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________________ २१८ जैनहितैषी याद आ जाता था ! गाय या भैंस छने हुए जलसे नहलाधुलाकर सूखी जमीनमें बाँधी जाती थी। उसके खानेको सूखा घास और पीनेके लिए तत्कालका छाना हुआ शुद्ध जल दिया जाता था। उसका मलमूत्र एक टोकनी या बर्तनमें ऊपरका ऊपर ले लेनेके लिए एक आदमी मुकरर्र किया जाता था । दूध दुहनेके समय गाय फिर नहलाई जाती थी। इसके बाद दुहनेवाला नहाता था और फिर उसकी अँगुलियोंकी और नखोंकी परीक्षा की जाती थी ! यदि जरा भी नख बढे हुए होते थे तो उन्हें , पत्थर पर घिस डालनेके लिए कहा जाता था ! जबतक नखाग्र भागमें रक्तकी ललाई न झलकने लगती थी तब तक बाबाजीको उनके पवित्र और निर्मल होनेके विषयमें विश्वास नहीं होता था । इस तरह बड़े भारी परिश्रम और प्रयत्नोंके बाद बाबाजीका पवित्रतर पेट उस पवित्र दुग्धको अपने द्वार पर आनेकी आज्ञा देता था ।आचार तत्त्वकी इस सूक्ष्मता कष्टसाध्यता और जटिलताको देखकर भक्तजन गद्गद होजाते थे। ___ कुछ वर्ष पहले मैंने एक त्यागी बाबाजीके दर्शन और भी किये थे। वे कर्णाटक देशके थे। अपनी आहारशुद्धिके विषयमें वे कितनी सावधानी रखते थे इसका पता इसी एक बातसे लग जायगा कि वे आटा भी अपने हाथसे पीसते थे ! स्वावलम्बन-शीलता उनकी इतनी बढी चढी थी कि वर्तन माँजने और पानी भरनेमें भी वे किसी दूसरेको हाथ न लगाने देते थे ! . शुद्धाम्नायके स्तंभ एक सेठजीके विषयमें सुनते हैं कि वे अपने बाँयें हाथको, अतिशय अपवित्र समझकर चौकेके भीतर बैठने पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522803
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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