनी साहजिक वणिक्बुद्धि बतला दी ! अर्जुनलाल, तुम्हें भी धिक्कार है कि तुमने गुणहीनोंकी सेवा की ! धिक्कार है उस सत्ताके महान् मदको या गर्वको कि जिसने जयपुरनरेशके कान ऐसे बहरे कर दिये कि दुःखिनी अबला और सैकड़ों प्रजाजनोंकी करुणापूर्ण पुकार भी उन तक न पहुँची और उसका उत्तर देनेकी भी जिसके कारण आवश्यकता न समझी गई ! और धिक्कार है राज्यके अमलदारोंकी उस बुद्धिको जिसने तुम्हारे कारण अपना-अपने राज्यका गौरव समझनेके बदले तुम्हें
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कष्ट देनेमें ही कृतकृत्यता समझी । परन्तु इन सबको धिक्कार देनेके बदले मैं स्वयं अपनेको ही धिक्कार क्यों न दूँ जो जैनसमाजको सोलह वर्षके लम्बे समयमें अच्छी तरह जान-पहचान कर भी इस धनलुब्ध, उच्चभावनाओंसे विमुख और कर्तव्यच्युत समाजको अर्जुनलालजीके प्रति उसका जो कर्तव्य है उसमें तप्तर होनेकी निष्फल अपील करनेमें समय गवाँ रहा हूँ !
क्या जैनसमाज कर्तव्यहीन नहीं है ? बम्बईका प्रसिद्ध 'गुजराती ' पत्र इस विषयमें कटाक्ष कर ही चुका है। उधर कानपुरका 'प्रताप' कहता है:-" जैनसमाजके लिए यह शर्मकी बात है कि उसका एक खास सेवक निर्दोष होने पर भी जेलमें सड़ता रहे और वह हाथ पर हाथ रक्खे बैठ रहे । पटियालेके मामलेमें आर्यसमाजने आकाश और पाताल एक कर दिये, पर यहाँ तो अभी कुछ भी नहीं हुआ।” प्रतापके सम्पादक महाशयको जैनों और आर्यसमाजियोंके बीचका अन्तर देखकर आश्चर्य होता है; पर मुझे तो यही आश्चर्य हो रहा है कि उन्हें इसमें आश्चर्य क्यों हुआ ! कहाँ आर्यसमाज और कहाँ आधुनिक जैनसमाज ! कहाँ शेर और कहाँ गीदड़ ! कहाँ सूर्य और कहाँ बेचारा खद्योत ! यदि जैनोंमें ज़रा भी कर्तव्यप्रेम शेष होता-जीवन रहा होता-सजीव जल रहा होता तो क्या देशरत्न लाला लाजपतराय जैनकुलमें जन्म लेकर भी आर्यसमाजमें चले जाते? भला, जैनसमाज ऐसे रत्नको किस स्थल पर और कैसे रखता ? गुजरातीकी एक कहावतका अर्थ यह है कि " यदि बनिया प्रसन्न होगा तो अधिकसे अधिक तालियाँ बजा .
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जैनहितैषी
देगा।" परन्तु कर्तव्यपरायण समाजके वीर तो ऐसे होते हैं कि वे जिस व्यक्तिको या जिस सिद्धान्तको चाहते हैं, उसके लिए अपना सर्वस्त अर्पण कर देते हैं- स्वात्मार्पण' यही उनका 'मोटो' या मुद्रालेख | होता है। ऐसे ही वीरोंके बीचमें काम करनेका उत्साह होता है। हमारे जैन भाइयोंकी-वणिक् महाशयोंकी तो यह दशा है कि अपने एक समाजसेवकके लिए न्यायप्रिय ब्रिटिश सरकारके प्रति प्रार्थना करनेरूप कर्तव्यप्रेम बतलानेमें भी उन्हें बहुत कुछ आगापीछा सोचना पड़ता है।
शायद प्रतापके सम्पादक महाशयको यह मालूम नहीं है कि हमारा जैनसमाज तीन सम्प्रदाय और तेरह सौ विभागोंमें बँटा हुआ है और प्रत्येक सम्प्रदाय या विभाग दूसरे सम्प्रदायके प्रति प्रायः घृणा अथवा उदासीन भाव रखनेवाला है। बल्कि इसमें तो ऐसे सजनोंका भी अभाव नहीं हैं जो तीनों सम्प्रदायोंके बीच एकता बढानेका प्रयत्न करनेवाले सेठी जैसे पुरुषोंको कष्ट देने तकके लिए तैयार हो सकते हैं । मैंने स्वयं कितने ही पढ़े लिखे श्वेताम्बर और स्थानकवासी जैनोंके मुँहसे इस आशयके शब्द सुने हैं कि अर्जुनलाल दिगम्बर है, तब हमारा उसकी आपत्तिविपत्तिसे क्या सम्बन्ध है ? वह मरे चाहे जीवे, इससे हमें क्या ? समझमें नहीं आता कि ऐसे लोगोंको कौन सा विशेषग दिया जावे; इन्हें दुष्ट या धर्महीन कह देने मात्रसे तो हृदयको जरा भी सन्तोष नहीं होता है। जिन महावीर भगवानने मनुष्य ही नहीं जीवमात्रको एक मैत्रीसूत्रमें बाँधनेकी-परस्पर साम्य और भ्रातृभाव स्थापित करनेकी शिक्षा
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दी थी, आज उन्हीं महावीरके अनुयायी सम्प्रदाय और पंथों में
ऐसे जकड़ गये हैं कि इन बेड़ियोंसे ही फोड़ने में मस्त रहते हैं । इससे अधिक हो सकती है ?
निरन्तर एक दूसरेका सिर लज्जाकी बात और क्या
प्रताप - सम्पादक पटियाला - केसका उदाहरण देकर आर्यमसाजकी एकताकी प्रशंसा करते हैं; परन्तु मेरा विश्वास है कि यदि जैनसमाज अपनी संकीर्णता और स्वार्थपरायणता छोड़ दे, एकता और कृतज्ञता सीखे तो यह भारतके व्यापारके अधिकांश भागकी अधिकारिणी चौदह लाख संख्यावाली जाति केवल एक ही महीने के भीतर अर्जुनलालजीको बन्धमुक्त करा सकती है ।
आज ग्यारह महीना हो गये, बतलाइए जैनोंने अबतक क्या आन्दोलन किया है ? क्या गाँव गाँवमें तीनों शाखाओंकी ओरसे सभायें हुई हैं ? क्या गाँव गाँवसे जयपुर महाराजके पास या वायसराय साहबके पास न्याय माँगनेके लिए तार गये हैं ? क्या तीनों सम्प्रदायोंकी कान्फरेंसों और प्रान्तिक सभाओंकी ओरसे, जैन एसोसियेशन आफ इंडियाकी ओरसे, जैन ग्रेज्युएट एसोसियेशनकी ओरसे, समस्त जैनपत्रसम्पादकोंकी ओरसे और जैनधर्मोपदेशकोंकी ओरसे माननीया ब्रिटिश सरकारकी सेवामें इस आशय की सार्थनायें की गई हैं कि अर्जुनलालजीका अपराध प्रकट करने के लिए जयपुर राज्यको प्रेरणा की जाय ? क्या बिना माँगे सगी माता भी अपने बच्चेको दूध पिलाती है ?
