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________________ २३२ जैनहितैषी शास्त्रोंके बाहर और भी कुछ ज्ञान है, इस बातका अस्तित्व ही मानों उसके विश्वासमें नहीं है । जैनोंकी पाठशालाओंमें, विद्यालयोंमें, उपदेशकसभाओंमें, बैठकों में, जहाँ देखिए वहाँ ही धर्मशास्त्रोंके सिवाय दूसरी बात नहीं । इतना होने पर भी हम देखते हैं कि इस समय धर्मग्रन्थोंके जिन भीतरी रहस्योंकी-मर्मस्थानोंकी थाह लेनेकी आवश्यकता है उनका ज्ञान जैनसमाजके बहुत ही कम विद्वानोंको है । केवल ऊपरी बातोंमें, तोते जैसी रटन्तमें, चर्वितचर्वणमें ही लोग फंसे रहते हैं, शास्त्रोंके भीतर गहराईमें जानेकी मस्तक लड़ानेकी ओर किसीका ध्यान ही नहीं है । जो पुराने ढंगके केवल संस्कृतके पण्डित हैं और जिन्हें यथेष्ट अवकाश है न वे ही कुछ परिश्रम करते हैं और न अँगरेजीकी ऊँची शिक्षा, पाये हुए बाबू लोगोंका ही इस ओर ध्यान है। बाबू लोगोंका प्रमाद तो इस विषयमें बहुत ही बढ़ा चढा है । धर्मशास्त्रोंकी साधारण बातोंका ज्ञान भी उनमेंसे बहुत कम लोगोंमें देखा जाता है । वे जैनसमाजमें काम तो करना चाहते हैं; पर उनसे काम होता नहीं। जैनसमाजके विश्वासोंकी रचना ही कुछ ऐसी है कि उसमें धार्मिक ज्ञानके बिना कोई काम नहीं कर सकता और इस कारण उन्हें निराश होकर बैठ रहना पड़ता है। ___ इस समय जैनधर्मके तत्त्वोंका जैनेतरोंमें प्रचार करनेके लिए भी सभी लोग लालायित हैं । पण्डितमण्डली देशमें और बाबू मण्डली विदेशोंमें जैनधर्मका प्रचार करना चाहती है। इसके लिए कुछ संस्थायें भी स्थापित हो चुकी हैं, परन्तु हमारी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522803
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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