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बिविध प्रसंग |
समझमें इस कार्य में तब तक सफलता नहीं हो सकती, जब तक कि जैनधर्मका अच्छी तरह अध्ययन न किया जाय । स्वाध्याय की प्रतिज्ञा पालनेके लिए अथवा स्वाध्यायका पुण्य सम्पादन करने के लिए किसी ग्रन्थके दो चार पृष्ठ पढ़ लेना दूसरी बात है और अध्ययन करना दूसरी बात है | परीक्षायें पास कर लेनेसे भी कोई जैनधर्मका विद्वान् नहीं हो सकता। इसके लिए बड़े भारी परिश्रमकी दरकार है। किसी एक ग्रन्थका मर्म हृदयंगम करनेके लिए दूसरे बीसों ग्रन्थोंके देखने की जरूरत होती है - केवल उस एक ग्रन्थकी टीकामे ही काम नहीं चल जाता । जब एक ग्रन्थकर्ता एक विषयको एक प्रकार से कहता है और दूसरा उसी विषयको कुछ और प्रकारसे कहता है, तब यह पता लगानेकी ज़रूरत होती है कि इसका कारण क्या है । हमारे यहाँ पुराणग्रन्थों के पढ़नेवाले हजारों लाखों हैं, वे हमेशा देखते हैं कि उत्तरपुराणकी बीसों बातें हरिवंश और पद्मपुराणसे नहीं मिलती हैं । प्रद्युम्नचरित के कर्त्ता कुछ और कहते हैं, हरिवंशके कर्त्ता कुछ और कहते हैं । पर क्या कभी किसीने यह जानने के लिए कुछ विशेष परिश्रम किया है कि इन ग्रन्थोंमें अन्तर होनेका वास्तविक कारण क्या है और इसका मूल कहाँसे है । पता लगाना तो कठिन कार्य है यह भी प्रयत्न नहीं किया गया कि जिन जिन बातों में अंतर है उनकी एक सूची ही बना कर प्रकाशित कर दी जाती । जैनेतर विद्वानोंमें इसप्रकार के प्रयत्न करनेवाले बीसों विद्वान् हैं । स्वर्गीय बाबू बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्यायका ' श्रीकृष्णचरित ' जिन्होंने पढ़ा है वे जानते हैं कि गंभीर अध्ययन
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