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__ मैं देशीराज्योंका गौरव बढ़ता हुआ देखनेकी निरन्तर प्रतीक्षा किया करता हूँ और इसलिए मैं यह कदापि अच्छा नहीं समझता कि ब्रिटिश सरकार उनके कामोंमें हस्तक्षेप करे; परन्तु यहाँ प्रश्न यह है कि जब पहले कई बार इस तरहके मामलों में सरकारने हस्तक्षेप किया है तब इस समय क्यों नहीं करती ? अभी कुछ ही महीने पहले जामनगर राज्यके एक मामलेमें सरकारको हाथ डालना पड़ा था। और इसके पहले तो ऐसे बीसों मौके आचुके हैं जब कि सरकार लोगोंकी प्रार्थनाओं पर और बिना प्रार्थनाओंके भी देशीराज्योंके काममें हाथ डाल चुकी है। लार्ड हेस्टिंग्सकी सरकारने देशी राज्योंकी-विशेष करके राजपूतानेके राज्योंकी अन्धाधुन्धी देखकर अनेक बार उनके कामोंमें हस्तक्षेप किया था । स्वयं जयपुर राज्यमें ही राजा जयसिंहके समयमें प्रजाके हितके लिए कई बार सरकार बीचमें पड़ी थी । निजाम और मैसूर जैसे प्रथम श्रेणीके राज्योंके विषयमें भी सरकार अपनी तटस्थ रहनेकी पालिसीकी रक्षा न कर सकी थी। प्रजाको कष्ट देनेवाले मल्हारराव गायकबाडको तो पदभ्रष्ट करने तकके लिए सरकार लाचार हुई थी । इन्दौरैके होल्कर महाराजको रिटायर होना पड़ा था।
पण्डित अर्जुनलालजीको बिना जाँच किये जेलम सडानेके कारण हम किसी राजाका या राजकर्मचारीका अपमान करनेके लिए सरकारसे प्रार्थना नहीं करते हैं; हम अपनी न्यायशीला ब्रिटिश सरकारसे, केवल यही माँगते हैं कि वह जयपुर राज्यको सेठीजीका अपराध प्रमाणित करनेकी या अपराध साबित न हो तो छोड़ देने
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की सलाह देनेकी कृपा करे । व्यक्तिगत अधिकारोंकी रक्षा के लिए सर्वस्वका भी होम कर देनेके लिए तैयार हो जानेवाले ब्रिटिशोंसे क्या इतनी भी आशा करना अनुचित है ? उच्च सिद्धान्तकी रक्षाके लिए कालके बन्धनवाले कानून बदले जा सकते हैं और भूतकालमें इस तरह कई बार बदलने भी पड़े हैं; तब समझमें नहीं आता कि इसी समय कानूनकी ओट लेकर क्यों मौन धारण कर लिया गया है
मैसूर राज्यके लिए तो यहाँतक आज्ञा दी गई थी कि रेवेन्यू, टेक्स, न्याय, व्यापार, कृषि आदि मैसूर राज्यकी प्रजाके हितरक्षणसम्बन्धी प्रत्येक विषयमें महाराजको हमेशा गवर्नर जनरलकी सलाहके अनुसार वर्ताव करना चाहिए । इस तरह जब प्रत्येक विषयमें हस्तक्षेप करना सरकारने उचित समझा है तब ब्रिटिश इंडियाके एक नागरिकको बिना प्रमाणके जेलमें हँसते देखकर क्या वायसराय साहब इतना भी हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं कि इस मामलेकी जाँच करनेके लिए राजाको सूचना कर दी जाय । यदि कर सकते हैं तो अभीतक क्यों नहीं किया ? क्या यहाँके देशी राज्योंकी प्रजा ब्रिटिश राज्यकी प्रजा नहीं कहलाती : यदि किसी देशी राज्यका रहनेवाला हिदुस्तान से बाहर जाता है तो उसे ब्रिटिश प्रजाके रूपमें' पासपोर्ट' मिलता है और 'ब्रिटिश कॉन्सल' उसकी, ब्रिटिशप्रजा समझकर ही रक्षा और सहायता करता है । तब क्या उन्हीं देशी राज्योंकी प्रजाका खास हिदुस्तान के भीतर कष्ट सहन करते समय ब्रिटिशकी सहायता पानेका हक छिन जाता है ? मेरी समझमें तो यहाँ उसका दूना हक़ है ।
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हमारी इस प्रार्थनामें राजद्रोहके प्रश्नके लिए तिल मात्र भी स्थान नहीं है। सेठीजी पर राजद्रोहका अपराध प्रमाणित करनेकी अभी तक किसीने भी हिम्मत नहीं दिखलाई है। इसी तरह सार्वजनिक पत्रोंमें जो बातें प्रकाशित हुई हैं उनको झूठ सिद्ध करनेकी भी किसीने कोशिश नहीं की है। इसीसे साबित होता है कि पं० अर्जुनलालजी राजद्रोहमें किसी तरह कदापि शामिल नहीं रहे हैं। और थोड़ी देरके लिए यह भी मान लिया जाय कि वे राजद्रोही हैं तो भी हम कुछ यह प्रार्थना नहीं करते हैं कि ये राजद्रोह या और किसी अपराधके परिणामसे मुक्त कर दिये जायें। हम तो किसी छोटेसे छोटे अपराधकी भी क्षमा करेनकी हिमायत नहीं कर सकते । सरकार तो दयालु होकर कदाचित् कभी किसी अपराधीको क्षमा भी कर देती है; परन्तु हमारा जैनधर्म तो इतना बे-लिहाज़ है कि वह, अपराधीको क्षमा मिल ही नहीं सकती-'कर्म' किसी भी दोषका फल दिये बिना रह ही नहीं सकता, यही सिखलाता है। अतःहम केवल यही चाहते हैं कि चारों ओरसेगाँव गाँवसे—प्रत्येक सामाज और प्रत्येक प्रतिष्ठित व्यक्तिकी ओरसे सरकारकी सेवामें यह प्रार्थना की जाय कि वह अर्जुनलालजीको अपराधी सिद्ध करनेके लिए अथवा अपराध न हो तो छोड़ देनेके लिए जयपुर राज्यको सलाह देनेकी कृपा करे जिससे केवल अर्जुनलालजी ही नहीं बचें किन्तु राजभक्त, निप्कलङ्क, शान्तिप्रिय जैन जातिकी इज्जत भी बच जाय । इससे जयपुर स्टेट शिक्षित संसारकी अप्रसन्नतासे मुक्त होगा और ब्रिटिश सरकारके प्रति भी प्रजाजनोंकी जो अपरिमित भक्ति बढ़ेगी. वह वर्तमान विग्रहके समयमें बहुत ही कल्याणकारी सिद्ध होगी।
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सेठीजीको मामला।
इस समय अपने कर्तव्यकी पालना करनेमें जैनसमाजका जो समूह या जो प्रान्त कायरता दिखलावेगा उसके सिर पर सदाके लिए कलंकका बोझा लद जायगा और आज जिस तरह अर्जुनलालजीको कष्ट भोगना पड़ा है उसी तरह किसी समय उसे भी या उसके किसी निरपराध व्यक्तिको भी कष्टमें पड़ना पड़ेगा। आज सासके दिन हैं तो कल बहूके भी दिन आयेंगे। __ यदि जैनसमाजमें अपना शान्त कर्तव्य पालन करने योग्य जागृति भी न होगी और उससे सरकार तथा जयपुर राज्य दोनों ही इस विषयमें सारे देशके अँगरेजी और देशी समाचारपत्रोंकी आवाज़ सुननेमें प्रमाद करेंगे तो अन्तमें बिना अपराधके कष्टमें बिलबिलाते हुए एक दुखी मनुष्यकी 'हाय' कमेदेवके गुप्त कानूनके अनुसार अपना काम आगे पीछे कभी न कभी किये बिना न रहेगी:
'तुलसी' हाय गरीबकी, कबहुँ न निष्फल जाय। मुए छागकी चामसों, लोह भस्म हो जाय ॥
५-३-१५
बाडीलाल मोतीलाल शाह ।
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जैनहितैषी -
सहयोगियों के विचार । बौद्धधर्म ।
