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________________ आचारकी उन्नति । २१७ 1 आजकल सबसे अधिक अवनति आचारके सम्बन्धमें बतलाई जाती है । जिससे पूछिए वही कहता है कि क्या किया जाय ? कालका दीप है | आचार-विचार ( चौके-चूल्हेकी पवित्रता, छुआछूत, पानी ढालना आदि ) तो आजकल रहा ही नहीं है; अँगरेजी सभ्यतांक प्रवाहमें सारी शुद्धता वही जा रही है । परन्तु मेरी समझ में यह बात किसी अंशमं ठीक होकर भी सर्वथा सत्य नहीं है । क्योंकि जिस तरह एक दल इस आचारमे पराङ्मुख होता जाता है उसी तरह एक दल इस आचारका सीमासे अधिक अनन्यभक्त भी होता जाता है। बाहरी शुद्धता या पवित्रता उसने इतनी तरक्की की है कि जिससे अधिक शुद्धता जड़ पदार्थोंको छोड़कर किसी सचेतन - पदार्थ संभव ही नही | इस तरह की शुद्धता या पवित्रता जनसमाज अन्य किसी समाजसे पीछे नहीं है। मालवा, बुन्देलखण्ड आदि प्रान्त इस विषय में बहुत बढ़े हैं। कुछ समय पहले क्षुल्लकऐलकों के जमाने से पहलेएक बाबाजी थे । उनका नाम मैं भूल गया हूँ । श्रद्धालु जैनसमाज में उनकी बड़ी ही पूजा होती थी। पढ़े लिखे वे शायद बिल्कुल न थे; परन्तु पवित्रताके तो आदर्श थे । उनका सारा दिन पवित्र भोजनसामग्री जुटाने में ही व्यतीत हो जाता था । उनके लिए अनाज धोया जाता था. चक्की घोई जाती थी. चौकेचूल्हे की धुलाई पुताई होती थी और रसोई बनानेवाला तो धुलाई के मारे - नहाते नहाते और हाथ धोते धोते--तंग आ जाता था । बाबाजी दूध भी पीते थे; परन्तु उनके लिए सेरभर दूध जुटाने में श्रावकों को छटीका दूध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522803
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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