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________________ २०६ जैनहितैषी रहे । आत्माको शुद्ध करनेका यही उपाय हो सकता है कि आत्माके स्वभावको ग्रहण किया जाय और पुद्गलके स्वभावको छोड़ा जाय । इस बातको पूरी तौरसे अपने दिलमें रक्खा जाय कि पुद्गल आत्मासे भिन्न है । पुद्गलका धर्म आत्माका धर्म नहीं हो सकता और आत्माका धर्म पुद्गलका धर्म नहीं हो सकता। पुद्गलके धर्मने आत्माके धर्मको मैला और खराब कर रक्खा है। पुद्गलके धर्मके असरसे आत्मा पुद्गलमें अपना आत्मा मानता है । पुद्गलकी सुंदरता और असुंदरताको देखकर रागद्वेष करता है। रागद्वेष आत्माका स्वभाव नहीं है । पुद्गलके निमित्तसे आत्माके ज्ञानमें खराबी आरही है। वास्तवमें आत्माका ज्ञान ऐसा निर्मल और विस्ताररूप है कि समस्त लोक अलोक और सम्पूर्णब्रह्मांडके पदार्थ अपनी भूत भविष्यत् वर्तमान तीनों कालकी पर्यायांसहित उसमें एक समयमें ही दिखलाई दिये जा सकते हैं । परंतु पुद्गलके संयोगसे आत्माका ज्ञान बहुत ही मैला और तंग होरहा है । अतएव आत्माके ज्ञानकी असली अवस्थाको प्राप्त करना ही सबसे बड़ा कर्तव्य है। ___ अब प्रश्न यह है कि मनुष्य अपनी आत्माके असली स्वभावको किस तरह प्राप्त करे । यह जब ही हो सकता है जब कि मनुष्य यह जाने कि आत्माका धर्म क्या है। पुद्गल क्या है। पुद्गलका संयोग आत्माके साथ किस तरह और क्यों हो रहा है। किन उपायोंसे आत्मा पुद्गलसे पृथक् किया जा सकता है । इन ही सिद्धांतोंका नाम · जैनधर्म' है। यही सिद्धांत सम्पूर्ण मतोंकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522803
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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