बौद्धधर्मको माननेवाले जितने लोग हैं उतने किसी भी धर्मके माननेवाले नहीं। चीन, जापान, कोरिया, मंचूरिया, मंगोलिया और साईबिरिया, नेपाल, सिंहल ( सीलोन ) के अधिकांश लोग बौद्ध हैं । तिव्वत, भूटान, सिकिम, रामपुर बुसायरके सब ही लोग बौद्ध हैं। वर्मा, स्याम, और अनाम अर्धे अर्ध बौद्ध हैं।
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एक समय तुर्किस्तान, अफगानिस्तान और बलूचिस्तान बौद्धधर्मकी खानि थे; वहाँसे बौद्धधर्म पारस्य ( ईराण ) के और तुर्किस्तान के पश्चिममें फैला था । रोमन कैथलिक ईसाइयोंके बहुतसे आचार-विचार पूजापद्धतियाँ बौद्धोंके ही समान हैं । उनके सेंट वारलाम और जोषेफट ये दो महात्मा बौद्ध और बोधिसत्व शब्दके केवल रूपान्तर हैं ।
भारतवर्षीय हिन्दुओंके धर्म और आचारव्यवहार में बौद्धमत और उसके भाव अब भी गुप्त रीति से चल रहे हैं । बंगालके धर्मठाकुरके पूजनेवाले बौद्ध ही हैं । बिठोबा और बिल देवताओंके भक्त अपना परिचय बौद्ध-वैष्णव कहकर देते हैं । बंगालियोंके तंत्रशास्त्रमें तो बौद्धधर्मका आभास बहुत ही स्पष्ट हो रहा है।
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सिंहलदेशमें जो बौद्धधर्म प्रचलित है वह कितनी ही धर्मनीतियोंका समूह मात्र है । नेपालके बौद्धधर्म में दर्शनतत्त्वों की अधिकता है और वह विज्ञान - मूलक है । वर्मामें पूजा पाठोंकी अधिकता है तिव्वतके बौद्ध कालीपूजा करते हैं, मंत्रतंत्र पढ़ते हैं, होम - जप करते हैं और मनुष्यपूजा करते हैं। चीनदेशके बौद्ध सब तरहके जीवोंकी हिंसा करते हैं और सब तरहके मांस खाते हैं । जापान और चीन बौद्ध अनेक देव - देवियोंकी उपासना करते हैं । बौद्धधर्म कहीं तो पूर्वपुरुषोंकी उपासनाके साथ, कहीं भूतप्रेतोंकी उपासना के साथ और कहीं देहतत्त्वकी उपासनाके साथ मिल गया है । वह कहीं शुद्ध बुद्धके समान और कहीं शुद्ध नागार्जुनके समान चलता है । बुद्धदेवके आदेशोंका प्रचार जब जिस देशमें हुआ है, तब उसी देशकी प्रचलित भाषामें लिखा गया है; यहाँ तक कि ईराणकी भाषा में और रोमकी भाषामें भी लिखा गया है । 'विमलप्रभा '
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सहयोगियोंको विचार।
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नामक एक पुस्तकसे इस बातका अभी पता लगा है । प्राकृत और अपभ्रंश भाषामें बौद्धोंके बहुतसे संगीतोंकी प्राप्ति हुई है।
बौद्ध किसे कहते हैं, इस विषयमें अनेक मुनियोंके अनेक मत हैं । यदि संसारत्याग करके मठोंमें वास करनेवाले साधु ही बौद्ध कहे जावें तो फिर गृहस्थ बौद्धोंको बौद्ध न कह सकेंगे। यदि पंचशील ( हिंसा नहीं करना, झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करना, शराब नहीं पीना, व्यभिचार नहीं करना ) ग्रहण करनेवाले ही बौद्ध कहे जावे तो फिर व्याध, धीवर आदिका बौद्धधर्ममें प्रवेश करनेका अधिकार नहीं रहता । नेपाल और तिव्वत आदिके बौद्धोंके मतसे सारी पृथिवीके लोग बौद्ध हैं। लंकानिवासी केवल अपना ही उद्धार करके निश्चिन्त हैं । नेपाली और तिव्वती कहते हैं कि जो बोधिसत्व होगा उसे जगत्के उद्धार करनेकी प्रतिज्ञा करनी होगी । इसी कारण नेपाल और तिव्वतके बौद्ध अपनेको 'महायान' और लंकाके बौद्धोंको ' हीनयान' सम्प्रदाय के बतलाते हैं। यान' का अर्थ है पन्थ या मत । बौद्धोंके प्रधान ग्रन्थका नाम है प्रज्ञापारमिता । महायान- पन्थकी सारसे सार बात ' करुणा ' है । प्रज्ञापारमिताके अनेक संस्करण हैं । सैकड़ों हजारों श्लोकोंसे लेकर तीन पन्नों तककी प्रज्ञापारमिता हैं । सभीका यह प्रधान आदेश है कि 'सब जीवों पर करुणा करो।' बौद्धोंकी करुणा बहुत गंभीर है।
बौद्ध लोग जातिको नहीं मानते; इसलिए उनकी सन्तान 'बौद्ध' होकर जन्म नहीं लेती, अर्थात् पैदा होते ही कोई ‘बौद्ध ' नहीं कहलाने लगता । शुभाकर गुप्तके 'आदिकर्मरचना ' नामक बौद्धस्मृतिके मतसे जिसने बुद्ध, धर्म और संघ इन तीनकी शरण ले ली है वही बौद्ध है।
शुरू शुरूमें बौद्धधर्म सन्यासियोंका धर्म था । जो सन्यास लेना चाहता था उसे एक सन्यासीको मुरब्बी बनाकर सन्यासियोंके विहार में जाना पड़ता था। बौद्धसन्यासीको भिक्षु, समूहको संघ, भिक्षुओंके निवासस्थानको संघाराम, और संधारामके मध्यके मन्दिरको विहार कहते हैं।
स्थविर ( वृद्ध भिक्षु) कुछ प्रश्न करते हैं । उस समय पाँच भिक्ष और भी उपस्थित रहते हैं । नाम, धाम, कोई कठिन रोग तो नहीं है, कभी राजदंड तो नहीं भोगा है, राजकर्मचारी तो नहीं है, भिक्षापात्र है या नहीं,
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चीवर है या नहीं, इस तरहके वे प्रश्न होते हैं । इसके नाद वे संघसे पूछते हैं कि आपलोग कहिए कि यह मनुष्य संघमें शामिल किया जाय या नहीं । इस तरह तीन वार पूछने पर भी यदि कोई विरोध नहीं करता था तो वह उपाध्यायको सौंप दिया जाता था और उनके पास वह सन्यासधर्मके कर्तव्य सीखता था । सीख जानेपर उसमें और उपाध्यायमें कोई भेद न रहता था। संघमें दोनोंका बराबर अधिकार हो जाता था। महायान सम्प्रदायके बौद्ध उपाध्यायको 'कल्याण मित्र' कहते हैं । इससे मालूम होता है कि उनका गुरुशिष्य जैसा सम्बन्ध नहीं है; परलोककी कल्याणकामनासे गुरु शिष्यका केवल मित्र है । इस सम्प्रदायके अनुयायी दर्शनशास्त्रकी खूब चर्चा करते हैं।
धीरे धीरे जब एक बड़ा भारी समूह गृहस्थाभिक्षु बन बैठा तब दर्शनशास्त्र पढ़ना और योगध्यान काठन प्रतति होने लगा। उस समय ' मंत्रयान' की उत्पत्ति हुई । इसके अनुसार एक मंत्रजाप करनेसे ही सारे धर्मकर्मों का फल पाया जा सकता है । इस विश्वासकी वृद्धिके साथ साथ गुरु शिष्यका सम्बन्ध खूब दृढ होता गया और आगे तो गुरुभक्तिकी-गुरुसेवाकी-हद्द ही हो गई । भारतके एक सम्प्रदायमें अब भी इस प्रकारका विश्वास प्रचलित है कि शिष्य गुरुका दास है, उसके पास जो कुछ है-वह स्वयं आर उसकी स्त्री कन्या तक-सब गुरुकी हैं । इस मतका मूल मंत्रयांन ही है।
वज्रयान ' सम्प्रदायमें गुरुकी प्रतिष्ठा और भी बढ़ गई; वे ईश्वरके तुल्य बन बैठे।
