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जैनहितैषी
जैनशिक्षाप्रचारक समितिने अपने पिछले वर्षों में प्रतिवर्ष १२०००)। बारह हज़ार रुपयेके हिसाबसे खर्च किया है ! इतनी बड़ी रकम कहाँसे आती थी ? न सेठीजीके पास कोई स्थायी फण्ड था और न उनका कोई धनी सहायक था । यदि कुछ था तो असाधारण साहस, दृढ प्रतिज्ञा और अश्रान्त परिश्रम करनेकी शक्ति । जैनसमाजका कोई मेला, कोई जल्सा कोई उत्सव और कोई प्रतिष्ठा ऐसी न होती थी जिसमें सेठीजी न जाते हों और कुछ न कुछ चन्दा एकत्र करके न लाते हों। इस कार्यके लिए एक एक पैसा माँगनेमें भी उन्हें संकोच न होता था। उनकी अपील बड़ी जोरदार होती थी। श्रोताओंके कड़ेसे कड़े हृदय भी उनकी हृदयद्रावक वाणीसे पिघल जाते थे। उनके कई मित्र भी उन्हीं जैसे थे। वे जयपुर शहरमेंसे चन्दा वसूल करते थे। कई सज्जनोंने तो यह प्रतिज्ञा ले रक्खी थी कि जिस दिन समितिको कमसे कम एक रुपया कहींसे माँगकर न ला देंगे, उस दिन एक वारका भोजन या कोई एक रस छोड़ देंगे !
समितिके कार्योंके कई विभाग थे। परीक्षाविभागके द्वारा समिति अपने निर्वाचित पठनक्रमके अनुसार जयपुर शहरकी और बाहरकी जैन पाठशालाओंकी परीक्षा लेती थी । जो विद्यार्थी परीक्षामें उत्तीर्ण होते थे उन्हें पारितोषिक और मासिक वृत्तियाँ भी दी जाती थीं। परीक्षाके प्रश्नपत्र समिति बड़े बड़े विद्वानोंसे तैयार करवाती थी, जो विद्यार्थियोंकी योग्यताकी जाँचके लिए बहुत ही अच्छे होते थे।
पुरुषशिक्षाविभाग और स्त्रीशिक्षाविभागकी अधीनतामें समितिने
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