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जैनहितैषी
चीवर है या नहीं, इस तरहके वे प्रश्न होते हैं । इसके नाद वे संघसे पूछते हैं कि आपलोग कहिए कि यह मनुष्य संघमें शामिल किया जाय या नहीं । इस तरह तीन वार पूछने पर भी यदि कोई विरोध नहीं करता था तो वह उपाध्यायको सौंप दिया जाता था और उनके पास वह सन्यासधर्मके कर्तव्य सीखता था । सीख जानेपर उसमें और उपाध्यायमें कोई भेद न रहता था। संघमें दोनोंका बराबर अधिकार हो जाता था। महायान सम्प्रदायके बौद्ध उपाध्यायको 'कल्याण मित्र' कहते हैं । इससे मालूम होता है कि उनका गुरुशिष्य जैसा सम्बन्ध नहीं है; परलोककी कल्याणकामनासे गुरु शिष्यका केवल मित्र है । इस सम्प्रदायके अनुयायी दर्शनशास्त्रकी खूब चर्चा करते हैं।
धीरे धीरे जब एक बड़ा भारी समूह गृहस्थाभिक्षु बन बैठा तब दर्शनशास्त्र पढ़ना और योगध्यान काठन प्रतति होने लगा। उस समय ' मंत्रयान' की उत्पत्ति हुई । इसके अनुसार एक मंत्रजाप करनेसे ही सारे धर्मकर्मों का फल पाया जा सकता है । इस विश्वासकी वृद्धिके साथ साथ गुरु शिष्यका सम्बन्ध खूब दृढ होता गया और आगे तो गुरुभक्तिकी-गुरुसेवाकी-हद्द ही हो गई । भारतके एक सम्प्रदायमें अब भी इस प्रकारका विश्वास प्रचलित है कि शिष्य गुरुका दास है, उसके पास जो कुछ है-वह स्वयं आर उसकी स्त्री कन्या तक-सब गुरुकी हैं । इस मतका मूल मंत्रयांन ही है।
वज्रयान ' सम्प्रदायमें गुरुकी प्रतिष्ठा और भी बढ़ गई; वे ईश्वरके तुल्य बन बैठे।
'सहजयान ' में गुरुका उपदेश ही सब कुछ है। गुरुके उपदेशसे यदि महापाप भी किया जाय तो उससे महापुण्य होता है । इस तरह बौद्धधर्मके परिवर्तनके साथ साथ गुरुका सम्मान बढ़ता चला गया। __ 'कालचक्रयान' में गुरु अवलोकितेश्वरका अवतार माना जाता है । ' लामायान ' में तो सब ही लामा किसी न किसी बोधिसत्त्वके अवतार होते हैं। वे साक्षात् सर्वदर्शी सर्वज्ञ माने जाते हैं। 'लामायान' आगे 'दलाई-लामायान' के रूपमें परिणत हो गया है । वे अवलोकितेश्वरके अवतार हैं, कभी मरते नहीं हैं, उनका शरीर बीच बीचमें नया निर्माण होता है । बौद्धधर्मकी इन बातोंने न्यूनाधिक्यरूपसे हिन्दूधर्ममें भी स्थान पा लिया है।
-महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री।
[बंगला प्रवासी।]
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