'सहजयान ' में गुरुका उपदेश ही सब कुछ है। गुरुके उपदेशसे यदि महापाप भी किया जाय तो उससे महापुण्य होता है । इस तरह बौद्धधर्मके परिवर्तनके साथ साथ गुरुका सम्मान बढ़ता चला गया। __ 'कालचक्रयान' में गुरु अवलोकितेश्वरका अवतार माना जाता है । ' लामायान ' में तो सब ही लामा किसी न किसी बोधिसत्त्वके अवतार होते हैं। वे साक्षात् सर्वदर्शी सर्वज्ञ माने जाते हैं। 'लामायान' आगे 'दलाई-लामायान' के रूपमें परिणत हो गया है । वे अवलोकितेश्वरके अवतार हैं, कभी मरते नहीं हैं, उनका शरीर बीच बीचमें नया निर्माण होता है । बौद्धधर्मकी इन बातोंने न्यूनाधिक्यरूपसे हिन्दूधर्ममें भी स्थान पा लिया है।
-महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री।
[बंगला प्रवासी।]
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सहयोगियोंके विचार ।
गंभीर विचार। गृहस्थाश्रम बड़ा कठिन है । इसकी कठिनाइयोंको वह ही अच्छी तरह जानता है जो स्वयं पूरा गृहस्थी हो । जमाना बड़ा नाजुक है, बाल बच्चेदार आदमी न जाने किन किन मुशकिलों से अपने निर्वाह करते हैं और अपनी आबरू बनाये रखते हैं । सन्तान को उत्तम शिक्षा देना और उनके विवाहादि कार्यों में अपना पेट काट कर जातिप्रथाके अनुसार आवश्यकता से अधिक धन खर्च करने के लिये मजबूर किये जाना यह सब बातें कुछ कम कठिनाई की नहीं हैं। किन्तु हमारे खंडेलवाल भाइयों में किसी २ को कभी २ और बडी मुशकिलों का सामना भी करना पड़ता है जिस से उन का गृहस्थ का जीवन
और भी दुःखित हो जाता है । इसी प्रकार के कष्ट का एक उदाहरण इस पत्र में मिलता है जो हमारे पास आया है । इस के लेखक ने अपनी एक कठिनाई का हाल लिख कर हमारी राय मांगी है; लेकिन यह प्रश्न एक जातीय विषय का है जिस का सम्बन्ध हमारी जाति की एक प्रचलित रीति से है इसलिये यह उचित मालूम हुआ कि इस मामले को सब भाइयों के सामने रखा जाय कि वे पूर्ण विचार कर अपनी सम्मति प्रगट करें। पत्र में यह हाल लिखा है:___ " मेरी एक कन्या है जिस की उम्र १४ वर्ष के लगभग हो गई है। इसके लिये मैं ने योग्य वर ढूंढने की बहुत कुछ चेष्टा पहले से ही की लेकिन अभाग्यवश अभी तक योग्य वर नहीं मिला । कई अच्छे लड़के अच्छे घराने के देखे भी लेकिन गोत्र न बचने के कारण निराश होना पड़ा । अब लड़की बहुत स्यानी हो गई और इस फिक्र में मेरा मन बड़े क्लेश में है। हाल ही में एक योग्य लड़का जिस की उम्र भी ठीक है और जो अच्छे घराने का भी है मिला है किन्तु विधाता यहां भी वाम होगया । तीन ही गोत्र बचे और एक नानी का गोत्र रह गया जिसने इस सम्बंध के होने में भी वाधा डाल दी है। अब मैं बड़ी आपत्ति में हूं। मैं एक गरीब आदमी हूं । इसलिये धनधानों के समान मुझको स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है । क्या एक नानी का गोत्र न बचने के कारण योग्य वर का परित्याग कर के इस अभागिनी की किसमत को किसी अयोग्य वर के साथ फोड़ कर जीवन भर के लिये इस को दुःख के गढ़े में ढकेल दिया जाय ? क्या ऐसा करने से मैं पाप का भागी न बनूँगा ? क्या तीन गोत्र में विवाह करने की
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जैनहितैषी
शास्त्र में बिलकुल आज्ञा नहीं है ? ऐसी शोचनीय दशा में मैं 'हितेषीं' से सहा. यता मांगता हूं कि वह मुझ को बतावे कि मेरा क्या कर्त्तव्य है।"
भाइयो ! आपने अपने एक दुःखित भाई का हाल पढ़ा । अब आप क्या राय देते हैं ? विचार कीजिये और सावधानी से विचार कीजिये । हमारे यहां चार गोत्र बचाने की रस्म है लेकिन जहां तहां तीन गोत्र में भी सम्बंध हुआ करते हैं जिसका कभी कभी नतीजा यही होता है कि कुछ दिनों के लिये बिरादरी में थोकबन्दी हो जाती है और जो प्रभावशाली होता है उसी के ज्यादा साथी हो जाते हैं । जाति के नेता पंच चौधरी महाशयों का कर्तव्य है कि इस मामले का एक दफै अच्छी तरह विचार करलें । किन्तु इस विषय में जो विचार हो शास्त्र तथा देश काल की आवश्यकता के अनुसार हो।
इसी गोत्रसम्बंधी विषय में एक पत्र रियासत अलवर से भी हमारे पास आया है जिसमें इस प्रकार से लिखा है " एक बात आपसे दरयाफ्त करने की यह है कि मेरे भाई की स्त्री का देहान्त हो गया। दूसरा विवाह करना आवश्यक है। पहली स्त्री से एक लड़का है जिसका विवाह रावत गोत्र में हो गया है। अब इसका निर्णय करके सूचना दीजिये कि दूसरे विवाह में लड़के की स्त्री के कोई गोत्र बचाने की जरूरत होगी या क्या ? और होगी तो कौनसे गोत्र की होगी ? कृपा कर शीघ्र उत्तर दीजिये।" ___ समस्त विचारवान् भाइयों से हमारी प्रार्थना है कि ऊपर लिखे प्रश्नों पर अच्छी तरह विचार कर अपनी सम्मति प्रगट करें। जाति के नेता, पंच चौधरी तथा शिक्षित ( तालीम याफ्ता ) पुरुषों का कर्तव्य है कि जाति में उठते हुए प्रश्नों की विवेचना करें और “ जिस पर पड़ेगी वह भुगतेगा" ऐसे क्षुद्र विचारों को त्याग कर सब के हित की बातों का उचित रीति से निर्णय करें। किन्तु जो हो ठीक युक्ति व प्रमाण के साथ हो । विना प्रमाण व युक्ति के बात माननीय नहीं हो सकती। जातीय बातों में देश की आवश्यकता पर विशेष ध्यान देना होता है।
[ खण्डेलवाल हितैषी अंक ६]
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सहयोगियोंके विचार।
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कुरल काव्य। तामिल काव्य कुरल की बात *पाटलिपुत्र में प्रकाशित हो चुकी है। इस ग्रंथ का अनुवाद लैटिन, फरासीसी, जर्मन, इटालीय और अंगरेज़ी में हो चुका है। काव्य दोटप्पी रामवाण दोहे से 'वेन्बा' छन्दस् में १२००० शब्दों में है। किसी दूसरा भाषा में इतने कम शब्दों में काव्यविचार प्रकट नहीं किए गए हैं। मानो “ राई बेध कर समुद्र पिरोया गया है।"
पोष साहब के अनुवाद के आधार पर कुछ नमूने दिए जाते हैं।
एक शब्द भी न बोलो जिसे अन्तरात्मा जानता है कि झूठ है। दधक उठेगी आग अन्दर झूठ की चिनगारी से।
(२) .' जो अपने अन्तरात्मा के सामने सच्चा है, .
