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________________ जैनहितैषी - एक इस कलियुग या पंचमकालमें भी बहुत से सतयुगी जीवोंका अस्तित्व बना हुआ है और यदि प्रयत्न किया जायगा तो इनका सम्प्रदाय खासा बढ़ सकता है । अच्छा हो यदि इसके लिए आन्दोलन किया जाय और कोई अच्छी सुजला भूमि देखकर दो चार आश्रम इनके लिए स्थापित कर दिये जायँ । - पवित्रात्मा । २२२ एक चिट्ठी । श्रीमान् महाराजाधिराज भरत चक्रवर्तीकी सेवामें । म हाशय, सबसे पहले मैं यह निवेदन कर देना चाहता हूँ कि आजकल यहाँ पर होलीके दिन हैं । इन दिनोंमें यहाँ हँसी दिल्लगी करनेका रिवाज़ झूठ सचका पृथक्करण करना इस समय बड़े बड़े मानसिक-रसायन-विशारदोंके लिए भी कठिन है। इसलिए कहीं आप मेरी इस चिट्ठीको निरीदिल्लगी न समझ लीजिएगा । मुझे हँसी दिल्लगीका ज़रा भी शौक़ नहीं और इन दिनोंमें जब कि देश दुर्दशाप्रसिन हो रहा है होली मनानेको कोई भी सहृदय अच्छा नहीं समझ सकता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522803
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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