Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 56
________________ २४४ जैनहितैषी भी बहुत कुछ परिचय हो गया था और इस कारण वे यह चाहते लगे थे कि मैं अपने कार्यका क्षेत्र जैनसमाजको ही बनाऊँ । इस अवसरको हाथसे जाने देना उन्होंने उचित नहीं समझा और सन् १९०५ में अपनी नौकरीसे स्तीफा दे दिया । इस समय ठाकुरसाहबने उन्हें बहुत समझाया-आग्रह भी किया, पर वह सब निष्फल हुआ। ___ अब सेठीजीने जैनधर्म और जैनसमाजकी सेवाके लिए अपन जीवन अर्पण कर दिया । धन कमा करके भोगविलासके साधन इकट्ठा करनेकी-राजकीय प्रतिष्ठा प्राप्त करनेकी और उठती जवानीकी अन्यान्य सारी वासनाओंको संकुचित करके उन्होंने समाजसेवाकी दीक्षा ले ली और यह उस समय जब कि जैनसमाजमें इस तरहके स्वार्थत्यागकी न तो चर्चा ही थी और न प्रतिष्ठा । अपने भाइयोंकी भलाईके लिए दिनरात अश्रान्त परिश्रमके सिवाय इस स्वार्थत्यागका और कोई ऐहिक फल पानेकी उस समय आशा न थी । इस मार्गमें अनेक विघ्न उपस्थित हुए; परन्तु सेठीजीने उनकी जरा भी परवा न की । सुनते हैं कि अपनी धुनमें उन्होंने अपनी पैतृक सम्पत्ति तकको तुच्छ समझा और अपना हक छोड़कर उसे अपने भाईको ही सोंप दिया । सेठीजीके इस स्वार्थत्यागका महत्त्व वे लोग समझ सकेंगे जिन्होंने सब तरहकी योग्यतायें प्राप्त करके अभी अभी आशामय संसारमें पैर बढ़ाया है और कभी एकान्तमें बैठकर अपनी असीम आशाओंको मर्यादित करनेका थोडासा भी प्रयत्न किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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