वह जीता है सब की आत्मा में पैठ कर।
उसे गिरा सकता कौन है? जिसने किए नियुक्त मंत्री हैं बिगड़ने और बतानेवाले, होए जब भूल राजा से ॥
(४) - भाग्य का हुक्म हो 'असिद्धि,' तौभी सिद्धि मिलती है प्रयत्नी को।
[ पाटलिपुत्र।
* जैनहितैषीमें भी इस काव्यके विषयमें दो लेख निकल चुके हैं।
-सम्पादक । .
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जैनहितैषी
हमारी स्त्रियोंका स्वास्थ्य । अनेक कारणोंसे हमारे देश की स्त्रियोंका स्वास्थ्य दिन प्रति दिन खराब होता जा रहा है। जरा २ सी बातों से भीत और चकित होने वाली मातायें प्रताप और शिवाजी उत्पन्न नही कर सकतीं। जिस देशका अधःपतन होता है उस देशकी स्त्रियों का शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल सबसे पहले कम होना आरम्भ होता है। जहां के मनुष्य, घरमें चिराग नहीं जलता-इस लिये
और पकी पकाई खानेको मिलेगी-इसलिये विवाह करते हैं वहां स्त्रियों का आदर केवल मनु महाराज की उक्तियों में ही रह जाता है। घर की लक्ष्मियों को घर की दासी में परिणत करने वाला समाज क्या वीर और विद्वानोंसे विभूषित होगा या दास और दीनोंसे कलंकित ? हमारी स्त्रियों का स्वास्थ्य जिन कारणों से नष्ट हो रहा है आज इस अल्प लेख में उन पर थोड़ा सा विचार किया जाता है।
स्त्रियां केवल घर में और फिर घर भी हिन्दुस्थानी जिस में परदों की दीवारों और कोठरियों की बहुतायत ने वायु और प्रकाश को बाहष्कृत करदेनेका पक्का इरादा कर रखा है बन्द रहती हैं । शुद्ध वायु और नियमित व्यायाम के अभाव के कारण उनकी शारीरिक अवस्था शोचनीय हो उठती है। इस दीन अवस्था में रहते हुए उनको दिन रात अनवरत तेली के बैल की तरह घरके कूड़ा करकटके काम में लगा रहना पड़ता है जिसके कारण बहुत सी कुल बधुएं तपेदिक और अनेक संक्रामक रोगों की भेंट हो जाती हैं। विद्याविहीन होने के कारण वे सफाई और उससे क्या लाभ है-इस बातको नही जानतीं, किस ऋतु में किस तरह रहना चाहिए इस का उन को ज्ञान नहीं होता। यही कारण हैं जो उन के स्वास्थ्य का यथासंभव शीघ्र सत्यानाश कर देते हैं। और उनके पति उनकी इस गिरी हुई अवस्था पर क्यों विचार करने लगे हैं ? वे तो पत्नीवियोग के दूसरे ही दिन मोहर बांध दूसरी शादी करने का ईश्वरदत्त हक्क रखते हैं । वीर और विद्वान् पैदा करने वाली माताएं भारतवर्ष में प्रायः जिस बुरी तरह समय यापन करती हैं उस का कोई ठिकाना नहीं । एक और भी बहुत बड़ा कारण है जिसने उन की शारीरिक शक्ति को रसातल पहुंचाने में बड़ी बहादुरी दिखाई है और वह उनको असमय गर्भवती कर देना है। भारत के किसी प्रांत के मरणसंबंधी विवरण को पढ़िये आप को बालक पैदा होने या पैदा होने के बाद उन बेचा.
