Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ सेठीजीका मामला। २५७ ___ पं० अर्जुलालजी सेठीके दुर्भाग्यका वर्णन गतांकमें हो चुके है । आज मैं उक्त महात्माके विषयमें अपना निजी अनुभव प्रकट करना चाहता हूँ । न जाने कितने धार्मिक सम्मेलनोंमें मैंने उन्हें देखा है, उनसे वार्तालाप किया है, उनके धर्मभावनाओंसे भरे हुए व्याख्यानोंको सुना है, दो तीन अवसरों पर तो उनके साथ दिन दिन रातरातपर्यंत निवास किया है और उस समय उनके निजी जीवनका उनके हृदयका-उनके आशयोंका गहरा अभ्यास किया है। मैंने उनका प्रखर आत्मत्यागसे चलनेवाला आदर्श विद्यालय देखा है और उसमें जो शिक्षा दी जाती थी उसकी जाँच की है। उनके रचे हुए धर्म भावनामय नाटकके गीत बाँचे हैं और उनकी प्रवृत्तियोंका झुकाव देखा है। यदि इतना परिचय प्राप्त करने पर भी एक लेखक किसी मनुष्यके सम्बन्धमें अपने विचार निश्चित करनेका-अपने अभिप्राय प्रकट करनेका अधिकारी न समझा जाय तो कहना होगा कि संसारका कोई भी मनुष्य दूसरे किसीके विषयमें अभिप्राय बाँध ही नहीं सकता। मेरा विश्वास है कि पं० अर्जुनलालजीके साथ मेरा जो उक्त रूपसे परिचय रहा है उससे उनके विषयमें मेरे जो खयाल बने हैं वे सत्य हैं और उनको कोई मनुष्य गलत सिद्ध नहीं कर सकता । मेरे खयालसे सेठीजी केवल धर्मक्षेत्र और शिक्षाकार्यमें तन्मय रहनेवाले पुरुष हैं। शान्तिप्रचारक जैनधर्म और सुखवर्द्धक शिक्षाकी उन्नतिके सिवाय दूसरा कोई विचार उनके मस्तकमें उत्पन्न ही नहीं हो सकता । अब तक वे कभी किसी भी राजनीतिक आन्दोलनमें यहाँतक कि कांग्रेसमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94