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सेठीजीका मामला।
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कष्ट देनेमें ही कृतकृत्यता समझी । परन्तु इन सबको धिक्कार देनेके बदले मैं स्वयं अपनेको ही धिक्कार क्यों न दूँ जो जैनसमाजको सोलह वर्षके लम्बे समयमें अच्छी तरह जान-पहचान कर भी इस धनलुब्ध, उच्चभावनाओंसे विमुख और कर्तव्यच्युत समाजको अर्जुनलालजीके प्रति उसका जो कर्तव्य है उसमें तप्तर होनेकी निष्फल अपील करनेमें समय गवाँ रहा हूँ !
क्या जैनसमाज कर्तव्यहीन नहीं है ? बम्बईका प्रसिद्ध 'गुजराती ' पत्र इस विषयमें कटाक्ष कर ही चुका है। उधर कानपुरका 'प्रताप' कहता है:-" जैनसमाजके लिए यह शर्मकी बात है कि उसका एक खास सेवक निर्दोष होने पर भी जेलमें सड़ता रहे और वह हाथ पर हाथ रक्खे बैठ रहे । पटियालेके मामलेमें आर्यसमाजने आकाश और पाताल एक कर दिये, पर यहाँ तो अभी कुछ भी नहीं हुआ।” प्रतापके सम्पादक महाशयको जैनों और आर्यसमाजियोंके बीचका अन्तर देखकर आश्चर्य होता है; पर मुझे तो यही आश्चर्य हो रहा है कि उन्हें इसमें आश्चर्य क्यों हुआ ! कहाँ आर्यसमाज और कहाँ आधुनिक जैनसमाज ! कहाँ शेर और कहाँ गीदड़ ! कहाँ सूर्य और कहाँ बेचारा खद्योत ! यदि जैनोंमें ज़रा भी कर्तव्यप्रेम शेष होता-जीवन रहा होता-सजीव जल रहा होता तो क्या देशरत्न लाला लाजपतराय जैनकुलमें जन्म लेकर भी आर्यसमाजमें चले जाते? भला, जैनसमाज ऐसे रत्नको किस स्थल पर और कैसे रखता ? गुजरातीकी एक कहावतका अर्थ यह है कि " यदि बनिया प्रसन्न होगा तो अधिकसे अधिक तालियाँ बजा .
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