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सहयोगियोंके विचार।
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रियोंके लिये अवश्यम्भावी कुछ रोगों में मृत्यु के मुख में पतित होनेवाली हिन्दू नारियों की जितनी बड़ी संख्या मिलेगी और किसी जाति में नहीं।
बहुत आदमी भ्रम से यह समझ बैठे हैं कि जो ज्यादह काम करता है वह ज्यादह तन्दुरुस्त होता है। पर वास्तव में यह बात नहीं है । काम करने पर तन्दुरुस्ती नही, काम करनेके ढंग पर तन्दुरुस्तीका विचार होना चाहिए। रो रो कर और तबियत को विवश कर के जो काम किया जाता है वह तन्दुरुस्त आदमी का काम नही कहा जा सकता । हमारी स्त्रियां घरों में दासी रूपमें जो काम कर रही हैं वह भी इसी ढंगका काम है । लोग कहते हैं कि चक्की पीसने से और बरतन मांजने से तन्दुरुस्ती अच्छी रहती है। हम भी कहते हैं, वेशक, पर मैशीन की तरह दिन रात कामकरने, विश्राम और उपयुक्त आहार न मिलने पर वह चक्की और चौका उनके लिये आरोग्यप्रद चीजें हैं या रोगप्रद ? काम के बाद आराम और आराम के बाद काम, प्रकृति का साधारण नियम है । यदि इस नियम का अपवाद देखना हो तो हमारी स्त्रियों की अवस्था देखिये। ' जब तक हम अपनी स्त्रियों का आदर करना नहीं सीखेंगे, उनको खुली हवा
और प्रकाशमें नही रखेंगे, उनको दासीवत् रखने की वजाय गृहलक्ष्मीके रूपमें उनकी घरों में प्रतिष्ठा नहीं करेंगे और अपनी निकृष्ट वृत्तियों की पूर्तिका आला न समझ कर उनमें ठीक समय उपस्थित होने पर गर्भाधान न करेंगे उस समय तक वे भी मनुष्य रूपमें पशु और वीर विद्वानोंकी वजाय भीरु और मूर्ख पुरुष पैदा करना बंद नहीं करेंगी।
[वैद्य, अंक १]
युद्ध में एक सिपाही के मारने का खर्च। सारे भुमण्डल की समस्त जनसंख्या एक अरब पचहत्तर करोड़ (१७५००००००) है । जनसंख्या में प्रतिवर्ष सवा करोड़ की वृद्धि होती रहती है । क्योंकि आये साल आठ करोड़ बच्चे पैदा होते और पौने सात करोड़ मनुष्य मर जाते हैं । अर्थात् भूतल पर प्रतिदिन सवा दो लाख का जन्म, और पौने दो लाख की मृत्यु होती है। इस हिसाब से एक दिन में चालीस हज़ार की परिवृद्धि होजाती
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जैनहितैषी
है । सो यदि दिन रात निरन्तर कोई घातक अपनी सुतीक्ष्ण तलवारसे प्रतिक्षण मनुष्यों का एक एक सिर काटता रहे तो यमराजके कार्य में ( मरने में ) फी सैकड़ा एक की वृद्धि हो सके । इस ( यमराजकृत ) मृत्युसंख्या के सामने युद्ध की मृत्युसंख्या तुच्छ सी प्रतीत होती है ! रूस जापान युद्ध में दो लाख सैनिक मृत्यु के ग्रास बने थे । पर इस प्रवर्तमान युद्धमें प्रथम चार मासमें ही हत सैनिकोंकी संख्या पच्चीस तीस लाख तव बताई जाती है । यदि इसी गति से एक वर्ष तक यह युद्ध चलता रहे हैं सिर्फ इतना फर्क पड़ेगा कि सवाकरोड़ के स्थान में पच्चीस लाख ही जनसंख्या बढ़ सकेगी । रूस जापान के युद्ध में १०३ गोलियां एक सैनिक की हत्या पर खर्च आई थीं। और रूस टर्की की लड़ाईमें एक सिपाही को मारने पर ४७ हजार रुपया खर्च पड़ा था। रूस जापान में एक सैनिकके मारनेका खर्च साठ हजार रुपये से भी अधिक हुआ था । अर्थात् एक जान का नाश करनेके लिये एक मन सुवर्ण और एक हजार गोलियां या साठ हजार रुपये का खर्च होता है !! आजकल योरप इसी 'पुण्यकार्य' में लगा हुआ है, और इसी के लिये अपनी सम्पत्ति लुटा रहा है! इस युद्ध की समाप्ति पर फिर हिसाब जोड़ा जायगा कि कितने हज़ार पौंड एक एक हज़ार मनुष्यों की जान लेने में खर्च हुए।
[ भारतोदय, अंक ४३।]
पुस्तक-परिचय ।
१ प्रभुभक्ति । अनुवादक और प्रकाशक, एम. के. बोहरा-अजमेर । यह गुजरातीके-'निष्काम भक्ति ' नामक निबन्धका अनुवाद है। अनुवादक महाशयने मूल लेखकके नामका उल्लेख करनेको या उनके प्रति कृतज्ञता प्रकाश करनेकी कोई आवश्यकता न समझी। पर निबन्ध बहुत अच्छा है । बड़े ही अच्छे विचारोंसे भरा हुआ है। सहृदयजन इससे बहुत आनन्दलाभ करेंगे। क्या ही अच्छा होता यदि
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विविध प्रसंग.
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इसका अनुवाद भी अच्छा होता । भाषादोष, भावशैथिल्य, और अस्पष्टताकी भरमार है। गुजरातीपन जहाँ तहाँसे निकला पड़ता है । गुजरात के कई दोहे ज्योंके त्यों रख दिये हैं जिन्हें हिन्दी भाषाभाषी शायद ही समझें । पुस्तक मोटे मोटे अक्षरोंमें १०६ पृष्टोंपर छपी है। एक रुपया मूल्य बहुत अधिक है । हितैषीके टाइपमें यदि यह पुस्तक छपाई जावे तो इसका मूल्य चार आनेसे भी कम हो ।
२ संसारमें सुख कहाँ है ?
पृष्ठ संख्या १०८ । मूल्य दो आना । जैनतत्त्वप्रकाशिनी सभा का यह २६ वाँ ट्रेक्ट है । इसे पढ़कर हम बहुत ही प्रसन्न हुए । सभाने अबतक जितने ट्रेक्ट प्रकाशित किये हैं, उनमें यह सबसे अच्छा है । यह जैनहितेच्छुके सम्पादक श्रीयुत वाडीलाल मोतीलाल शाहके लिखे हुए एक गुजराती निबन्धका अनुवाद है । अनुवादक महाशय इतने परमार्थी हैं कि उन्होंने अपना नामतक प्रकाशित नहीं ोने दिया है | अनुवाद बहुत सरल और सुन्दर हुआ है । हम चाहते हैं कि हमारे प्रत्येक भाई इस नये ढंगसे लिखे हुए मार्मिक और शिक्षाप्रद निबन्धको पढ़ें और इस पर विचार करें । धर्मात्माओं को इसकी सौ सौ पचास प्रतियाँ लेकर जैनों और जैनेतरोंमें बाँटना चाहिए । बाबू चन्द्रसेनजी जैनवैद्य लेखकों क नाम प्रकाशित करनेमें बहुत प्रमाद करते हैं । अन्य ट्रेक्टों के समान इसमें भी उन्होंने यह प्रमाद किया है । 'वा. मो. शा. ' ' इतना लिखनेसे कोई लेखकका परिचय नहीं पा सकता; स्पष्ट लिखना चाहिए था । आजकल लेखका नाम - देखकर ही पुस्तक पढ़ने की इच्छा होती है ।
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३ इन्दिरा ।
