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________________ आचारकी उन्नति । २१९ . भी, उसे बाहर रखते थे ! चौकेके बाहर खड़े होकर यदि भीतर चौकेके लोटे में पानी डाल दिया जाय तो बाहर के लोटेकी धाराका सम्बन्ध होनेके कारण चौकेकी शुद्धता उसी समय हवा हो जाती थी और बाहरका लोटा तो इसके भी पहले ' सखरा ' हो जाता था ! पहले मेरा ख़याल था कि इस तरहकी पवित्रता पवित्र जैनसमाजमें ही होगी; इस विषय में और कोई समाज उसकी बराबरी न कर सकेगा । परन्तु अभी मुझे एक नये सम्प्रदायका पता लगा है जिसमें एक बिलकुल नई तरह के पवित्र जीवधारी देखे गये हैं । इन्हें इधर के लोग मर्जादी या मर्यादी कहते हैं। लोग कहते तो हैं कि ये वैष्णव हैं, परन्तु मेरी समझमें ये जलके उपासक हैं । मछलीको छोड़कर संसारके और किसी जीवमें इनके बराबर जलभक्ति नहीं पाई जा सकती । सौभाग्यसे इन दिनों मैं जिस स्थानमें रहता हूँ वहाँ दो मर्जादी रहते हैं । एक तो मेरे बिलकुल पड़ोस में है । मर्जादियोंकी जातिके या कुटुम्बके सब लोग मर्जादी नहीं होते; जो आदमी मर्यादा धर्मकी दीक्षा ले लेता है उसीको यह संज्ञा प्राप्त होती है । अपने इष्ट - देवकी उपासना करनेका इन लोगोंको खास अधिकार प्राप्त होता है । मर्ज़ादी उसके हाथका भोजन नहीं कर सकता जो मर्जादी न हो । हमारे पड़ोसी अपनी माताके हाथकी बनाई रसोई नहीं जीमते; परन्तु अपनी श्रीमतीके हाथकी बड़े प्रेमसे जीते हैं । उनकी श्रीमती दीक्षित हैं । जलके परम भक्त होने पर भी वे नलके जलसे इतनी घृणा करते हैं जितनी कि लश्करके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522803
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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