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________________ एक चिट्ठी। २२५ ममय इस देशको-विशेष करके जैनसमाजको-उस तरकीबके जान लेनेकी बड़ी भारी जरूरत है। मेरी खण्डेलवाल जातिकी तो इसके बिना बड़ी ही दुर्दशा हो रही है। मेरे जैसे हजारों युवक ऐसे हैं जो केवल एक ही एक स्त्रीकी प्राप्तिके लिए इस समय चाहे जो करनेके लिए तैयार हैं। हम लोगोंके दुःखोंका कुछ पार नहीं है । उन दुःखोंका अनुभव आप जैसे हज़ारों पत्नियोंके स्वामी कदापि नहीं कर सकते । हमारी जातिके धनी मानी पंच मुखिया भी-जिनके कि केवल एक ही एक पत्नी ( किसी किसीके दो दो चार चार उपपत्नियां भी ) है-जब हमारे दुःखका अनुभव नहीं कर सकते तत्र आपसे तो उम्मेद ही क्या की जा सकती है ? • इस परम दुःखमे मुक्त होनेके लिए यदि आप वह तरकीब बतला देंगे तो हम लोगोंका बड़ा भारी कल्याण होगा। आपके प्यारे जैनधर्मकी नीव इस समय डगमगा रही है । बड़ी तेजीसे जैनोंकी संख्याका हाम हो रहा है । यदि आपने स्त्रीप्राप्तिका उपाय न बतलाया तो फिर आशा नहीं है कि यह समाज जीवित बना रहेगा । कमसे कम मेरे लिए तो आप अवश्य ही कुछ उपाय बतला दीजिएगा। हाँ, आदिपुगणमे मालूम होता है आप बड़े भारी सुधारक या रिफार्मर थे । आपने दान पुण्य करनेके लिए एक नया वर्ण स्थापित किया था । देशकालकी ज़रूरतके अनुसार समाजसंघटना करनेके सुधारकोंके तत्त्वको आप मानते थे। अच्छा तो ऐसा ही कोई उपाय बतलाइए. जो हम एक नये वर्णकी स्थापना ही कर डालें । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522803
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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