लेखक, श्रीयुत बालचन्द्र रामचन्द्र कोठारी बी. ए. और प्रकाशक सुरस - ग्रन्थप्रसारक मंडली, गिरगांव बम्बई । मूल्य १) | मराठीका उपन्यास है । किसी भाषाका अनुवाद या रूपान्तर नहीं है, स्वतन्त्र लिखा गया है। इसमें एक स्त्रीके रहते हुए और उसके उदरकी एक विवाहयोग्य कन्या होते हुए भी पुत्रप्राप्तिकी इच्छासे बुढ़ापे में दूसरा विवाह करनेवाले एक धनिककी दुर्दशाका चित्र खींचा गया है। इसमें सन्देह नहीं कि स्वतंत्र रचनाके लिहाज़से कोठारीजीको इस पुस्त
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जैनहितैषी
कके लिखनेमें बहुत कुछ सफलता प्राप्त हुई है; उनकी रचनाशैली बतलाती है कि कालान्तरमें वे एक अच्छे उपन्यास लेखक हो जावेंगे; परन्तु उन्होंने जिन विचारोंको कई पात्रोंके चरित्रोंके भीतरसे प्रकट किये हैं वे ठीक नहीं । विधवाविवाहके अनुयायी और सुधारक भी उन्हें पसन्द नहीं कर सकते। असंयमी और अपनी स्त्रीको आत्महत्या करनेमें तत्पर करनेवाले पुरुष भी यदि सुधारक बन सकते हैं और रामचन्द्रपंत जैसे सच्चरित्र पुरुषोंकी भी अनुमतिसे इन्दिराको प्राप्त कर सकते हैं तो हमारी समझमें वह सुधारकत्व आदर्श नहीं बन सकता। प्रभाकर और इन्दिरा दोनोंहीका चरित्र यदि उज्वल बनानेका प्रयत्न किया जाता तो पाठकों पर अच्छा प्रभाव पड़ता । उपन्यासमें अस्वाभाविकता भी बहुत आ गई है।
४ जैनतीर्थयात्रा दीपक।। लेखक, फतेहचन्द्र इन्द्रप्रस्थनिवासी । मिलनेका पता, पुस्तकालय जैनपाठशाला धर्मपुरा, देहली । मूल्य चार आना । इसमें तमाम जैनतीर्थोका और मार्ग में मिलनेवाले शहरोंका यात्रोपयोगी वर्णन है। रेल-मार्ग, किराया आदि भी बतलाया है । पुस्तक छोटी होनेपर भी कामकी है । यात्रियोंको इसकी एक एक प्रति साथ रखना चाहिए।
५ शिवराम भजनसंग्रह। कर्ती, मास्टर शिवरामसिंहजी, जैनपाठशाला रोहतक । प्रकाशक, धर्मप्रकाशिनी जैनसभा, रोहतक। इसमें 'जातिसुधार और धर्मप्रचार विषयक नई तर्जके ६० जोशीले भोजन हैं।' मास्टर शिवरामसिंहजी नेत्रहीन है; परन्तु बड़े जोशीले और स्वार्थत्यागी काम करनेवाले हैं। रोहतक पाठशालाकी आप वर्षोंसे अवैतनिक सेवा कर रहे हैं। उनकी यह रचना देखकर प्रसन्नता होती है। भजन साधारणतः अच्छे हैं । ६० पृष्ठकी पुस्तकका मूल्य दो आना अधिक नहीं है।
६ हनुमानचरित नौविल भूमिका। हाईस्कूल बुलन्दशहरके मास्टर लाला बिहारीलालजी वी. ए. जैन इसके लेखक और प्रकाशक हैं । आपने उर्दूमें 'हनुमानचरित ' नामका एक नौविल
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या उपन्यास लिखा है । यह छोटीसी पुस्तक उसकी भूमिका है। इसमें बतलाया है कि हनुमान वानर या बन्दर नहीं थे, वे जैनशास्त्रोंके अनुसार एक प्रतिष्ठित कुलके वीर पुरुष थे। जो लोग उन्हें बन्दर कहते हैं वे गलती पर हैं । भाषा अच्छी है । यह मालूम न हुआ कि उर्दू उपन्यासकी भूमिका हिन्दीमें छपानेकी क्या अवश्यकता थी।
७ अनमोल बूटी। इसके लेखक भी उक्त मास्टर साहब हैं । यह एक अपूर्व पुस्तक है । इसमें अर्क या आक ( मदार ) वक्षकी जड़ों, डालियों, पत्तों, फूलों फलोंसे सैकड़ों तरहके रोगोंको आराम करनेकी तरकीबें लिखी हैं । प्रत्येक रोगके लक्षण, उनमें यह बूटी देनेकी विधि, परहेज़ आदि भी लिखे हैं । दवा बड़ी सस्ती और सब जगह सुलभ है । परीक्षा करके देखना चाहिए । पुस्तककी भाषा कठिन उर्दू है, यदि कुछ सुभीता है तो यह कि नागरी अक्षरोंमें छपी है। यदि सरल हिन्दीमें लिखी गई होती तो इससे बहुत उपकार होता । मूल्य साढ़े चार आने।
८ विज्ञानप्रवेशिका। प्रयागमें एक विज्ञानपरिषत् स्थापित हुई है । वह देशी भाषाओंमें विज्ञानसम्बन्धी पुस्तकें निकालेगी। यह उसकी पहली पुस्तक है। इसके लेखक हैं श्रीयुक्त रामदास गौड़ एम. ए. तथा शालग्राम भार्गव एम. एस. सी. । लेखकोंके नामसे ही इस पुस्तककी उत्तमताका पता लग सकता है। बहुत ही सरलतासे सुगम भाषामें यह पुस्तक लिखी गई है । बालकोंको इस विषयका बोध करानेका इससे सहज ढंग शायद ही कोई और हो । हिन्दीमें सरल विज्ञानकी सबसे अच्छी यही पुस्तक है । जैनपाठशालाओंमें इसके पढ़ानेका प्रबन्ध अवश्य करना चाहिए। इसके पढ़ानेमें जो सामान आवश्यक होता है उसका मूल्य तीन रुपयाके करीब है । पुस्तकका मूल्य ३) है।
असली जैनपंचांग । ज्योतिषरत्न पं० जियालालजी जैनीका पंचांग विक्रीके लिए तैयार है । मूल्य दो आना । पांचके मूल्यमें छह ।
जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय-बम्बई।
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पवित्र असली
० वर्षका
सैकड़ों प्रशंसापत्र प्राप्त
हाजमेकी
प्रसिद्ध अक्सीर दवा
आजमूदा
धमकसलमाना
फायदा न करे तो दाम वापस. मिलने का पता
क10 सा
एक द) डा० अलम
इटावा.
दहुतमन - दादकी अकसीर दवा फी डबी दन्तकुमार - दांतोंकी रामबाण दवा | डवी नाट भव रोगोंकी तत्काल गुण दिखानेवाली दबाओंकी बड़ी सूची
धोका होगा
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(१)
PR--
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चित्रशाला स्टीम प्रेस, पूना सिटीकी
अनोखी पुस्तकें।
चित्रमयजगत्-यह अपने ढंगका अद्वितीय सचित्र मासिकपत्र है। “ इलेस्ट्रेटेड लंडन न्यूज" के ढंग पर बड़े साइजमें निकलता है । एक एक पृष्ठमें कई कई चित्र होते हैं । चित्रोंके अनुसार लेख भी विविध विषयके रहते हैं । साल भरकी १२ कापियोंको एकमें बंधा लेनेसे कोई ४००, ५०० चित्रोंका मनोहर अलबम बन जाता है । जनवरी १९१३ से इसमें विषेष उन्नति की गई है । रंगीन चित्र भी इसमें रहते हैं । आटपेपरके संस्करणका वार्षिक मूल्य ५॥) डाँ० व्य० सहित और एक संख्याको मूल्य ॥ ) आना है । साधारण कागजका वा० मू. ३॥) और एक संख्याका ।- ) है।
राजा रविवर्माके प्रसिद्ध चित्र-राजा साहबके चित्र संसारमरभरमें नाम पा चुके हैं। उन्हीं चित्रोंको अब हमने सबके सुभीतेके लिये आर्ट पेपरपर पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया है । इस पुस्तककें ८८ चित्र मय विवरणके हैं । राजा साहबका सचित्र चरित्र भी है। टाइटल पेज एक प्रसिद्ध रंगीन चित्रसे सुशोभित है । मूल्य हैं सिर्फ १) रु. !
