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________________ २६० जैनहितैषी देगा।" परन्तु कर्तव्यपरायण समाजके वीर तो ऐसे होते हैं कि वे जिस व्यक्तिको या जिस सिद्धान्तको चाहते हैं, उसके लिए अपना सर्वस्त अर्पण कर देते हैं- स्वात्मार्पण' यही उनका 'मोटो' या मुद्रालेख | होता है। ऐसे ही वीरोंके बीचमें काम करनेका उत्साह होता है। हमारे जैन भाइयोंकी-वणिक् महाशयोंकी तो यह दशा है कि अपने एक समाजसेवकके लिए न्यायप्रिय ब्रिटिश सरकारके प्रति प्रार्थना करनेरूप कर्तव्यप्रेम बतलानेमें भी उन्हें बहुत कुछ आगापीछा सोचना पड़ता है। शायद प्रतापके सम्पादक महाशयको यह मालूम नहीं है कि हमारा जैनसमाज तीन सम्प्रदाय और तेरह सौ विभागोंमें बँटा हुआ है और प्रत्येक सम्प्रदाय या विभाग दूसरे सम्प्रदायके प्रति प्रायः घृणा अथवा उदासीन भाव रखनेवाला है। बल्कि इसमें तो ऐसे सजनोंका भी अभाव नहीं हैं जो तीनों सम्प्रदायोंके बीच एकता बढानेका प्रयत्न करनेवाले सेठी जैसे पुरुषोंको कष्ट देने तकके लिए तैयार हो सकते हैं । मैंने स्वयं कितने ही पढ़े लिखे श्वेताम्बर और स्थानकवासी जैनोंके मुँहसे इस आशयके शब्द सुने हैं कि अर्जुनलाल दिगम्बर है, तब हमारा उसकी आपत्तिविपत्तिसे क्या सम्बन्ध है ? वह मरे चाहे जीवे, इससे हमें क्या ? समझमें नहीं आता कि ऐसे लोगोंको कौन सा विशेषग दिया जावे; इन्हें दुष्ट या धर्महीन कह देने मात्रसे तो हृदयको जरा भी सन्तोष नहीं होता है। जिन महावीर भगवानने मनुष्य ही नहीं जीवमात्रको एक मैत्रीसूत्रमें बाँधनेकी-परस्पर साम्य और भ्रातृभाव स्थापित करनेकी शिक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522803
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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