Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 68
________________ २५६ जैनहितैषी - सेठजीका मामला । जल संस 66 धिक् तां च तं च विमदं च इमां च मां च ! " सुप्रसिद्ध विद्वान् राजा भतृहरिको जब मालूम हुआ कि मेरी प्यारी स्त्री व्यभिचारिणी तब उन्होंने अपने हार्दिक दुःखको नीचे लिखे पढ़में प्रकट किया था: Jain Education International " धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ! " इस अमर पदका अभिप्राय यह है कि, “ धिक्कार है उसको ( रानीको ), धिक्कार है उसे ( पत्नीके जारको), धिक्कार है मदनको ( कामदेवको ), धिक्कार है इसे ( उस जारका चित्त दूसरी जिस स्त्रीपर आसक्त था उसे ) और धिक्कार है मुझे जो मैं अपनी स्त्री पर विश्वास कर रहा था । ―――――――――――― I एक देशी राजाका अपनी प्रजा के प्रति अप्रीतिका वर्ताव देखकर मेरे मुँह से भी सहसा यही पढ़ निकल पडा है, केवल इतना फर्क करके कि भर्तृहरिके ' मदन ' शब्दके स्थान में मैंने ' विमद ' शब्द रख दिया है । वास्तवमें ' मदन ' और ' मढ़' दोनों शब्द एक ही धातुसे बने हैं और दोनोंमें उच्छृंखलताका भाव समान रूपसे भरा हुआ है । पाठक समझ ही गये होंगे कि मैं यह बात जयपुर राज्य और किसी भी प्रकार के अपराध के प्रमाणके विना जेलका कष्ट भोगनेवाले पं. अर्जुनलालजी सेठीको उद्देश्य करके लिख रहा हूँ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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