चित्रमय जापान-घर बैठे जपानकी सैर । इस पुस्तकमें जापानके सृष्टि. सौंदर्य, रीतिरवाज, खानपान, नृत्य, गायनवादन, व्यवसाय, धर्मविषयक और राजकीय, इत्यादि विषयों के ८४ चित्र, संक्षिप्त विवरण सहित हैं। पुस्तक अव्वल नम्बरके आर्ट पेपर पर छपी है । मूल्य एक रुपया।
सचित्र अक्षरबोध-छोटे २ वनोंको वर्णपरिचय करानेमें यह पुस्तक -- बहुत नाम पा चुकी है । अक्षरोंके साथ साथ प्रत्येक अक्षरको बतानेवाली, उसी अक्षरके आदिवाली वस्तुका रंगीन चित्र भी दिया है । पुस्तकका आकार बड़ा है। जिससे चित्र और अक्षर सब सुशोभित देख पड़ते हैं । मूल्य छह आना।
वर्णमालाके रंगीन ताश-ताशोंके खेलके साथ साथ बच्चोंके वर्णपरिचय करानेके लिये हमने ताश निकाले हैं। सब ताशोंमें अक्षरों के साथ रंगीन चित्र और खेलनेके चिन्ह भी हैं । अवश्य देखिये। फी सेट चार आने ।
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(२)
सचित्र अक्षरलिपि-यह पुस्तक भी उययुक्त “ सचित्र अक्षबोध" के ढंगकी है । इसमें बाराखडी और छोटे छोटे शब्द भी दिये हैं । वस्तुचित्र सव रंगीन हैं । आकार उक्त पुस्तकसे छोटा है । इसीसे इसका मूल्य दो आने हैं।
सस्ते रंगीन चित्र-श्रीदत्तात्रय, श्रीगणपति, रा पंचायतन, भरतभेट हनुमान, शिवपंचायतन, सरस्वती, लक्ष्मी, मुरलीधर, विष्णु, लक्ष्मी, गोपीचन्द, अहिल्या, शकुन्तला, मेनका, तिलोत्तमा, रामवनवास, गजेंद्र मोक्ष, हरिहर भेट, मार्कण्डेय, रम्भा, मानिनी, रामधनुर्विद्याशिक्षण, अहिल्योद्धार, विश्वामित्र मेनका, गायत्री, मनोरमा, मालती, दमयन्ती और हंस, शेषयायी, दमयन्ती इत्यादिके सुन्दर रंगीन चित्र । आकार 'x'', मुख्य प्रति चित्र एक पैसा ।।
श्री सयाजीराव गायकवाड बड़ोदा, महाराज पंचम जाज और महारनी मेरी, कृष्णशिष्टाई, स्वर्गीय महाराज सप्तम एडवर्डके रंगीन चित्र, आकार ८५१० मूल्य प्रति संख्या एक आना।
लिथोके बढियाँ रंगीन चित्र-गायत्री, प्रातःसन्ध्या, मध्याह्न सन्ध्या, सायंसन्ध्या प्रत्येक चित्र । ) और चारों मिलकर ॥ ) नानक पंथके दस गुरू, स्वामी दयानन्द सरस्वती, शिवपंचायतन, रामपंचायतन, महाराज जार्ज, महारानी मेरीं । आकार १६४२० मूल्य प्रति चित्र । ) आने ।
अन्य सामान्य-इसके सिवाय सचित्र कार्ड, रंयीन और सादे. स्वदेशी बटन, स्वदेशी दियासलाई. स्वदेशी चाकू, ऐतिहासिक रंगीन खेलनेश ताश, आधुनिक देशभक्त. ऐतिहासिक राजा महाराजा, वादशाह, सरदार, अंग्रेजी राजकर्ता. गवर्नर जनरल इत्यादिके सादे गिन उचित और सस्ते मल्य पर मिलते हैं । स्कूलोंमें किंडरगार्डन रीतिसे शिक्षा दनक लि जानवरों आदिके चित्र सब प्रकारके रंगीन नकशे, डाईगका सामान, भी योग्य मूल्यपर मिलता है। इस पतेपर पत्रव्यवहार कीजिये ।
मैनेजर चित्रशाला प्रेस,
पूना सिटी।
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स्त्रियोंके पढ़ने योग्य नई पुस्तकें ।
सदाचार, पातिव्रत, गृहकर्म, शिशुपालन आदिकी शिक्षा देनेवाली सरल भाषामें लिखी हुई स्त्रियोपयोगी पुस्तकोंकी जैनसमाजमें बहुत जरूरत है । यह देखकर हमने नीचे लिखी पुस्तकें मँगाकर विक्रीके लिए रक्खी हैं । प्रत्येक स्त्रीकों ये पुस्तक पढ़ना चाहिए । इनके पढ़ने में जी भी खूब लगता है ।
१ सरस्वती - गृहस्थजीवनका बहुत ही शिक्षाप्रद उपन्यास । बड़ा ही दिलचस्प है । मूल्य १ ) पक्की जिल्दका १1 ) २ वरिवधू - चौहानराजा पृथ्वीराज और उसकी वीर रानी संयोगिताका वीररसपूर्ण चरित्र । पाँच बहुत ही सुन्दर चित्र कई 1 रंगों से छपे हुए हैं। मू० 11)
३ आदर्श परिवार—प्रत्येक कुटुम्बमें पढेजाने योग्य । मू०||) । ४ शान्ता - एक आदर्शस्त्रीका चरित्र । मू० ॥) ५ लक्ष्मी
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६ कन्या- सदाचार — लड़कियों के कामकी । मू० ।) ७ कन्यापत्रदर्पण-
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म० ) ८ बनवासिनी — बहुत ही हृदयद्रावक उपन्यास । मृ० ।) ९ गृहिणीभूषण — इसकी शिक्षायें बहुतही पवित्र हैं। मू.।।) मँगानेका पता
मैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, गिरगांव बम्बई ।
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Printed by Nathuram Premi at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society's Building, Sandhurst Road, Girgaon Bombay, & Published by Nathuram Premi at Hirabag, Near C. P. Tank Girgaon Dombate Use Only
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________________ कलकत्ते के प्रसिद्ध डाक्तर बर्मन की कठिन रोगों की सहज दवाएं। गत 30 वर्ष से सारे हिन्दुस्थानमैं घर घर प्रचलित हैं। विशेष विज्ञापन की कोई आवश्यक्ता नहीं है, केवल कई एक दवाइयों का नाम नीचे देते हैं। हैज़ा गर्मी के दस्त में पेट दर्द,बादीके लक्षण मिटाने में असल अर्ककपूर अकंपूदीना [ सब्ज] मोल / डाःमः-१ से४ शीशी मोल "डाःमः / आने / अन्दरके अथवा बाहरी पेचिश, मरोड़,ऐठन, शूल, आंव | दर्दमिटानेमें के दस्तमें पेन हीलर क्लोरोडिन मोल // डाः मः।- पांच आने मोल / दर्जन रुपया सहज और हलका जुलाबके लि कलेज की कमजोरी मिटाने में जुलाबकी गोली और बल बढ़ाने में- 2 गोली रातको खाकर सोवे कोला टोनिक १६गोलियोंकी डिब्बी डाःमः सबेरे खुलासा दस्त होगा। मोल 1 ) डाः। आने / 1 से 8 तक। पांच आने. पूरे हाल की पुस्तक विना मूल्य मिलती है दवा सब जगह हमारे एजेन्ट और दवा फरोशोंके पास मिलेगी अथवा डाः एस,के,बमेन ५,६,ताराचंद दत्त ष्ट्रौट कलकता। Jain Education Internationa 31 + startersonal Private Use only--3-94 www.ainelibrary.org