Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 70
________________ २५८ जैनहितैषी भी शामिल नहीं हुए हैं । षड़यंत्र, खून-खराबी, उपद्रव आदि बाते उनकी प्रकृति और उनके परम पवित्र मिशनके अनुकूल कदापि नहीं हो सकती । जैनजातिका उन्होंने इतना उपकार किया है कि उसका ऋण वह अनेक पीढ़ियों तक भी न चुका सकेगी । जयपुर राज्यकी जैन प्रनामें साथ ही अजैन प्रजामें भी उन्होंने जो धार्मिकभावनाओंकी वृद्धिका तथा शिक्षाप्रचारका कार्य किया है, उससे वे जयपुर राज्यके भी बड़े भारी उपकारी हैं। ऐसी अवस्थामें भी उन्हें उनका राज्य--उनका ही स्वदेश राज्य किसी भी प्रकारका अपराध प्रमाणित किये बिना जेलमें ठूस देता है, यह क्या उस आघातसे हलका आघात है जो रानी पिं. गलाने भर्तृहरिके प्रेमपूर्ण विश्वस्त हृदय पर किया था ? प्रसन्नतापू. र्वक-निःस्वार्थतापूर्वक की हुई जनसाधारणकी सेवाका यह कितना भयंकर बदला है ! धिक्कार है उस समाजको-उस जैन समाजको कि जिसने एक मनुष्यसे वर्षों सेवा करानेके बाद उसके कष्टके समय अपनी आँखें बन्द कर लीं और अपनी साहजिक वणिक्बुद्धि बतला दी ! अर्जुनलाल, तुम्हें भी धिक्कार है कि तुमने गुणहीनोंकी सेवा की ! धिक्कार है उस सत्ताके महान् मदको या गर्वको कि जिसने जयपुरनरेशके कान ऐसे बहरे कर दिये कि दुःखिनी अबला और सैकड़ों प्रजाजनोंकी करुणापूर्ण पुकार भी उन तक न पहुँची और उसका उत्तर देनेकी भी जिसके कारण आवश्यकता न समझी गई ! और धिक्कार है राज्यके अमलदारोंकी उस बुद्धिको जिसने तुम्हारे कारण अपना-अपने राज्यका गौरव समझनेके बदले तुम्हें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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